असली ज़िम्मेदार की मुश्किल खोज (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | May 21, 2021

घटनाओं की कौन परवाह करता है, हां घटना अगर दुर्घटना में बदल जाए तो ज़िम्मेदार की खोज करके दिखानी पड़ती है, खोज जोरशोर से शुरू हो जाती है और असली ज़िम्मेदार को ढूंढना काफी मुश्किल हो जाता है। यह सुनिश्चित है कि सर वाली कार, अफसर व नेता से गलती हो नहीं सकती क्यूंकि ये सभी बड़ी सूझबूझ के साथ काम संभाले होते हैं। यदि यह जिम्मेवारी से काम नहीं करेंगे तो दूसरे यह ज़िम्मेदारी ओढ़ने को तैयार खड़े मिलेंगे फिर इनसे आम जनता को प्रेरणा कैसे मिलेगी। इन्हें किसी भी गलत बात के लिए हरगिज़ ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते क्यूंकि यह सभी किस्म के योग, आसन और दवाएं कर सकते हैं और आयोग भी यही बनाते हैं ताकि बात चलती फिरती रहे। पूरा विश्व जानता है कि हमारे यहां तो उच्चतम स्त्रोत से आए न्याय को भी चलता करने की संस्कृति अच्छी तरह से विकसित है। एक छोटी संस्था बड़ी संस्था को बैठक करने को कैसे कह सकती है। छोटी संस्था बड़ी संस्था की जेब में रहती है क्यूंकि उसे वहां होना ही होता है। घटना के बारे में बार-बार यह कहने में क्या घिसता है कि पूरा प्रोटोकोल फॉलो किया गया है, सारे ज़रूरी कदम उठाए गए हैं। चुने हुए लोगों का जमा योग ही आयोग बनाता है और इस शब्द का संधिछेद कर बड़ी बड़ी संधियां हो जाती हैं। ‘आ योग’ का अर्थ ‘आओ जमा करें’ कर दिया जाता है। आयोग में नौकरी भी उन्हें मिलती है जो ज़्यादा ‘योग’ और ‘आसन’ कर सकते हैं और जनता को ‘योग’ व ‘आसन’ करवा सकते हैं।

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उनकी नीतियां बहुत सुंगन्धित होती हैं। उनका पहला काम ऐसी नीतियां बनाना होता है कि सर वाली कार चलती रहे और कोशिश करके दोबारा आयोग बनाने काबिल रहे। कार चलाने वालों को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता, वे ही तो सारा सफ़र इशारों में खेलते कूदते निबटा देते हैं। ज़्यादा लोगों को सज़ा देना वैसे भी मुश्किल होता है। सही समय पर की गई मेहनत और तिकड़म से बने महा जनों की ज़िम्मेदारी भी कैसे हो सकती है। उनका कर्तव्य तो उनपर लगे आरोपों को उचित तरीके से हैंडल करना होता है, हां विरोधियों को दोष दिया जा सकता है। जब वे ज़्यादा भुरभुरे हों तो और आसान हो जाता है। अब विदेशों को दोष देने की प्रवृति में बदलाव आ गया है। आस्था के सैलाब को कभी ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। 

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काफी दोष दुनिया बनाने वाले का भी है। गलती कुदरत की भी है उसे पीपल के वृक्ष ज़्यादा लगाने चाहिए थे। यह बात ज़्यादा सच है कि आम लोगों को चीज़ों को प्रयोग करना या संभाल कर रखना नहीं आता, इसका कारण यह भी है आम लोग गलत मुहर्त या गरीब नक्षत्रों में पैदा हुए होते हैं। उनमें समझ नैसर्गिक रूप से विकसित नहीं हो पाती इसलिए दोष उनको दिया जा सकता है। नासमझ आम जनता मास्क नहीं पहनती, विज्ञापन के मुताबिक दो गज की सामाजिक दूरी नहीं बनाए रखती। जमा घटाव कर न्याय यह कहता है कि दुर्घटना की ज़िम्मेदारी आम जनता पर आराम से मढ़ सकते हैं।


- संतोष उत्सुक

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