Prabhasakshi NewsRoom: Bihar की जनता ने भारी मतदान का रिकॉर्ड बना दिया, ये बदलाव की आहट है या दसहजारी योजना का कमाल है?

By नीरज कुमार दुबे | Nov 07, 2025

बिहार की जनता ने 6 नवंबर को विधानसभा चुनावों के पहले चरण में लगभग 65 प्रतिशत मतदान करके अपने राजनीतिक इतिहास का नया अध्याय लिख दिया है। यह केवल एक सांख्यिकीय उपलब्धि नहीं है बल्कि सामाजिक और राजनीतिक मनोविज्ञान का भी दर्पण है। चुनाव आयोग ने मतदाताओं के इस उत्साह का स्वागत किया है तो वहीं तमाम राजनीतिक दल इस भारी मतदान को अपने अपने पक्ष में बताने में भी जुट गये हैं। साथ ही इस भारी मतदान से विपक्ष के उन आरोपों की भी हवा निकल गयी है जिसके तहत कहा जा रहा था कि बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया के जरिये मतदाताओं को वोट डालने से रोकने का षड्यंत्र किया गया।


बिहार विधानसभा चुनावों के लिए अब तक हुआ प्रचार भले बहुत जोशीला नहीं रहा हो लेकिन 121 सीटों पर पहले चरण के दौरान मतदाताओं की भागीदारी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राज्य का जनमानस उदासीन नहीं है। पिछले तीन चुनावों की तुलना करें तो 2010 में 52.73%, 2015 में 56.91% और 2020 में 57.29% मतदान रहा था और इस बार मतदान प्रतिशत का 64.66% रहना केवल संख्या नहीं, बल्कि जन-सक्रियता का संदेश है। अब सवाल यह है कि मतदाताओं की यह सक्रियता किसके पक्ष में जाएगी?

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राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएँ देखें तो आरजेडी के तेजस्वी यादव ने इसे “महागठबंधन की जीत की मुहर” बताया तो वहीं भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने दावा किया कि “पहले चरण की 100 सीटें एनडीए की झोली में” जाएँगी। उधर, प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी ने इसे “परिवर्तन की प्यास” कहा। देखा जाये तो बिहार के इस चुनाव में दो परस्पर विरोधी नैरेटिव टकरा रहे हैं। एक ओर “सुशासन और स्थिरता” की दलील लिए नीतीश कुमार हैं, दूसरी ओर “नौकरी, महंगाई और असंतोष” का कार्ड खेल रहा महागठबंधन है।


लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ी निर्णायक हैं महिला मतदाता। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, महिलाओं ने पुरुषों से अधिक मतदान किया है इसलिए यह माना जा सकता है कि यह भारी मतदान एनडीए के पक्ष में लाभदायक होगा। हम आपको बता दें कि 2020 में जिन 43 सीटों पर महिलाओं ने अधिक मतदान किया, उनमें से 27 एनडीए को मिली थीं। 2015 में महिलाओं के सर्वाधिक मतदान वाली 71 सीटों में से एनडीए ने 61 और 2010 में 115 में से 79 सीटें एनडीए ने जीतीं थीं। दरअसल, नीतीश कुमार का महिला-केन्द्रित कल्याण मॉडल इस समीकरण का मूल बिंदु है। इस मॉडल में साइकिल योजना, छात्रवृत्ति, आरक्षण, और अब ‘मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना (MMRY)’ है, जिसे जनता ने प्यार से ‘दसहजारी योजना’ कहा है।


देखा जाये तो नीतीश कुमार की यह योजना केवल एक चुनावी गिमिक नहीं, बल्कि बिहार के ग्रामीण और निम्नवर्गीय समाज में ‘सशक्तिकरण के अर्थशास्त्र’ की पुनर्व्याख्या है। इस योजना के तहत 1.21 करोड़ महिलाओं को ₹10,000 की पहली किश्त दी जा चुकी है, जो कुल ₹2.10 लाख की सहायता का प्रारंभिक चरण है। यह केवल नकद हस्तांतरण नहीं, बल्कि महिलाओं को उद्यमिता की दिशा में प्रेरित करने का प्रयास है। साथ ही नीतीश ने 50% पंचायत आरक्षण, 35% सरकारी नौकरी आरक्षण और अब उद्यमिता योजनाओं के ज़रिए महिलाओं को राजनीति में स्थायी हिस्सेदार बना दिया है। यह सामाजिक रूप से नीतीश का सबसे बड़ा निवेश है, जिसका लाभ उन्हें बार-बार मिलता रहा है। बिहार में तमाम महिलाओं की कहानियाँ बताती हैं कि नीतीश कुमार की योजनाएँ अब आर्थिक राहत से आगे बढ़कर सामाजिक आत्मविश्वास में बदल चुकी हैं। महिलाएँ न केवल वोटर हैं, बल्कि अब राजनीतिक भागीदार बन रही हैं, यही इस चुनाव का मनोवैज्ञानिक मोड़ है।


परन्तु, इस सशक्तिकरण का एक सामाजिक दुष्परिणाम भी दिखने लगा है। गांवों में पुरुषों की शिकायतें बढ़ी हैं। एक व्यक्ति ने कहा, “नीतीश ने औरतों को सिर चढ़ा दिया”, “घर की सत्ता अब बदल रही है।” देखा जाये तो यह कथन एक गहरे सामाजिक परिवर्तन का संकेत है। पुरुष-प्रधान समाज में महिला-आधारित राजनीतिक जागरूकता बढ़ने से कई व्यक्ति नीतीश से नाराज भी दिखे।


इसके अलावा, इस रिकॉर्ड मतदान का एक राजनीतिक अर्थ यह भी है कि लोग बदलाव चाहते हैं, पर किस दिशा में, यह स्पष्ट नहीं है। एक ओर, नीतीश कुमार के 20 वर्षों के शासन का थकान भरा अनुभव है; दूसरी ओर, उनके शासन में बनी स्थिरता और सुरक्षा की भावना है। उधर, महागठबंधन बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ रहा है, जबकि एनडीए “विकास और सुशासन” के नारे पर टिका है। इस संदर्भ में, उच्च मतदान को सरकार विरोधी लहर का प्रमाण मानना जल्दबाज़ी होगी। यह भी संभव है कि महिलाओं और प्रवासी मजदूरों की बड़ी भागीदारी ने इस आंकड़े को बढ़ाया हो। प्रशांत किशोर ने सही कहा है कि “छठ पूजा पर लौटे मजदूर इस बार वोट डालने के लिए रुके, यह एक नया X फैक्टर है।”


हम आपको यह भी याद दिला दें कि विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision) को लेकर विपक्ष ने चुनाव आयोग पर “मतदाता सूची में गड़बड़ी” का आरोप लगाया था। 65 लाख नाम हटाए जाने के बावजूद, रिकॉर्ड मतदान यह साबित करता है कि जनता का भरोसा चुनावी प्रक्रिया में बरकरार है। 2020 की तुलना में 7 प्रतिशत अधिक मतदान इस बात का संकेत है कि “डिलीटेड वोटर्स की जगह नए मतदाता खड़े हुए हैं।”


बहरहाल, बिहार का यह रिकॉर्ड मतदान केवल एक चुनाव नहीं, बल्कि राज्य के सामाजिक पुनर्गठन की कहानी है। यह उस समाज की तस्वीर है जहाँ महिलाएँ अब निर्णयकर्ता हैं, मजदूर घर लौट कर मतदान कर रहे हैं और जनता विकल्प खोजने लगी है। अगर यह मतदान बदलाव का संकेत है तो यह नीतीश कुमार के विरुद्ध नहीं, बल्कि उन्हीं के बनाए नए सामाजिक समीकरणों से उपजा बदलाव है। और यदि यह निरंतरता का समर्थन है तो यह इस बात का प्रमाण है कि नीतीश कुमार ने अपने शासन को जनजीवन के ताने-बाने में गूँथ दिया है। बिहार का 65 प्रतिशत मतदान इस बात की याद दिलाता है कि लोकतंत्र तब सबसे सुंदर दिखता है जब जनता वोटिंग बूथ को उत्सव बना देती है— और बिहार ने यह उत्सव पूरे जोश से मनाया है।

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