By नीरज कुमार दुबे | Sep 13, 2025
संयुक्त राष्ट्र महासभा में पारित “न्यूयॉर्क घोषणा” प्रस्ताव ने एक बार फिर पश्चिम एशिया के लंबे संघर्ष को वैश्विक बहस के केंद्र में ला दिया है। 142 देशों ने जिस तरह इस प्रस्ताव का समर्थन किया, वह स्पष्ट संकेत है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय अब दो-राष्ट्र समाधान को ही शांति का एकमात्र मार्ग मानता है। भारत का पक्ष में वोट देना इसी सोच का हिस्सा है। प्रस्ताव की विशेषता इसका संतुलित दृष्टिकोण है। इसमें 7 अक्तूबर के हमास हमले की निंदा की गई, जिसने निर्दोष नागरिकों की जान ली और कई लोगों को बंधक बनाया। साथ ही, गाज़ा में इज़राइल की सैन्य कार्रवाई को भी अमानवीय बताया गया, जिसने हज़ारों नागरिकों की जान ले ली और पूरे क्षेत्र को मानवीय आपदा में धकेल दिया। इस दोहरी आलोचना ने यह संदेश दिया कि आतंकवाद और राज्य-प्रायोजित हिंसा, दोनों ही अस्वीकार्य हैं।
भारत का रुख इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। एक ओर वह ऐतिहासिक रूप से फिलस्तीन के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थक रहा है, दूसरी ओर इज़राइल के साथ उसके गहरे रक्षा और तकनीकी संबंध हैं। इस पृष्ठभूमि में भारत का पक्ष में वोट देना रणनीतिक संतुलनकारी नीति का परिचायक है। यह न तो इज़राइल से दूरी है और न ही फिलस्तीन पर अंध-समर्थन, बल्कि मानवीय मूल्यों और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के पक्ष में खड़ा होने का प्रयास है। अमेरिका और इज़राइल ने इस प्रस्ताव का विरोध किया, लेकिन उनका अकेलापन यह दर्शाता है कि वैश्विक बहुमत अब हिंसा और कब्ज़े की राजनीति से थक चुका है।
हम आपको बता दें कि फ्रांस द्वारा प्रस्तुत इस प्रस्ताव के पक्ष में 142 देशों ने वोट दिया, 10 ने विरोध किया और 12 ने मतदान से परहेज़ किया। भारत उन 142 देशों में शामिल रहा जिन्होंने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। सभी खाड़ी अरब देशों ने भी पक्ष में वोट दिया, जबकि इज़राइल, अमेरिका, अर्जेंटीना, हंगरी, माइक्रोनेशिया, नाउरू, पलाऊ, पापुआ न्यू गिनी, पराग्वे और टोंगा ने विरोध किया। इस प्रस्ताव का समर्थन करने वाले देशों की भारी संख्या यह दर्शाती है कि विश्व समुदाय अब केवल हमास की हिंसा पर ही नहीं, बल्कि गाज़ा में हो रहे मानवीय संकट पर भी गंभीर चिंता जता रहा है। हम आपको यह भी बता दें कि भारत का फिलस्तीन को समर्थन नया नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से ही भारत ने फिलस्तीन के आत्मनिर्णय और राज्य स्थापना के अधिकार का समर्थन किया है।
1992 के बाद इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर भारत ने संतुलन साधने की कोशिश की। लेकिन हाल के महीनों में भारत की नीतियों में कुछ दिलचस्प मोड़ भी दिखे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्यक्तिगत स्तर पर क़तर की संप्रभुता पर हुए हमले की आलोचना की। यह कड़ा और अपेक्षाकृत असामान्य रुख बताता है कि भारत खाड़ी देशों के साथ अपने संबंधों को अत्यधिक महत्व देता है— विशेषकर ऐसे समय में जब ऊर्जा सुरक्षा और प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा उसके लिए सर्वोपरि है।
इसके अलावा, जून 2025 में भारत ने शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के एक बयान से दूरी बनाई थी, परंतु सितंबर में तियानजिन घोषणा का समर्थन किया, जिसने इज़राइल और अमेरिका के ईरान पर हमलों को “अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन” बताया। यह बदलाव इंगित करता है कि भारत अब पश्चिम एशिया में अमेरिकी-इज़राइली कार्रवाइयों से स्पष्ट असहमति जता रहा है। इसके अलावा, हालांकि भारत ने BRICS में अपेक्षाकृत नरम भाषा का समर्थन किया और इज़राइल या अमेरिका का नाम नहीं लिया, परंतु यह बताता है कि वह किसी भी खेमे में पूरी तरह नहीं झुकना चाहता।
देखा जाये तो भारत के लिए यह केवल कूटनीति नहीं बल्कि रणनीतिक अनिवार्यता है। एक ओर इज़राइल भारत का रक्षा, कृषि और साइबर सुरक्षा में अहम साझेदार है। दूसरी ओर अरब खाड़ी देश भारत की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करते हैं और आठ मिलियन से अधिक भारतीय प्रवासी वहां काम करते हैं। ईरान के साथ चाबहार बंदरगाह और क्षेत्रीय स्थिरता भी भारत के लिए अहम है। ऐसे में भारत की विदेश नीति का असली आधार “रणनीतिक संतुलन” है, न कि किसी एक पक्ष से दूरी या नज़दीकी।
फिर भी, भारत के लिए एक और कसौटी है— उसकी वैश्विक छवि। गाज़ा में लगातार बढ़ती नागरिक मौतों और संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों द्वारा घोषित भुखमरी की स्थिति को नज़रअंदाज़ करना भारत के “ग्लोबल साउथ के नेता” और “मानवीय मूल्यों के पक्षधर” होने की छवि को कमजोर करता। यही कारण है कि भारत अब अधिक मुखर होकर मानवीय कानून और अंतरराष्ट्रीय नियमों की रक्षा की बात कर रहा है।
इसलिए कहा जा सकता है कि भारत इज़राइल से दूरी नहीं बना रहा, बल्कि एक कठिन संतुलन साध रहा है। उसकी प्राथमिकता यह है कि वह इज़राइल के साथ रणनीतिक साझेदारी को जारी रखे, साथ ही अरब और ईरान जैसे देशों के साथ ऊर्जा, सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता के संबंधों को भी मजबूत बनाए। संयुक्त राष्ट्र में मतदान और हालिया बयानों से यही स्पष्ट होता है कि भारत आतंकवाद का विरोध करते हुए भी नागरिकों की सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय क़ानून की रक्षा पर समझौता नहीं करेगा। हम आपको याद दिला दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में यरूशलेम में हुए हमले की निंदा की थी और साथ ही क़तर में इज़राइली हमले को भी गलत ठहराया था। इसके जरिये मोदी ने यह संदेश दिया कि आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर किसी भी देश को अंतरराष्ट्रीय क़ानून और मानवीय सिद्धांतों की अनदेखी का अधिकार नहीं मिल सकता।
बहरहाल, यह संतुलन आसान नहीं है। लेकिन यदि भारत इसे बनाए रखने में सफल रहता है तो वह न केवल पश्चिम एशिया में, बल्कि वैश्विक राजनीति में भी एक विश्वसनीय, स्वतंत्र और संतुलित शक्ति के रूप में अपनी पहचान मजबूत करेगा। वैसे, पश्चिम एशिया की जटिल राजनीति में अक्सर देश एक ध्रुव का समर्थन करने को विवश हो जाते हैं। भारत ने अब तक दोनों ओर मित्रता बनाए रखी है, लेकिन जैसे-जैसे संघर्ष तेज़ होगा, संतुलन की यह डोर और भी पतली होती जाएगी।
-नीरज कुमार दुबे