By सुखी भारती | Feb 06, 2025
भगवान शंकर का पावन श्रृंगार मूर्त रुप ले रहा है। शिवगण किसी ब्यूटी पार्लर से महारत लेकर तो श्रृंगार कर नहीं रहे थे। किंतु शिवगण जो भी प्रयास से श्रृंगार से कर रहे थे, उससे भगवान शंकर प्रसन्न अवश्य हो रहे थे। यह श्रृंगार प्रभु के दरबार में तो खूब सम्मान पा रहा है, किंतु संसार में इसकी प्रभुता साकार हो पायेगी, अथवा नहीं, यह तो भविष्य ही तय करेगा।
शिवगणों ने जब देखा, कि दूल्हे के कानों में तो कोई कुण्डल या कंकण तो है ही नहीं। तब क्षणभर के विचार के पश्चात, उन्होंने नन्हें-नन्हें सर्पों को ही कानों में सचा दिया। मानों उनके लिए यही कुण्डल और कंकण हों।
विचार करने योग्य बात यह है, कि क्या सर्प के बच्चे भी कभी प्रभु के कानों पर सज सकते हैं? निःसंदेह इसके पीछे भी एक आध्यात्मिक रहस्य है। वास्तव में सर्प एक ऐसी प्रजाति है, जिन्हें प्रभु ने कान ही नहीं दिए हैं। सभी सर्प जन्मजात बहरे होते हैं। उन्हें भले ही प्रभु के गले में लिपटने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो, किंतु उनका एक दुर्भाग्य उन्हें सदा खलता रहता है। दुर्भाग्य यह, कि वे जानते हैं, कि भगवान शंकर सृष्टि के प्रथम राम कथा वाचक हैं। वे श्रीराम जी की पावन कथा केवल बाँचते ही नहीं हैं, अपितु उनकी कथा को श्रवण भी बड़े प्रेम भाव से करते हैं। कहना गलत नहीं होगा, कि उनकी जीहवा तो महान है ही, जो कथा वाचन करती है, साथ में उनके श्रवण रंध्र भी उत्तम व महान हैं, जिनके द्वारा श्रीराम जी की कथा निरंतर श्रवण होती है। लेकिन एक हम सर्पों का दुर्भाग्य देखिए, कि हम सदैव भगवान शंकर द्वारा गाई, श्रीराम कथा की गंगा प्रवाह में रहते हैं, किंतु तब भी एक भी शब्द ऐसा नहीं, जो कि हमारे कानों में पड़ सके। क्योंकि प्रभु ने हमें कान जो नहीं दिये हैं। यह तो ऐसी विधि हुई, कि जैसे कड़छी विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में रहती तो है, वहाँ खूब घूमती है, किंतु तब भी किसी भी प्रकार के व्यंजन का स्वाद नहीं चख पाती।
हमें भी तो देखना है, कि भगवान शंकर के कानों में पड़ने वाले ‘श्रीराम कथा’ के शब्दों की कैसी मिठास है? कैसी चाश्नी में वे डूबे होते हैं? लेकिन अफसोस, कि कान नहीं होने के कारण, हम सदैव इस दिव्य स्वपन को साकार करने के लिए तरसते रहते हैं।
भगवान शंकर ने शायद सर्पों की यह भावना पढ़ ली होगी। तभी उन्होंने सर्पों को बाल्य अवस्था में ही कानों में कुण्डल बना कर धारण कर लिया। मानों प्रभु कहना चाह रहे हों, कि हे सर्पो! तुम मन छोटा क्यों करते हो? तुम्हारी प्रजाति तो सदा से इस बात को लेकर बदनाम है न, कि आप सर्पों की अपनी कोई बिल ही नहीं होती। आप लोग चूहों की बिल पर बलपूर्वक अधिकार कर लेेते हो। उसके बाद उस बिल में सदैव विष का ही पसारा होता है। लेकिन आज हमने आपको अपने कानों की बिल पर ही सजा लिया है। जिससे कि तुम लोग भी यह कह पायो, कि अब हम जिस बिल पर रहते हैं, वह कोई चूहे की बिल नहीं, अपितु भगवान शंकर के कान ही हमारी बिल है। जिसकी विशेषता है, कि उस बिल में विष नहीं, अपितु सदैव श्रीराम कथा के अमृत का वास है। अब हमारा पहरा संसार के धन दौलत के भंडार पर नहीं, अपितु प्रभु कथा के धन भंडार पर है। इससे हम भी सदैव सजग रहते हैं, कि हमें कभी भी विषैला स्वभाव नहीं अपनाना है। हमारे भीतर विष होते हुए भी हमें, सदैव अमृत का ही संचार करना है। क्योंकि हम यहाँ किसी चूहे को मारकर अधिकार करके नही बैठे हैं, अपितु अब हम प्रभु का श्रृंगार हैं। और श्रृंगार तो सबको आकृर्षित करता है। उससे केई दूर नहीं भागता, अपितु सभी उसके पास आने को आतुर रहते हैं।
हमारा प्रभु के कानों पर सजने के पीछे एक और बड़ा कारण है। वह यह, कि जो लोग कहते हैं, कि हम कितना भी प्रभु की कथा में बैठते हैं, हमारे भीतर कोई शब्द उतरता ही नहीं है। तो उन्हें हम सर्पों की ओर से निवेदन है, कि आप में भले ही हमारी तरह, एक भी प्रभु कथा का शब्द न ठहरे, लेकिन तब भी आप प्रभु का श्रृंगार हैं। प्रभु ने आपको दुत्कारा नहीं होता, अपितु अपने कानों पर सजाया होता है।
आगे के श्रृंगार में शिवगण भोलेनाथ को मरघट की राख लपेटते हैं। इसमें कौन से आध्यात्मिक रहस्य हैं, जानेंगे अगले अंक में---
क्रमशः
- सुखी भारती