Gyan Ganga: भगवान शंकर अपने भक्तों के प्रेम व भक्ति भाव को देखकर श्रृंगार को मना नहीं कर पाएं

Lord Shankar
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सुखी भारती । Jan 30 2025 11:44AM

भगवान शंकर भी सोचते होंगे, कि भले ही हम कैलाश पर रहने वाले हैं, किंतु इतना सा ज्ञान तो हमें भी है, कि दूल्हा अपने विवाह पर सुंदर ओढ़नी न पहन कर, बागम्बर तो नहीं पहनता। लेकिन मेरे गणों ने अगर मेरे लिए यह पोशाक चुनी है, तो वह व्यर्थ व अकारण कैसे हो सकती है?

विगत अंक में हमने बडे़ सुंदर व मनभावन प्रसंग को श्रवण किया। जिसमें कि शिवगणों द्वारा, भगवान शंकर का श्रृंगार किया जा रहा था। यहाँ यह पक्ष अवश्य विचारणीय है, कि क्या एक साधारण जीव, जो कि संसार की माया की मलिनता में सना हुआ है, वो आखिर परम पवित्र, साक्षात भगवान का श्रृंगार भला कैसे कर सकता है? निश्चित ही यह तो विधान के उल्ट हुआ। किंतु इसमें कुछ भी असत्य नहीं है। भले ही एक भक्त को अनेकों जन्मों के पापों से संघर्ष करते हुए, प्रभु की भक्ति करनी पड़ती है। किंतु तब भी वह इन पाप कर्मों की मैल होते हुए भी मलिन नहीं कहलाता है। कारण कि वह अपने प्रभु के प्रेम में मस्त होता है। प्रभु भी जब देखते हैं, कि मेरे भक्त का प्रत्येक मनोभाव मेरे से ही जुड़ा हुआ है, तो वे भी अपने भक्त के कर्मों संस्कारों को न देखकर, उसके भक्ति भावों को ही देखते हैं। प्रभु अपने ऐसे भक्तों को स्वयं से भिन्न न मान कर, उसे अपना ही रुप प्रदान कर देते हैं। उस अवस्था में भक्त और भगवान में कोई अंतर नहीं रह जाता। ऐसे ही भक्त कैलाश पर उपस्थित शिवगण भी हैं। वे भगवान शंकर के प्रति इतने समर्पित व प्रेम से ओत-प्रोत हैं, कि उन्हें यह ज्ञान ही न रहा, कि हम भला कौन होते हैं, जो भगवान का भी श्रृंगार करने बैठ जायें। ऊपर से भगवान शंकर भी अपने भक्तों के प्रेम व भक्ति भावों के ऐेसे रसिया हैं, कि वे उन्हें मना ही नहीं कर रहे, कि पगलो सर्प के बच्चों को कुण्डल बना कर, भला कौन कानों में पहनता है?

भगवान शंकर भी सोचते होंगे, कि भले ही हम कैलाश पर रहने वाले हैं, किंतु इतना सा ज्ञान तो हमें भी है, कि दूल्हा अपने विवाह पर सुंदर ओढ़नी न पहन कर, बागम्बर तो नहीं पहनता। लेकिन मेरे गणों ने अगर मेरे लिए यह पोशाक चुनी है, तो वह व्यर्थ व अकारण कैसे हो सकती है?

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निश्चित ही उन पर मेरी भक्ति का नशा चरम पर है। तभी तो वे सहज ही वह कार्य कर रहे हैं, जो कि मेरी सोच व स्वभाव के अनुकूल हैं। नहीं तो किसे पता है, कि मेरी खुली जटायें तीनों तापों का प्रतीक हैं। तीन दुख जो कि दैहिक, दैविक व भौतिक रुप में, जीव भोगता है, वे मेरी जटायों की ही भाँति हैं। खुली जटायें, जैसे किसी बँधन व नियम में प्रतीत नहीं होती, ठीक ऐसे ही दुख भी तो होते हैं। दुख कभी सोचते, कि हमें दरिद्र, असहाय व दीन को परेशान नहीं करना चाहिए। वे तो अबाध गति व बँधन रहित हो सबको डसते हैं। किंतु इन्हीं दुखों को अगर ज्ञान के बँधन में बाँध लिया जाये, और सीस पर मुकुट की भाँति सजा लिया जाये, तो इन्हीं उलझी जटायों में गंगाजी की अवरिल धारा भी बह उठती है। जो गंगाजी का उद्धगम श्रीहरि के पावन चरणों से है, व जिस गंगाजी को भर्तृहरि ने स्वर्ग से उतारा था, वही गंगाजी अब भोलनाथ के सीस पर सजी जटायों से बहती हैं।

कहने का तात्पर्य, कि जिसे दुखों को वश करने की कला आ गई, वह जीव के सीस पर अब दुखों का पहाड़ न होकर गंगाजी सुशौभित होती हैं।

आगे शिवगणों ने भगवान शंकर के कानों में सर्पों के कुण्डल व कंकण से श्रृंगार किया। इसके पीछे क्या आध्यात्मिक रहस्य है, जानेंगे अगले अंक में---जय श्रीराम।

क्रमश---

- सुखी भारती

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