नये भारत में अरशद मदनी जैसे लोगों के संकीर्ण विचारों के लिए कोई जगह नहीं

By ललित गर्ग | Sep 01, 2021

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के सदर अरशद मदनी का एक विरोधाभासी बयान चर्चा में है। उनका यह बयान कि लड़कियों और लड़कों की शिक्षा अलग-अलग होनी चाहिए, एक प्रतिगामी विचार तो है ही, भारतीय संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ भी है। जब हम नया भारत, सशक्त भारत बनाने की ओर अग्रसर हो रहे हैं, ऐसे समय में इस तरह के संकीर्ण विचारों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। आज अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज होने के साथ अफगानी बच्चियों और औरतों के भविष्य को लेकर जब पूरी दुनिया चिंता में डूबी हुई है, तब ऐसे विसंगतिपूर्ण बयानों को कोई भी हिन्दुस्तानी खारिज ही करेगा। एक मंजिल, एक रास्ता और एक दिशा- फिर समाज एवं राष्ट्र को बनाने वाली दो शक्तियां आगे-पीछे क्यों चलें? क्यों इन मूलभूत शक्तियों के मिलन-प्रसंग, साथ-साथ चलने में संकीर्णता की बदली ऊपर लाई जाती है? क्यों दो हाथ मिलने की बात को ओट में छिपाने की वकालत की जाती है? 


इक्कीसवीं सदी के भारतीय समाज ने सोच के स्तर पर भी लंबा सफर तय कर लिया है। देश के सभी वर्गों की बेटियां आज मुख्यधारा में शामिल हो तरक्की की नई-नई इबारतें लिख रही हैं। ऐसे नये बनते भारत में सहशिक्षा की सफलता के नये मुकाम भी हासिल हो चुके हैं, फिर क्यों अरशद मदनी लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग स्कूल-कॉलेज खोले जाने का आलाप जप रहे हैं। इसलिए केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने मदनी को उचित याद दिलाया है कि भारत शरीयत से नहीं, बल्कि संविधान से संचालित एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, और भारतीय संविधान ने अपनी बेटियों को बेटों के बराबर सांविधानिक अधिकार दिए हैं। एक नागरिक के तौर पर अपने बेहतर भविष्य के लिए वे हर वह फैसला कर सकती हैं, जो इस देश के लड़कों को हासिल है।

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भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में एवं प्रगतिशीलता के युग में लड़के और लड़कियों को अलग-अलग शिक्षा देने जैसी बातें अपरिपक्व एवं संकीर्ण सोच की परिचायक हैं। क्यों स्त्री को दूसरी श्रेणी का नागरिक माना जाता है, जबकि स्त्री की रचनात्मक ऊर्जा का उपयोग व्यापक स्तर पर देश के समग्र विकास में हो रहा है। जिन समुदायों में आज भी स्त्री को हीन और पुरुष को प्रधान माना जाता है और इसी मान्यता के आधार पर परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में स्त्री एवं पुरुष की समान हिस्सेदारी नहीं होती, उन समुदायों को अपनी सोच की अपूर्णता पर विचार करना चाहिए, सोच को व्यापक बनाना चाहिए। ‘एक हाथ से ताली नहीं बजती’, ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’, ‘अकेली लकड़ी, सात की भारी’ आदि कुछ कहावतें हैं, जो स्त्री-पुरुष समानता की श्रेष्ठता को प्रमाणित करती हैं। स्त्री और पुरुष जब तक अकेले रहते हैं, अधूरे होते हैं। अकेली स्त्री या अकेले पुरुष से न सृष्टि होती है, न समाज होता है और न परिवार होता है। जो कुछ होता है, दोनों के मिलान से होता है। इसी दृष्टि से स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे का पूरक माना गया है। इसकी नींव को मजबूती देने में सहशिक्षा का प्रयोग कारगर है, प्रासंगिक है।


भारत तो सदियों से स्त्री-पुरुषों की समानता की पैरवी करता रहा है। भगवान महावीर ने अपने धर्मसंघ में पुरुषों को जितने आदर से प्रवेश दिया, उतने ही आदर से महिलाओं को भी प्रवेश दिया। न केवल महावीर बल्कि गांधी, स्वामी विवेकानन्द, आचार्य तुलसी जैसे महापुरुषों ने भी स्त्री-पुरुष के बीच की दूरियों को मिटाने एवं असमानता को दूर करने के प्रयत्न किये। वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इन्हीं दिशाओं में सफल एवं सार्थक प्रयत्न करते हुए लैंगिक बराबरी की सफलता के उपक्रम कर रहे हैं। इस लैंगिक बराबरी की राह में जो कुछ रुकावटें बाकी भी हैं, उन्हें देश की सर्वोच्च अदालत अपने फैसलों से दूर कर रही है। भारत की ही भांति कई इस्लामी मुल्कों में भी सहशिक्षा की व्यवस्था है और वह बाकायदा चल रही है। आने वाले दौर की जरूरतों और तेजी से बदलती दुनिया के मद्देनजर अरब देशों को औरतों पर लगी पाबंदियां आहिस्ता-आहिस्ता उठानी पड़ रही हैं। कतर जैसे देश में तो लड़कियों को खेल-कूद तक में बराबरी का हक मिलने लगा है। वहां लड़के-लड़कियों की साक्षरता-दर में मामूली-सा फर्क रह गया है। इन नयी बनती फिजाओं में कट्टरवादी समाजों की संकीर्ण एवं प्रतिगामी सोच को समर्थन नहीं मिल सकता।


राष्ट्रीय एवं सामाजिक स्तर पर महिलाएं और युवक मिलकर बहुत बड़ी क्रांति ला सकते हैं। वर्षों से प्रयत्न करने और कानून बनने पर भी जो काम नहीं हो पा रहा है, वह इन दो वर्गों के संयुक्त प्रयास से बहुत जल्दी हो सकता है। स्त्री के प्रति संकीर्ण सोच एवं उपेक्षा के कारण समाज भीतर ही भीतर से खोखला बना रहा है। इसके कारण स्त्रियों को कितना प्रताड़ित होना पड़ता है, क्या यह किसी से अज्ञात है? लेकिन अब समाज बदल रहा है। मुस्लिम समाज की भी सोच बदल रही है और उसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहे हैं। तीन तलाक के मसले पर देश ने देखा है कि किस कदर महिलाओं ने नए कानून का स्वागत किया। इन बदलावों को देखते हुए भी मजहबी कट्टरता एवं प्रतिगामी सोच के दायरों में बैठे लोगों को अतार्किक एवं विसंगतिपूर्ण बातों से परहेज करना चाहिए। बल्कि उनसे उम्मीद की जाती है कि तंग दायरों से निकल वे समाज का मार्गदर्शन करें। स्त्री-पुरुष असमानता की समस्या सिर्फ एक धर्म, एक समाज, या शिक्षा की नहीं है। लगभग सभी धर्मों, बिरादरियों में ऐसे लोग आज भी मौजूद हैं, जो औरतों को लेकर उदार नजरिया नहीं रखते। सुरक्षा, अस्मिता, मर्यादा, गरिमा, आबरू जैसे शब्दाडंबरों के नीचे उनकी अपनी मरजी को दबा देना चाहते हैं। मगर भारतीय स्त्रियों का यह सौभाग्य है कि देश के नव-निर्माताओं ने आजादी के साथ ही बराबरी के उनके हक पर सांविधानिक मुहर लगा दी। यकीनन, उन्हें सामाजिक बराबरी के लिए अब भी लड़ना पड़ रहा है, पर इस लड़ाई में उनका संविधान उनके साथ खड़ा है। इसलिए उन्हें मदनी जैसे ख्यालों से चिंतित होने की जरूरत नहीं।

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कई स्टडीज बताती हैं कि, दूसरों से खुले दिल से मिलने पर वही लोग आपकी जिंदगी में खुशी की वजह बनने लगते हैं। न केवल खुशी बल्कि विकास एवं नयी संभावनाओं के द्वार उद्घाटित हो सकते हैं। अरशद मदनी को समझना चाहिए कि स्त्री-पुरुष-दोनों शक्तियों की संयोजना से एक विलक्षण शक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है। उस शक्ति से सामाजिक जड़ता के केन्द्र में विस्फोट करके ऐसी चेतना को उभारा जा सकता है, जो एक ऊंची छलांग भरकर समाज को दस-बीस नहीं सौ साल आगे ले जाए। नई कल्पनाओं और नई संभावनाओं के साथ होने वाला सहशिक्षा का प्रयोग ऐसे परिणाम लाएगा, जिससे समाज में विकास के नए क्षितिज खुल सकेंगे।

   

-ललित गर्ग

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