चुनाव तो मिलकर लड़े नहीं अब सरकार बनाने के लिए एक हो रहे हैं विपक्षी दल

By संतोष पाठक | May 20, 2019

2019 का लोकसभा चुनाव वैसे तो कई मापदंड स्थापित करने के लिए इतिहास में याद किया जाएगा। यह चुनाव इसलिए भी याद किया जाएगा कि भले ही विरोधी दलों में पूर्ण एकता स्थापित न हो पाई हो लेकिन आधिकारिक रूप से देश में गैर बीजेपी वाद की शुरूआत तो हो ही गई है। भले ही बीजेपी के खिलाफ एक सामूहिक मोर्चा बना कर विरोधी दल चुनाव में नहीं उतर पाए हों लेकिन तमाम विरोधी दलों का लक्ष्य एक ही है- मोदी हटाओ। इसलिए हम देख रहे हैं कि चुनावी नतीजों के आने से पहले ही कांग्रेस और तमाम अन्य विरोधी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल अगली सरकार बनाने की कवायद में लग गए हैं। 

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2019 के लोकसभा चुनाव में एक और बदलाव आया है जिसकी शुरुआत 2014 के चुनाव नतीजों के साथ ही शुरू हो गई थी, लेकिन अभी तक इस बदलाव को लेकर देश में बहुत ज्यादा चर्चा नहीं हो रही है। हालांकि यह भी एक बड़ा तथ्य कहा जा सकता है कि अगर बदलाव की बयार इसी दिशा की तरफ बहती रही तो देश की राजनीति में 360 डिग्री का परिवर्तन आ जायेगा। 

 

हम बात कर रहें हैं धर्मनिरपेक्षता की। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गड़े गए नारों की। उन तस्वीरों की जो खास तौर से रमजान के पवित्र महीनों में दिखती थी या फिर लोकतंत्र के महापर्व चुनाव के दौरान। इन तस्वीरों में भारत के छोटे-बड़े नेता एक धर्म विशेष की टोपी पहने नजर आते थे। अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिम समुदाय की रक्षा करने के बड़े-बड़े दावे और वायदे किये जाते थे। ध्यान रखिएगा विकास नहीं रक्षा और सिर्फ सुरक्षा। बल्कि कई नेता आपसी बातचीत में यह स्वीकार भी करते थे कि यह टोपी पहनना उनकी मजबूरी है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर उन्हें मुस्लिमो के वोट नहीं मिलेंगे। धर्मनिरपेक्षता के नारे की आड़ में यह सब चल रहा था। मुस्लिम हर चुनाव में थोक के भाव वोट देकर इन्हें जिता भी देते थे लेकिन चुनाव दर चुनाव आते गए, नेता बदलते गए। नेता पैदल या साईकल से हवाई जहाज में सफर करने लगे। नेताओं की तकदीर बदलती गई लेकिन नहीं बदली तो इन मुस्लिमों की तकदीर। इस बीच उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का वो ऐतिहासिक बयान भी आ गया जिसमें उन्होंने देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का बता दिया। 

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फिर 2014 का लोकसभा चुनाव आ गया। पूर्ण बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने। इतनी करारी हार से हैरान-परेशान कांग्रेस ने ए के एंटनी साहब की अध्यक्षता में कमिटी बनाई। एंटनी साहब ने कहा कि देश का बहुसंख्यक समुदाय कांग्रेस को अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों की पार्टी मान कर नाराज बैठा है। हिंदुओं ने पार्टी से किनारा कर लिया और इसी वजह से कांग्रेस की यह दुर्दशा हुई। कांग्रेस समझ गई कि पुराने दौर में लौटने का वक्त आ गया है। गुजरात विधानसभा चुनाव से कांग्रेस की रणनीति में शिफ्ट नजर आने लगा। राहुल गांधी मस्जिदों- मदरसों की बजाय मंदिरों में जाते नजर आए। पूजा अर्चना करते नजर आए, आरती में शामिल होते दिखे। गुजरात के नतीजे आये और बड़ी मुश्किल से बीजेपी वहां सरकार बना पाई। कांग्रेस समझ गई फॉर्मूला हिट हो सकता है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नतीजों ने राहुल गांधी को यह अहसास दिलाया कि मंदिर- मंदिर जाना कितना फायदेमंद हो सकता है। 

 

कांग्रेस के इस बदलाव को मतदाताओं के साथ-साथ वो तमाम क्षेत्रीय दल भी हैरत की निगाहों से देख रहे थे, जो देश के अलग-अलग राज्यों में सरकार चला रहे थे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों ने धर्मनिरपेक्षता का सबसे ज्यादा राग अलापने वाले मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव को सत्ता से बाहर क्या कर दिया, धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाले और टोपी की राजनीति करने वाले अन्य दलों ने भी खतरे को पहचान लिया। इन तमाम राजनीतिक दलों को यह लग गया कि बीजेपी ने उन्हें अपने होम ग्राउंड के मैदान में उतार दिया है और अब उन्हें भी बहुसंख्यकवाद के नए दौर में नए तरह की ही राजनीति करनी होगी। 

 

फिर क्या हुआ, नेता वही रहे लेकिन तस्वीरें बदलने लगी। राहुल गांधी तो गुजरात विधानसभा चुनाव के समय ही मंदिर दर्शन शुरू कर चुके थे। उनकी बहन और पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान काशी विश्वनाथ, उज्जैन के महाकाल के अलावा कई अन्य मंदिरों में भगवा पहन कर हिन्दू वेशभूषा में पूजा अर्चना करती नजर आई। अखिलेश यादव सांसद पत्नी डिंपल यादव के साथ नवरात्रि में कन्या पूजन की तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालने लगे। प्रदेश के कई मंदिरों में जाकर अखिलेश हिंदुओं को संदेश देने की कोशिश करते नजर आए। बंगाल में दीदी भी दुर्गा पूजा के बहाने बहुसंख्यक समुदाय को लुभाने की कोशिश करने लगीं। 

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यह तो अकाट्य सत्य है कि चुनाव लड़ने वाले हर दल का एक ही लक्ष्य होता है जीत हासिल करना। चाहे उसे बहुसंख्यक वोट मिले या अल्पसंख्यक। ऐसे में बदलते वक्त के साथ नेता भी बदले और उनके दल भी। परिणाम यह रहा कि धर्मनिरपेक्षता का नारा 2019 के लोकसभा चुनावी परिदृश्य से गायब हो गया। धर्म विशेष की टोपी नजर नहीं आई। नजर आया तो मंदिर, माथे पर टिका, हाथ में पूजा की थाली और चेहरे पर भक्ति भाव। 

 

हालांकि यह मानना तो अभी दूर की कौड़ी होगी कि क्या 2019 की वजह से देश में तुष्टिकरण की राजनीति का अंत हो जाएगा? क्या अब राजनीतिक दल धर्म या जाति के आधार पर वोटरों को लुभाना बंद कर देंगे? लेकिन इतना तो साफ हो ही गया है कि 2019 ने देश की राजनीति में बड़ा तो बदलाव ला दिया है।

 

- संतोष पाठक

 

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