संसद में चर्चा करने के लिए हंगामा करते रहे मगर चर्चा नहीं की

By राकेश सैन | Apr 09, 2018

हर रोज के हंगामों और गतिरोधों के बीच संसद का बजट सत्र समाप्त हो गया। संसद के दोनों सदनों में देश ने जिस तरह माननीयों की उद्दंडता देखी उससे लगता है कि लोकमंच से लोकलाज का अंकुश हटता जा रहा है। साल 2018-19 में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 24 लाख करोड़ रुपये का अब तक का सबसे बड़ा व ऐतिहासिक बजट पेश किया। इस पर बहस भी होनी चाहिए थी। जनता के मन में जो सवाल उठते हैं उनके उत्तर उन्हें मिलने चाहिए थे। इसी काम के लिए देश की जनता अपने प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजती है, लेकिन जनता के नुमाइंदों ने इतने बड़े बजट पर एक दिन से भी कम बहस की। बाकी का समय शोर-शराबे में यूं ही बर्बाद कर दिया। 29 जनवरी से 9 फरवरी और 5 मार्च से 6 अप्रैल तक दो चरणों में चले बजट सत्र में कुल मिलाकर करीब 2 सौ करोड़ रुपये खर्च हुए। अब सत्तापक्ष और विपक्ष सड़कों पर उतर कर विभिन्न मुद्दों पर एकदूसरे को घेरने की बात कर रहे हैं परंतु जब यह काम तार्किक तरीके से सदन में किया जाना था तो न तो विपक्ष ने गंभीरता दिखाई और न ही सत्तापक्ष विरोध को नकेलने में सफल हो पाया। साल 2000 के बाद यह सबसे खराब संसद सत्र बताया जा रहा है। अबकी बार अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा तब देखी गई जब सांसद बार-बार सदन के वैल में आते दिखे और न केवल नारेबाजी के नाम पर हंगामा किया बल्कि गली-कूचे की राजनीति करते हुए तख्तियां लहराईं। कई बार तो इन तख्तियां से लोकसभा व राज्यसभा अध्यक्षों के चेहरे भी ढके जाते रहे।

देखने में आ रहा है कि चुनावी वर्ष होने के कारण राजनीतिक दलों का ध्यान जनता के मुद्दों की बजाय अपनी राजनीति चमकाने की तरफ ज्यादा रहा। सत्र के दूसरे हिस्से की शुरुआत से ही टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस के सांसद आंध्र प्रदेश के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग पर अड़े रहे। लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही शुरू होते ही वेल में आकर सांसदों का हंगामा रुटीन बन गया था। सरकार द्वारा यह स्पष्ट किए जाने के बावजूद भी कि जिन विशेष परिस्थितियों के चलते किसी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिया जाता है, वह आंध्र प्रदेश पर लागू नहीं होतीं और सरकार उस राज्य के विशेष पैकेज देने को तैयार है इसके बावजूद हंगामा बरपा रहा। असल में आंध्र प्रदेश में जल्द विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और टीडीपी व वाएसआर कांग्रेस का उद्देश्य परस्पर नीचा दिखा कर प्रदेश की राजनीति में अपनी सार्थकता साबित करना रहा न कि मुद्दे का हल निकालना। लगभग यही बात कावेरी प्रबंधन बोर्ड के गठन की मांग को लेकर लागू होती है, जब एआईएडीएमके के सांसदों ने दोनों सदनों में जोरदार हंगामा किया। पार्टी ने राज्यसभा में कई बार स्थगन प्रस्ताव का नोटिस देकर इस मुद्दे पर चर्चा की मांग की। लेकिन सदन में हंगामे की वजह से किसी भी मुद्दे पर चर्चा नहीं हो सकी। सर्वोच्च न्यायालय ने 16 फरवरी को राज्य में कावेरी प्रबंधन बोर्ड के गठन की बात कही थी। इसको लेकर तमिलनाडू की राजनीति में यह मुद्दा भड़क गया और खमियाजा भुगतना पड़ा संसद को।

 

सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस, टीएमसी समेत अन्य विपक्षी दल पीएनबी घोटाले पर वोटिंग वाले नियम 52 के तहत इस मुद्दे पर चर्चा चाहते थे, लेकिन सरकार इस पर तैयार नहीं थी। सरकार चर्चा के लिए राजी तो थी लेकिन नियम 193 के तहत, जिसमें सिर्फ बहस हो सकती है लेकिन वोटिंग नहीं की जा सकती। दोनों सदनों में इस मुद्दे पर हंगामा होता रहा लेकिन बहस किसी भी नियम के तहत नहीं हो सकी। हीरा कारोबारी नीरव मोदी और मेहुल चोकसी पर 12000 करोड़ रुपए के इस बैंक घोटाले का आरोप हैं। इसके अतिरिक्त सीबीएसई पेपर लीक मामले ने सदन को रोके रखा। अभी हाल ही में एससी/एसटी कानून में बदलाव के खिलाफ दलित संगठनों का देशव्यापी बंद बुलाया था। इस मुद्दे को लेकर संसद के दोनों सदनों में भी गतिरोध रहा। कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाया वहीं सरकार ने भी संसद में साफ किया कि वह कानून को कमजोर नहीं बल्कि मजबूती देने के लिए प्रतिबद्ध है।

 

इन गंभीर मुद्दों पर लगभग सभी राजनीतिक दलों ने देश के कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और अगले साल होने वाले आम चुनाव को लेकर पृष्ठभूमि तैयार करने का ही प्रयास किया। देखा जाए तो विपक्ष ने बैंक घोटाले, पेपर लीक मामले व एससी एसटी एक्ट को लेकर हंगामा करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया। विपक्ष चाहता तो इन मुद्दों पर तर्कों व तथ्यों के सहारे सरकार की बखियां उधेड़ सकता था और यह तर्क सरकारी रिकार्ड में भी दर्ज होते। विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने संसद का खूब लाभ उठाया और  तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ बने जनमत में संसद के दौरान हुई बहसों का सबसे अधिक योगदान रहा। तथ्य साक्षी हैं कि संसद के इन्हीं तर्कों को आधार बना कर ही आज देश के विभिन्न न्यायालयों में कांग्रेस व यूपीए सरकार के विभिन्न घटकों के नेताओं के खिलाफ अदालतों में केस विचाराधीन हैं। लेकिन कांग्रेस सदन का लाभ लेने से चूक गई। उक्त गंभीर राष्ट्रीय मुद्दों पर कांग्रेस सदन में केवल हंगामा करती रही और सरकार बाहर इनके आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई। दूसरी ओर टीवी चर्चाओं में भाजपा नेता उक्त मुद्दों पर कांग्रेस को ही घेरते रहे और आज हालात यह हैं कि बैंक घोटालों व बैंकों के एनपीए के मामलों में सरकार से अधिक कांग्रेस दोषी नजर आने लगी है। फिलहाल जिस तरह संसद को क्षेत्रीय व गली कूचे की राजनीतिक का अड्डा बनाया जा रहा है वह देश के लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। जनता को भी चाहिए कि वह अपने जनप्रतिनिधियों से इसका हिसाब जरूर लें कि उन्होंने विधानमंडलों में उनसे जुड़े कितने मुद्दे उठाए और कितनी समस्याओं का समाधान करवाया। ये लोकलाज ही है जो लोकमंच के साथ-साथ लोकतंत्र को पटरी पर बनाए रख सकती है।

 

-राकेश सैन

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