बिहार-झारखंड में लालू का सहारा चाहते हैं राहुल, इसीलिए हुई मुलाकात

By कमलेश पांडे | May 02, 2018

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की राजनैतिक मासूमियत को अब राजद प्रमुख लालू प्रसाद की सियासी चतुराई का सहारा मिलने वाला है। यही वजह है कि राजनीतिक हल्के में एक और भूचाल आने का अंदेशा बढ़ रहा है। कहना न होगा कि इस सियासी समझदारी के सामने आने के बाद सत्ता प्रतिष्ठानों में जिस तरह की बेचैनी दिखाई पड़ी है, उससे इस संक्षिप्त घटनाक्रम का राजनैतिक महत्व बहुत ज्यादा बढ़ गया है। 

बता दें कि बहुचर्चित चारा घोटाले में सजायाफ्ता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद (एम्स) में गत दिनों जो मानवीय अनौपचारिक मुलाकात हुई है, उसके गहरे सियासी मायने निकाले जा रहे हैं जो गलत भी नहीं हैं। क्योंकि इस अप्रत्याशित मुलाकात के बाद जिस तेजी से राजनैतिक और प्रशासनिक घटनाक्रम घटे हैं, उससे लालू प्रसाद से अधिक राहुल गांधी सियासी सुर्खियों में छा गए, क्योंकि उनकी मुलाकात को छवि और भावी गठबंधन की शक्ल के तौर पर देखा जाने लगा है। 

 

हैरत की बात तो यह है कि लालू-राहुल मुलाकात के कुछ ही घण्टों बाद जहां लालू यादव की एम्स से छुट्टी कर दी गई, वहीं इससे क्षुब्ध लालू समर्थकों ने एम्स में जमकर उत्पात मचाया, जिसकी प्राथमिकी तक अस्पताल प्रशासन ने दर्ज करवाई है। इस प्रकार यह मामला राजनैतिक तूल पकड़ चुका है, क्योंकि लालू प्रसाद ने इसे राजनीतिक साजिश करार दिया है।

 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि राजद और कांग्रेस का आपसी गठबंधन बहुत पुराना है। लेकिन यह भी कड़वा सच है कि लालू प्रसाद और राहुल गांधी के रिश्ते कभी सामान्य नहीं रहे। ऐसा इसलिए कि सीट बंटवारे में लालू यादव ने कांग्रेस को कभी कोई खास तवज्जो नहीं दी। जिसके चलते राहुल गांधी भी उनसे बिदके-बिदके से रहे। बचने का बहाना यह मिला कि लालू यादव के हाथ भ्रष्टाचार से सने हैं। 

 

यही वजह है कि धीरे-धीरे राहुल गांधी ने लालू प्रसाद के विकल्प के तौर पर जदयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को महत्व दिया। समय ने साथ दिया और बिहार में महागठबन्धन बना, जिससे राजनीतिक यश भी राहुल गांधी को मिला। लेकिन महागठबंधन के टूटने में भी राहुल की परोक्ष भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। 

 

इन बातों से राजद की महत्ता कम हुई और लालू प्रसाद को भी धक्का लगा। ऐसे में अब यदि निहित सियासी स्वार्थवश लालू-राहुल की करीबी बढ़ती है तो यह एक और हैरत की बात है। लिहाजा, सीधा सवाल है कि ऐसा क्यों? किसलिए? किसके लिए? ऐसा इसलिए कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने दो टूक आरोप लगाया है कि राहुल गांधी के दो चेहरे हैं और उनकी पार्टी के भी दोहरे मापदंड हैं। इसलिए स्वच्छ सरकार देना इनके बूते की बात नहीं। 

 

प्रथमदृष्टया शाह की बातों में दम है। राहुल गांधी को सोचना चाहिए कि वह पहले सही थे, या अब सही हैं। क्योंकि 2013 में संप्रग सरकार के शासनकाल में कांग्रेस के गठबंधन सहयोगी लालू प्रसाद यादव को बचाने वाले एक अध्यादेश को राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया था, जिसकी तब काफी सराहना हुई थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की साख को बट्टा लगा था। 

 

उसके बाद राहुल-नीतीश में नजदीकी बढ़ी और बिहार में कांग्रेस न केवल मजबूत हुई बल्कि सूबे की सत्ता में भागीदार भी बनी। लेकिन अब नीतीश, राहुल से दूर जा चुके हैं और परिस्थितिवश लालू प्रसाद नजदीक, जो गत दिनों दिखा भी। इससे राहुल की साख को बट्टा लग गया। इससे यह साफ हो गया कि अब राहुल गांधी भी भ्रष्टाचार के समर्थक हैं। 

 

अटकलें तो यह भी हैं कि 2019 का आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं लिहाजा कांग्रेस भयभीत है कि वह लालू प्रसाद यादव के समर्थन के बिना बिहार-झारखंड में एक भी सीट नहीं जीत सकती है। दूसरी बात यह है कि आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर जो फेडरल फ्रंट बनाने की कवायद तेज है, उससे भी कांग्रेस बेचैन है क्योंकि उसमें कई क्षेत्रीय दल भी शामिल हो रहे हैं। इससे कई राज्यों में इस फ्रंट की स्थिति मजबूत समझी जा रही है। 

 

कांग्रेस को आशंका है कि यदि यह फ्रंट मजबूत होता है तो उसकी राजनीतिक स्थिति और चरमरायेगी। ऐसा इसलिए कि तृणमूल कांग्रेस नेत्री और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अब तक राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने से इनकार करती आई हैं। उनके अलावा, कांग्रेस से अलग हुई राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार खेमे की ओर से भी राहुल गांधी के नेतृत्व को नापसंद किया जाता है। आशय स्पष्ट है कि वे दोनों नेता राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के इरादे में बाधक बनेंगे।

 

शायद इसलिए भी कांग्रेस मार्गदर्शिका सोनिया गांधी जो अब तक विपक्षी दलों को एकजुट करने में दिलचस्पी दिखाती रही हैं, ने स्पष्ट कर दिया है कि नेतृत्व राहुल के हाथ में है, इसलिए राहुल गांधी हर विपक्षी दल से संवाद कायम करना चाहेंगे। संकेत साफ है कि जो राहुल को तवज्जो नहीं देगा, उससे गठबंधन की गुंजाइश कम ही रहेगी या नहीं रहेगी। 

 

यही वजह है कि पिछले दिनों राहुल गांधी ने जब शरद पवार से अलग से मुलाकात की थी तो कोई खास प्रतिक्रिया सियासी हल्के में नहीं आई। लेकिन गत दिनों राहुल गांधी लालू प्रसाद से क्या मिले, मानो सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने लगे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि सामाजिक न्याय के इस कथित योद्धा को भाव देकर फेडरल फ्रंट को कमजोर करने का इरादा है तो सही है, अन्यथा कहीं लेने के देने भी पड़ सकते हैं।

 

-कमलेश पांडे

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