Raja Ram Mohan Roy Death Anniversary: आधुनिक युग के जनक थे राममोहन राय, समाजिक कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज

By अनन्या मिश्रा | Sep 27, 2023

18वीं सदी के मध्य में भारत की सामाजिक और धार्मिक स्थिति बहुत ज्यादा खराब थी। पूरा देश पुरानी और रुढ़िवादी कुरीतियों से लिपटा हुआ था। 18वीं शताब्दी में धार्मिक तौर पर भी लोगों में अज्ञानता और गलत परंपराओं में लिपटे थे। इस दौरान राजा राम मोहन राय एक तरह से मसीहा की तरह बनकर उभरे। राजा राम मोहन राय ने समाज सुधार के लिए कई असंभव लगने वाले कार्य किए। इस दौरान उन्हें कई विरोधों का सामना भी करना पड़ा था। बता दें कि आज ही के दिन यानी की 27 सितंबर को राजा राम मोहन राय की मौत हो गई थी। आइए जानते हैं उनकी डेथ एनिवर्सरी के मौके पर उनके द्वारा किए गए सराहनीय कार्यों के बारे में...


जन्म और शिक्षा

आपको बता दें कि बंगाल प्रांत के हुगली जिले के राधानगर में 22 मई 1772 को राममोहन राय का जन्म हुआ था। उनके दादा कृष्णकांत बंदोपाध्याय कुलीन रारही ब्राह्मण थे। राम मोहन राय के पिता का नाम रमाकांत और मां का नाम तारिणी देवी थी। उनके परिवार में भी दहेज जैसी कुप्रथा फैली थी। बचपन में उन्होंने अपनी बहन के सती होने का दुख झेला था। हालांकि इन सब के बीच राम मोहन राय की शिक्षा काफी अच्छी हुई, उन्हें संस्कृत, पारसी और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान था। इसके अलावा वह अरबी, लैटिन और ग्रीक भाषा भी अच्छे से जानते थे।

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वेद उपनिषदों के ज्ञाता

राममोहन राय को वेदों और उपनिषद का भी अच्छा ज्ञान था। उन्होंने शिक्षा में उपनिषद के सिद्धांतों को शामिल करने का विशेष प्रयास किया था। वहीं धार्मिक कुरीतियों का भी पूरे धार्मिक तर्कों के साथ विरोध किया। जिसका समाज पर अच्छा असर देखने को मिला। राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की, जो समाज और धार्मिक सुधार के लिए आधुनिक भारत में एक प्रमुख जरिया बना।


सती प्रथा का विरोध

सती प्रथा के उन्मूलन के लिए राममोहन राय ने विशेष प्रयास किए थे। उन्होंने बचपन में अपने सामने अपनी 17 साल की बहन को सती होते हुए देखा और उसकी पीड़ा को समझा था। उस दौर में पति के निधन होने और स्त्री कि विधवा होने पर उसे पति की चिता के साथ ही सती होना पड़ता था। यानी की विधवा स्त्री को पति की चिता के साथ ही जिंदा जला दिया जाता था। राममोहन राय के तमाम विरोध के बाद भी उनकी बहन को जबरन जिंदा जला दिया गया था।


शिक्षा के लिए प्रयास

वह आधुनिक शिक्षा की पैरवी चाहते थे, ताकि भारत की अच्छी परंपराओं का पश्चिम संस्कृति में विलय हो। राममोहन राय ने देश में कई ऐसे स्कूलों की स्थापना की, जिसमें आधुनिक शिक्षा तंत्र को लोकप्रियता हासिल हुईं। उनके लेखन का असर ना सिर्फ भारत के लोगों बल्कि ब्रिटेन और अमेरिका के लोगों पर भी पड़ा। 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के शुरुआत में राजा राम मोहन राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी में भी काम किया था। लेकिन उन्होंने किसी भी कंपनी के अधिकारी के पास ज्यादा समय तक काम नहीं किया। इसी दौरान राम मोहन राय ने अरबी में तूहफत उल मुवाहुद्दीन नामक किताब लिखी थी। हालांकि बाद में वह नौकरी छोड़ राष्ट्रसेवा करने लगे।


आत्मीय सभा

साल 1814 में राजा राम मोहन राय  ने आत्मीय सभा की स्थापना की। कलकत्ता में इस सभा की स्थापना का मुख्य उद्देश्य उनसे समान विचारधारा के लोग बुद्धिजीवी स्तर की चर्चाएं किया कर सकें। इस सभा में जातिवाद आदि कई सामाजिक और धार्मिक समस्याओं और चुनौतियों पर चर्चा होती थी। वह पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आकलन किया कि ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए भारत का कितना पैसा बाहर जा रहा है।


राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ अपने आंदोलन को तेज कर दिया। साथ ही समाज की कुरीतियों के खिलाफ गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक की मदद ली। इनके सहयोग से राममोहन राय ने साल 1929 में सती प्रथा कि खिलाफ कानून बनवाया। वहीं दिल्ली के तत्कालीन मुगल बादशाह अकबर द्वितीय ने राममोहन राय को 'राजा' की उपाधि दी थी। 


मौत

भारत के विचारों में सुधार लाने वाले और समाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वाले राजा राममोहन राय को समाजिक सुधार युग का पितामह भी कहा जाता है। राजा राम मोहन राय का निधन 27 सितंबर 1833 को इंग्लैंड में हुआ था।

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