काव्य रूप में पढ़ें श्रीरामचरितमानस: भाग-25

By विजय कुमार | Oct 20, 2021

दशरथजी को याद कर, हुए जनक बेचैन

मौन शब्द-वाणी हुई, आंसू भीगे नैन।

आंसू भीगे नैन, कौन किसको समझाए

निराहार-निर्जल रहकर दिन-रैन बिताए।

कह ‘प्रशांत’ फिर राघवेन्द्र ने आग्रह कीन्हा

स्नान-ध्यान कर सबने फलाहार फिर लीन्हा।।111।।

-

मिलन-भेंट आनंद में, बीत गये दिन चार

सबके सम्मुख था खड़ा, लेकिन यही विचार।

लेकिन यही विचार, राम क्या घर लौटेंगे

अवधपुरी के सोते हुए भाग्य जागेंगे।

कह ‘प्रशांत’ दोनों पक्षों के सब नर-नारी

सुबह-शाम बस एक यही चर्चा थी जारी।।112।।

-

जनकराज थे कर रहे, मन में यही विचार

दोनों कुल का कर दिया, बेटी ने उद्धार।

बेटी ने उद्धार, तापसी वेश बनाया

पतिव्रत का आदर्श विश्व भर को दिखलाया।

कह ‘प्रशांत’ थी मात सुनयना भी आनंदित

युगों-युगों तक सीता होगी पूजित-वंदित।।113।।

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प्रातः पहुंचे रामजी, गुरु वशिष्ठ के पास

हुए सभी को बहुत दिन, कष्टपूर्ण वनवास।

कष्टपूर्ण वनवास, आप सबको समझाएं

जिससे वे सब अपने-अपने घर को जाएं।

कह ‘प्रशांत’ फिर भरतलाल को गले लगाया

पूज्य पिता का प्रण पालो, उसको समझाया।।113।।

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भरतलाल मस्तक झुका, बोले हे रघुवीर

कोई वस्तु दीजिए, मन हो सके सधीर।

मन हो सके सधीर, शीश पर उसको धारूं

उसका ले अवलम्ब कठिन ये समय गुजारूं।

कह ‘प्रशांत’ फिर रघुनंदन की आज्ञा लेकर

देखे चित्रकूट के तीरथ वन पर्वत-सर।।114।।

-

राघव के अभिषेक की, मन में लिये उमंग

पावन नदियों-तीर्थ का, जल लाये थे संग।

जल लाये थे संग, अत्रि की आज्ञा पाकर

सिद्ध कूप था एक, दिया उसमें स्थापित कर

कह ‘प्रशांत’ यह ‘भरतकूप’ अब कहलाएगा

जो आएगा यहां, पुण्य भारी पाएगा।।115।।

-

सब तीरथ दर्शन किये, पांच दिनों में ठीक

धीरे-धीरे आ गयी, विदा घड़ी नजदीक।

विदा घड़ी नजदीक, भरत बोले रघुराई

कछुक निशानी दीजे, जो हो सदा सहाई।

कह ‘प्रशांत’ प्रभु ने कर कृपा पांवरी दीन्ही

सादर उनको भरत शीश अपने धर लीन्ही।।116।।

-

भरतलाल घर को चले, पा रघुवर आशीष

दो पादुका विराजती, थी अब उनके शीश।

थी अब उनके शीश, राह में देखा जिसने

राम-भरत का प्रेम बसाया दिल में उसने।

कह ‘प्रशांत’ दो अक्षर की महिमा है न्यारी

भक्तजनों की रक्षा हित ज्यों पहरेदारी।।117।।

-

धीरे-धीरे हो गये, विदा सभी मेहमान

लक्ष्मण सीता-राम से, पा करके सम्मान।

पा करके सम्मान, हुआ संतोष सभी को

मुश्किल निर्णय था पर भाया सबके मन को।

कह ‘प्रशांत’ श्री जनकराज भी अवध पधारे

सभी व्यवस्था देखी, सारे काम संवारे।।118।।

-

इसके बाद जनक गये, अपने मिथिला धाम

भरतलाल करने लगे, राजकाज के काम।

राजकाज के काम, घड़ी जब अच्छी आयी

चरण पादुका सिंहासन आसीन करायी।

कह ‘प्रशांत’ अपने हित कुटिया एक बनाकर

रहने लगे भरतजी नंदिग्राम में जाकर।।119।।

-

राजकाज थे कर रहे, मगर नहीं आसक्त

भरतलाल थे राम के, चिर अनुयायी भक्त।

चिर अनुयायी भक्त, बनाया जीवन ऐसा

खानपान विश्राम सभी कुछ मुनियों जैसा।

कह ‘प्रशांत’ दिल में श्री सीताराम बसाकर

शासन करते नित्य पादुका की पूजा कर।।120।।


- विजय कुमार

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