बह गइले बाढ़वा में (बाढ़ पर व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Aug 24, 2020

भजनखबरी न्यूज चैनल का माइक कांख में ऐसे दबाए है, जैसे सुग्रीव ने रावण को दबाया हो। सिर पर किसी का माँगा हुआ पॉलिथिन कवर लगाए बाढ़ में माँग-माँगकर खाने वालों की डाक्युमेंटरी फिल्म बनाने निकला है। साथ में है कैमरामैन टाइमपास टकला। वह बाढ़ में एकदम भीग चुका है। बाढ़ के पानी से नहीं, पसीने के पानी से। बाढ़ में कहीं कैमरा न खराब हो जाए इसी चिंता में उसके बदन से धाराप्रवाह के साथ पसीना छूट रहा है। दोनों ने पैंट तो ऐसे फोल्ड कर रखा है, जैसे बाढ़ की त्रासदी इन दोनों पर ही टूटी हो। किसी के घर की छत पर बैठकर भजनखबरी ने बाढ़ में धड़ तक डूबे रामसहाय से पूछा– आपको कैसा लग रहा है? रामसहाय ने बनावटी हँसी हँसते हुए और दाँत निपोरते हुए कहा– साहब! यहाँ बड़ा मजा आ रहा है। जब भगवान ने गरीबों के लिए इतना बड़ा स्विमिंगपुल बनाया है तब मजा लेने का कोई अवसर कैसे गंवा सकते हैं? एकदम स्वर्ग-सा एहसास हो रहा है। इस पर भजनखबरी ने रामसहाय को आँखें दिखाते हुए कहा-  यहाँ लोग बाढ़ से परेशान हैं और तुम्हें मजाक सूझ रहा है। दिमाग-विमाग ठिकाने तो है? रामसहाय ने मुँह पर तमाचा जड़ने वाला उत्तर देते हुए कहा- लगता है साहब आपका आपका दिमाग-विमाग खराब हो गया है। अब तुम्हीं बताओ भला किसी को बाढ़ में धड़ तक डूबे रहने में मजा आएगा? सवाल पूछने का भी अपना एक तरीका होता है। ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ का माहौल देखिए। महसूस कीजिए। फिर सवाल पूछिए। ऐसे थोड़े न होता है कि माइक उठाया और जो मुँह को आया सवाल पूछने लगे। रामसहाय का उत्तर सुन भजनखबरी इतना सा मुँह लेकर रह गया। उसने टाइमपास टकले को डाँटते हुए वीडियो क्लिप डिलीट करने के लिए कहा।

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डॉक्युमेंटरी फिल्म की प्रभावोत्पादकता को बढ़ाने के लक्ष्य से दोनों गिद्ध की तरह लाशों की खोज में लगे हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में हृदयविदारक दृश्य देखने के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं। तभी उनकी नजर बच्चों की हथेलियों से भात खाने के लिए टूट पड़े चूहों पर पड़ी। वे ऐसे ही किसी दृश्य का बाहें खोले इंतजार कर रहे थे। मानो भगवान ने उनकी मुराद पूरी कर दी। टकले ने कैमरे को कुछ इस तरह पकड़ा जिसमें बच्चे की हथेली पर चूहे और भिनभिनाती मक्खियाँ कवर हो रहे थे। बच्चे की माता टकले और भजनखबरी को सहायता करने के लिए हाथ-पैर जोड़ रही है और कह रही है- बह गइले बाढ़वा में अन, धन, घरवा। ये दोनों महाशय हैं कि बहती गंगा में हाथ धोने का कोई अवसर गंवाना नहीं चाहते हैं। यहाँ इनकी गंगा बाढ़ के रूप में वरदान के रूप में प्रकट हुई है। किसी की खटिया बह गई तो किसी का खान-पान का पूरा सामान, किसी के जरूरी कागजात सड़-गल गए, तो किसी के बचे-खुचे रुपए भीग-भागकर ऐसे बन गए जिसमें गांधी जी को इतिहासकार भी पहचानने से इंकार कर देते। पाँच साल के कार्यकाल में बाढ़ आना सरकारी महकमों के लिए अनिवार्य होता है। न आए तो कमाने के सारे अवसर गंवा देते हैं। रो-रोकर छाती पीटते हैं। यह तो प्रसन्नता लाती हैं। बाढ़ से निबटने के लिए सरकार अरबों खरबों रुपया लुटाती है। इसी अवसर को धड़ल्ले से भुनाने के लिए सरकारी अफसर अपनी और थोड़ी-बहुत बाढ़ की स्थिति को सुधारने के लिए उसका बेहतर उपयोग करते पाए जाते हैं। आप उन्हें देखकर सहज ही अंदाज़ लगा सकते हैं कि वे अपने काम में कितने मशगूल और मगन हैं। खुशी उनकी छिपाए नहीं छिपती। साल भर बाद बड़ी मुश्किल से उन्हें मौक़ा मिला है कि अपनी ऊपरी कमाई में थोड़ी बढ़ोतरी ला सकें। ऐसे ही अवसरों का इंतजार करते हुए भजनखबरी और टकला भी देखे जा सकते हैं।

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दोनों ने मिलकर ऐसे-ऐसे दृश्य कैद कर डाले कि उसका कॉपीराइट बना लें तो जिंदगीभर बैठकर खा सकते हैं। कौन कहता है कि बाढ़ केवल तबाही लाता है, भजनखबरी और टकले जैसे लोगों के लिए ऐसी आमदनी का जरिया है जो इसे भुनाकर अपना मतलब साध सकते हैं। न्यूज चैनल वाले ऐसे दृश्यों को न दिखाने का भरोसा देकर सरकार से अच्छी-खासी रकम ऐंठते हैं। यही दृश्य फिर विपक्षी मीडिया को बेचकर दूसरी ओर से कमाते हैं। जिधर देखो उधर बाढ़ के नाम पर मोटी कमाई की जा रही है। सपने, उम्मीदें गलियों में नदी बनकर बह रहे बाढ़ में कहाँ खो गए पता ही नहीं चलता। बाढ़ दो शब्दों का खेल नहीं असंख्य जिंदगियों का रुदन है। एक ऐसी पीड़ा जिसमें सिर्फ चिंताओं की क्रीड़ा है। कहीं डूबे गाँवों की पीड़ा है, कहीं डूबे फसलों, खेतों, पुलों, सडकों, वाहनों को कुरेद-कुरेदकर छेड़ा है। इसने न केवल इंसानों को बल्कि खुदा के दरवाजों तक को डुबो डाला है। इतना होने के बाद भी जमाना इतना बदरंग है कि कइयों की मौत कुछ गिद्धों के लिए खबर बनती है। यह खबर गिद्धों के लिए सड़ी गली लाश ही सही नोंच-नोंचकर खाने, उस पर घड़ियाली आँसू बहाने वाले लेख लिखने, आलीशान कोठी बनाने का रास्ता खोल देते हैं। बाढ़ के दिनों में दिखायी देने वाले भजनखबरी और टकला हमारी त्रासदी के नरन राक्षस हैं। दुर्भाग्य से इन गिद्धों की प्रार्थना की अर्जी पत्थर दिल भगवान जल्दी मान लेते हैं और तबाही के मंजर वाले निम्नवर्गीय लोगों के रास्ते खोल देते हैं। इन रास्तों पर सदियों का मातम पसरा है। जहाँ असंख्य हृदय रोने पर मजबूर तो कइयों का झूठा जमीर हँसता हुआ दिखायी देता है।


-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'

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