नाम बदल: यहां से वहां तक (व्यंग्य)

By विजय कुमार | Nov 28, 2018

नाम बदलने का रिवाज नया नहीं है। हर हमलावर ने अपने जीते हुए क्षेत्र में नगर और गांवों के नाम रखे हैं। किसी ने अपने या अपनी बीवी के नाम पर, तो किसी ने अपने पुरखों और पीर-पैगम्बरों के नाम पर। नया नगर बसाने में तो सालों लगते हैं; पर पुरानों के नाम बदलने में कुछ खर्च नहीं होता। दुनिया के हर देश में ये हुआ है। 

 

आजाद होते ही सभी स्वाभिमानी देशों ने गुलामी और हमलावरों के वे निशान हटा दिये; पर भारत में ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि यहां 1947 में जो सरकार आयी, उसके मुखिया 25 प्रतिशत ही हिन्दू थे। बाकी वे क्या थे, इस बारे में उन्होंने कई बार खुद ही बताया है। इसलिए उसकी चर्चा ठीक नहीं है।

 

पर अब माहौल बदला है। इससे जनता खुश है; पर सेक्यूलर दुखी हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा कि वे क्या करें ? वर्तमान नाम का समर्थन करें, तो वे हमलावरों के समर्थक माने जाएंगे; और ऐतिहासिक नाम के पक्ष में बोलने पर वे हिन्दुत्ववादी सिद्ध हो जाएंगे। दोनों तरफ ही मरण है।

 

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हमारे शर्मा जी उसी बिरादरी के हैं। पिछले दिनों सेक्युलरों ने नाम बदल के विरुद्ध जुलूस निकाला, तो शर्मा जी सफेद झंडा लेकर उसमें शामिल हो गये। लौटकर घर पहुंचे, तो मैडम वहां नहीं थी। पता लगा कि वे नाम बदल के समर्थकों की मीटिंग में गयी हैं। असल में नाम बदल के समर्थकों का भी दो दिन बाद जुलूस था। यह सुनकर शर्मा जी का माथा गरम हो गया। लेकिन दीवार पर सिर मारने की बजाय वे मेरे पास आ गये। 

 

कहते हैं कि जहर को मारने के लिए जहर ही काम आता है। अतः उनकी गरमी शांत करने के लिए मैंने गरम चाय बनवायी। उसे पीकर वे कुछ ठंडे हुए।

 

- शर्मा जी, आपका जुलूस कैसा रहा ?

 

- बहुत शानदार था। सौ से अधिक संस्थाओं ने उसे समर्थन दिया था।

 

- शर्मा जी, ऐसी कागजी संस्थाएं तो हर शहर में हजारों होती हैं। हमारे पड़ोसी गुप्ता जी तीन संस्थाओं के अध्यक्ष, चार के मंत्री, पांच के सहमंत्री, छह के कोषाध्यक्ष और 50 से अधिक के सदस्य हैं। ऐसी ही सौ संस्थाओं ने समर्थन दिया होगा।

 

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- पर समर्थन तो था ही। हर आदमी आठ-दस संस्थाओं के समर्थन के साथ आया था।

 

- यानि दस-बारह लोग थे उस विराट जुलूस में ?

 

- हां, बस यही समझ लो।

 

- लेकिन जुलूस में अधिकांश लोगों के झंडे और बैनर लाल और हरे रंग के थे; पर आपका झंडा सफेद था। 

 

- चूंकि मैं शांति का समर्थक हूं। मैं नहीं चाहता कि नाम बदल के नाम पर देश में अशांति फैले।

 

- लेकिन अशांति के समाचार तो कहीं नहीं हैं।

 

- ऊपर तो नहीं हैं; पर मैं अंदर की बात भी जानता हूं। किसी मजबूरी की वजह से लोग चुप हैं; पर अंदर अशांति

बहुत है। 

 

- पर जब मद्रास, बंबई, कलकत्ता, पांडिचेरी आदि के नाम बदले गये, तब तो आपने जुलूस नहीं निकाला। फिर अब क्या हो गया ?

 

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- ये भी अंदर की बात है।

 

- पर शर्मा जी, इस नाम बदल का असर तो भारत से बाहर भी हो रहा है। शायद आपने सुना होगा कि दुनिया भर के गणितज्ञों ने तय किया है कि अब किलो को किब्बल कहेंगे। साथ ही उसकी परिभाषा और उसकी गणना का तरीका भी बदलेगा।

 

- अच्छा, मैंने तो नहीं सुना।

 

- इन बेकार के कामों से फुरसत हो, तब तो आप सुनें।

 

इससे शर्मा जी फिर गरम हो गये। तभी उनके फोन की घंटी बजी। उधर शर्मा मैडम थीं, जो घर पहुंच चुकी थीं। शर्मा जी ने सफेद झंडा मेरे पास ही छोड़ दिया और बोले, ‘‘इसे यहीं रख लो। अगर मैडम ने इसे देख लिया, तो हो सकता है अशांति मेरे घर के अंदर से ही शुरू हो जाए।’’

 

-विजय कुमार

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