NRC पर राजनीति करने वाले दल हंगामे को दूसरे राज्यों में भी फैला रहे हैं

By दिनकर कुमार | Sep 04, 2018

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के दूसरे और अंतिम मसौदे को एक महीना पहले प्रकाशित किया गया। उस समय से लेकर अब तक एनआरसी प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए निहित स्वार्थी तत्व लगातार गंदी राजनीति का सहारा ले रहे हैं। राजनीतिक पार्टियां अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए गैर जिम्मेदार तरीके से बयानबाजी करती रही हैं। एनआरसी का विरोध केवल असम तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि दिल्ली और कोलकाता में भी इस मसले पर हंगामा होता रहा है।

 

असम के कुछ पड़ोसी राज्यों में तो कुछ संगठनों ने रातों-रात तलाशी चौकियां स्थापित कर दीं और एनआरसी मसौदे में जिनके नाम शामिल नहीं हैं, वैसे नागरिकों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। उन संगठनों को आशंका है कि इस तरह के नागरिक असम से निकलकर पड़ोसी राज्यों में पनाह ले सकते हैं। 

 

दूसरी तरफ भारत के दूसरे राज्यों की तुलना में घुसपैठियों की समस्या को अधिक अच्छी तरह समझने वाले असम के लोगों ने दुनिया को दिखा दिया कि वे शांति पर भरोसा करते हैं और उनका मानना है कि भारतीय और विदेशी नागरिकों की शिनाख्त का काम शांतिपूर्ण तरीके से ही किया जाना चाहिए।

 

एनआरसी के नाम पर जो राजनीति हो रही है, उसकी वजह का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। 2019 के लोकसभा चुनाव और कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक पार्टियां एनआरसी के मसले को अपने फायदे के लिए भुनाना चाहती हैं। एनआरसी के मसौदे से 40 लाख लोगों के नाम बाहर रह गए हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियां इस आंकड़े का इस्तेमाल वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए करना चाहती हैं। कुछ पार्टियां तो यहां तक दावा कर रही हैं कि 40 लाख लोग अब भारत के नागरिक नहीं रह गए हैं।

 

एनआरसी पर शोर मचाने वाले और अनर्गल प्रलाप करने वाले राजनेताओं को असल में असम के राजनीतिक घटनाक्रम की सटीक जानकारी नहीं है। घुसपैठ की गंभीर समस्या को समझने वाले असम के लोगों ने एनआरसी अद्यतन प्रक्रिया के दौरान भरपूर सहयोग किया। असम के लोगों ने ही एक समय सड़कों पर उतर कर बंगलादेशी घुसपैठियों के खिलाफ छह सालों तक असम आंदोलन चलाया था और आंदोलन के दौरान पुलिस की कार्रवाई में कई युवाओं को जान भी गंवानी पड़ी थी। आंदोलनकारियों की मांग थी कि बंगलादेश से अवैध तरीके से आए नागरिकों की शिनाख्त की जाये, मतदाता सूची से उनके नामों को हटाया जाये और फिर उन्हें राज्य से निकाला जाये। इस आंदोलन का समापन 1985 में ऐतिहासिक असम समझौते के साथ हुआ, जिसमें 24 मार्च 1971 की आधी रात के समय से पहले आए नागरिकों को भारतीय नागरिकता देने पर सहमति हुई और उसके बाद आए लोगों की शिनाख्त एवं बहिष्करण का प्रावधान बनाया गया। इसके बाद केंद्र सरकार, राज्य सरकार और छात्र संगठन के बीच हुई त्रिपक्षीय वार्ता में 1951 के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अद्यतन करने का निर्णय लिया गया। 2010 में तत्कालीन राज्य सरकार ने एनआरसी अद्यतन का पायलट प्रोजेक्ट दो स्थानों पर शुरू किया, जिसमें बरपेटा भी एक था। चौबीस घंटे के अंदर ही इस प्रोजेक्ट के विरोध में बरपेटा में हिंसा शुरू हो गई और राज्य सरकार ने इसे स्थगित कर इस मसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। फिर इस मामले को लेकर उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया। अदालत ने जब निर्देश दिया तब जाकर 2015 के मध्य से एनआरसी अद्यतन करने का काम शुरू किया गया। यह काम अदालत की निगरानी में चलता रहा और 30 जुलाई 2018 को इसके अंतिम मसौदे का प्रकाशन किया गया।

 

एनआरसी मसौदे के प्रकाशन के बाद शोर मचाने वाले देश के विभिन्न राजनेताओं और राष्ट्रीय चैनलों के दिग्गज पत्रकारों को न तो असम के इतिहास की जानकारी है, न ही असम आंदोलन और असम समझौते की पृष्ठभूमि के बारे में वे कुछ जानते हैं। सतही तौर पर इस गंभीर मसले का आकलन करने के चलते इसको लेकर भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।

 

उदाहरण के तौर पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के आक्रामक बयानों का उल्लेख किया जा सकता है। उन्होंने मसौदे के प्रकाशन का विरोध करते हुए कहा कि इसके प्रकाशन के बाद देश में गृह युद्ध शुरू हो सकता है। असल में ममता को भी असम की जमीनी हकीकत की सही जानकारी नहीं है और राजनीतिक मुनाफे को ध्यान में रखकर की गई उनकी बयानबाजी पर असम में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। अन्य राजनेताओं की तरफ से भी इस मसले पर उल्टे-सीधे बयान सामने आए हैं। इस तरह की आलोचनाओं की अनुगूंज विदेश तक पहुंच गई है और अमेरिका की एक संस्था ने एनआरसी पर सवाल खड़े किए हैं।

 

एनआरसी मसौदे की आलोचना करने वाले असम के लोगों की राय को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। असम के लोग अच्छी तरह जानते हैं कि किसका भरोसा करना चाहिए और किसका भरोसा नहीं करना चाहिए। एनआरसी के निंदकों को इस बात पर हैरानी हो सकती है कि उकसाने की इतनी सारी कोशिशों के बावजूद असम में शांति कायम है। इसकी वजह यही है कि एनआरसी का काम अब तक उच्चतम न्यायालय की देखरेख में किया गया है और इस काम में राज्य के लोगों की पूर्ण सहभागिता रही है। असम में सांप्रदायिक सद्भाव की परंपरा रही है। देश के दूसरे राज्यों की तरह कट्टरपंथी शक्तियां इस राज्य में लोगों का धर्म के आधार पर आज तक ध्रुवीकरण नहीं कर पाई है। इसके अलावा राज्य के लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि एनआरसी की प्रक्रिया अभी बीच में ही है। दावा और आपत्ति की प्रक्रिया अभी शुरू भी नहीं हुई है। अंतिम सूची तैयार होने में अभी भी काफी वक़्त लग सकता है।

 

मसौदे से भारी तादाद में भारतीय नागरिकों के नाम छूट गए हैं। बताया जा रहा है कि आवेदन की गलतियों और अपर्याप्त दस्तावेजों के चलते ऐसा हुआ है। ऐसे समय में दलों-संगठनों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे मसौदे से छूटे हुए लोगों के नाम दर्ज करवाने के लिए सहयोग करें। माना जा रहा है कि जब दावे की प्रक्रिया पूरी होगी और अंतिम एनआरसी प्रकाशित होगा तब तक सूची से बाहर 40 लाख लोगों में से ज़्यादातर लोगों के नाम दर्ज हो चुके होंगे। इसके साथ ही घुसपैठियों की शिनाख्त करने का लक्ष्य भी पूरा हो जाएगा। 

 

-दिनकर कुमार

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