Gyan Ganga: माता सीता को रावण से बचाने के लिए मंदोदरी ने कुछ इस तरह किये थे प्रयास

By सुखी भारती | Feb 03, 2022

रावण को उसके वास्तविक चरित्र से परिचित कराने वाला अगर कोई उसे मिला था, तो वे श्रीजानकी जी ही थी। नहीं तो रावण की पूरी सभा में, उसे केवल झूठी प्रशंसा वालों ने ही घेर रखा था। रावण को जब माता सीता ने यह कहा, कि तूं तो महज एक क्षुद्र से जुगनूं से अधिक कुछ नहीं, तो रावण की तो मानों भीतर से चूलें ही हिल गई थी। श्रीसीता जी के यह शब्द, उसके दिलो दिमाग में, किसी लोहे के भारी घन की भाँति लगे। अब उससे रहा न गया। अपने क्रोध की परिधि को पार कर वह बहुत आगे निकल आया। और अपने हाथ में पकड़ी चंद्रहास तलवार से मईया पे वार करने हेतु तत्पर हो उठा। सज्जनों आपके मन में एक प्रश्न नहीं उठ रहा, कि माता सीता जी के साथ रावण द्वारा इतनी बर्बता पूर्वक व्यवहार हो रहा है, और महाबली श्रीहनुमान जी कैसे यह सहन करे जा रहे हैं? कारण कि ऐसा एक भी कारण नहीं था, कि श्रीहनुमान जी रावण का उसी क्षण वध कर, माता सीता की रक्षा न कर पाते। लेकिन क्योंकि इस लीला के निर्देशक तो स्वयं श्रीराम जी हैं। और उनका उद्देश्य मात्र यह थोड़ी न है, कि बस माता सीता जी तक अपना संदेश मात्र पहुँचाना है। वे तो अपनी दिव्य लीला के सहपात्रें के माध्यम से, समस्त जनमानस के समक्ष, भक्ति व सेवा के महान सूत्रें और आदर्शों को प्रस्तुत करना चाहते हैं। यह तो हम भी समझ सकते हैं, कि श्रीहनुमान जी को वृक्ष की आड़ में छुप कर, समस्त घटना का साक्षी बनना, कितना कष्टपूर्ण लग रहा होगा। निसंदेहः श्रीहनुमान जी के हृदय में भयंकर ऊथल पुथल मची हुई थी। वे प्रत्येक क्षण बस यही सोच रहे थे, कि मैं अभी छलाँग लगा कर, मईया का रक्षण कर लेता हूँ। लेकिन वे निरंतर इसी अंतरद्वन्द में रुके रहे, कि कहीं ऐसा करने में कहानी अधिक तो नहीं बिगड़ जायेगी। क्योंकि ऐसे में मैं, मईया को तो संदेश दे ही नहीं पाऊँगा। लेकिन साथ में यह भी आशँका है, कि अगर माँ जानकी जी के रक्षण हेतु मैं नीचे नहीं गया, तो यह दुष्ट रावण, मईया को मार ही डालेगा। उसके पश्चात तो प्रभु के संदेश पहुँचाने का औचित्य भी व्यर्थ हो जायेगा। श्रीहनुमान जी सोच रहे हैं, कि यहाँ तो साकार रुप में स्वयं प्रभु भी उपस्थित नहीं हैं, जो वे श्रीजानकी जी का रक्षण कर सकें। मेरे सिवा भला यहाँ मईया का कौन रक्षक है? अगर गलती से मईया को कुछ भी हो गया, तो मैं श्रीराम जी को आखि़र क्या मुख दिखाऊँगा। निश्चित ही वह क्षण मेरी जिंदगी का अंतिम क्षण होगा। कुछ भी हो, मुझे अभी रावण का वध करके, माता सीता को सुरक्षित प्रभु के पास लिजाने का प्रबंध करना चाहिए। श्रीहनुमान जी अपने संकल्प को जैसे ही साधने चलते हैं, तभी एक महाआश्चर्य में डालने वाली घटना होती है। रावण की चंद्रहास तलवार का वार रोकने के लिए, न तो माँ जानकी ही कोई प्रयास करती हैं, और न ही श्रीहनुमान जी भी वृक्ष से नीचे उतर पाते हैं। जी हाँ! एक ऐसी पात्र, जिनके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था, कि यह भी माता सीता जी के रक्षण के लिए आगे आ सकती हैं। जी हाँ! स्वयं रावण की पत्नि, मय दानव की पुत्री मंदोदरी आकर रावण का हाथ पकड़ लेती है-

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‘सुनत बचन पुनि मारन धावा।

मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।’


मंदोदरी रावण को समझाती है, कि आपका एक नारी का वध करना कहीं से भी उचित नहीं है। यह आपके महान पराक्रम के पूर्णतः विपरीत होगा। इससे संसार में आपकी शोभा को कलंक ही लगेगा। आप वेदों के ज्ञाता हैं। हठी, जपी व तपस्वी हैं। निश्चित ही आपको ऐसे कृत्य से मुख मोड़ लेना चाहिए। मूर्ख रावण को अपनी प्रशंसा सुन कर लगा, कि अरे! मंदोदरी तो सही कह रही है। मैं वीर व तपस्वी को, एक अबला नारी का वध करना तो वाकई में शोभा नहीं देता। लेकिन हे राक्षियो! सभी कान खोल कर सुन लें। इस सीता को अच्छी प्रकार से समझा दो। मुझे समर्पित हुए बिना इसके पास अब कोई विकल्प नहीं है। इसे कह दो कि यह भूल जाये, उन निर्बल सन्यासियों को। यहाँ कोई इसकी रक्षा हेतु नहीं आने वाला। रावण ने मानों श्रीसीता को भय दिखाने का हर संभव प्रयास किया। और सब राक्षियों को कहा कि सीता को भिन्न भिन्न प्रकार से भय दिखलाओ-


‘कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।

सीतहि बहु बिधि त्रसहु जाई।।’


श्रीहनुमान जी यह देख कर श्रीराम जी के प्रति अथाह श्रद्धा व भाव से भर गए। मन ही मन स्वयं को कहने लगे, कि हे प्रभु! आप धन्य हैं। अच्छा हुआ जो आपने मेरा भ्रम तोड़ दिया। मैं तो सोच रहा था, कि आप तो सगुन रुप में यहाँ हैं नहीं। और मैं यहाँ वृक्ष पर छुपा बैठा हूँ। ऐसे में मईया की रक्षा भला कौन करेगा? लेकिन आप ने दिखा दिया, कि अपने शरणागत की रक्षा करने के लिए, आप किसी को भी खड़ा कर सकते हैं। मंदोदरी को मईया की रक्षक के रुप में चुनने की तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। कारण कि मंदोदरी भला क्यों चाहेगी, कि माता सीता का वध न हो। वह तो उलटे प्रसन्न होगी, कि अच्छा हुआ, कि मेरी एक सौतन तो रास्ते से हटी। सौतन भी ऐसी कि जिसे रावण केवल साधारण रानी नहीं, अपितु अपनी पटरानी बनाना चाहता है। जिस पद पर फिलहाल मैं सुशोभित हूँ। यह भी सच है, कि कोई पत्नि अपनी सौतन को कभी स्वीकार नहीं करती।

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श्रीहनुमान जी यह सोच सोच कर आनंदित व अभिभूत हुए जा रहे हैं, कि प्रभु आप की लीला को आप ही समझ सकते हैं। अपने भक्त की रक्षा कैसे और कब करनी है, यह आपसे अच्छा भला ओर कौन जान सकता है। आप निश्चित ही मुझे यह समझाना चाहते हैं, कि आप चाहो, तो कहीं से भी बैठ कर माता सीता की रक्षा कर सकते हैं। इसमें मुझ जैसे वानर की आवश्यकता थोड़ी न है। मुझमें अहंकार न आये, और मेरी भक्ति फलती फूलती रहे, इसीलिए आपने मुझे यह लीला के दर्शन करवाये। आप धन्य हैं प्रभु, आप धन्य हैं।


रावण के जाने के पश्चात श्रीहनुमान जी माँ जानकी जी मिलते हैं, अथवा नहीं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।


- सुखी भारती

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