दिल है कि मानता नहीं, मुश्किलें बड़ी हैं ये जानता ही नहीं

चंदा सिंह । Feb 14 2017 1:11PM

कहते हैं वह तवायफ भी गालिब से बेपनाह मोहब्बत करती थी, पर उसे गालिब की बदनामी मंजूर न थी। लिहाजा, उसने खुद ही उनसे गुजारिश की थी कि वह अपनी शादीशुदा जिंदगी में मन लगाएं।

किसी दीवाने से पूछा कि प्यार क्या होता है। उसने कहा- जीने का खूबसूरत बहाना, जिंदगी का सार। बिना इसके सांस लेना भी दुश्वार। किसी सयाने से पूछा क्या है मोहब्बत, तो ले आया वह फलसफा जिंदगी के यथार्थ का। पहले लफ्जों को तौला, फिर बोला-और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा। किसी सच्चे प्रेमी से रूबरू हुए जब हम इस मुतल्लिक, तो उसने कहा अदब से-पाकीज मोहब्बत की कसम मुझको इश्क में रब दिखता है। और किसी घायल प्रेमी से जो पूछा हाल ए दिन उसका, तो बोला वह आह भरकर- बाबू जी धीरे चलना, प्यार में जरा संभलना। बड़े धोखे हैं इस राह में। एक शब्द और इतने मायने, इतने फलसफे। फिर भी कमबख्त इश्क न मिटा न मिटेगा।

इतिहास गवाह है कि इश्क के नाम पर न जाने कितनी बार चलीं चाकू, छुरियां, जंजीरों में जकड़ा गया मोहब्बत का जज्बा, फिर भी इस शब्द में न जाने कैसी कशिश कि वक्त ने जब जब करवट ली, प्यार का नाम हर उस दौर में अलग-अलग रूप में बना रह चर्चा का मौंजूं। हां, अंदाज जरूर बदले पैगामे मोहब्बत के, मर मिटने के, फनां होने के। मगर दिल वही, मोहब्बत वही, जज्बात वही। आज खतो-खिताबत की दुनिया से निकलकर हम हाईटेक जमाने में एसएमएस और इंटरनेट लव से रूबरू हो रहे हैं, प्यार को नया रंग दे रहे हैं, नई तकनीकों में बांधकर। बेशक इस जज्बात को बयां करने का भी अंदाज हो चला है निराला। वैलेंटाइन डे जैसे दिनों के बहाने खुलेआम दिल की बात जुबां तक लाने की कोशिश। इसी कोशिश में शामिल है भावनाओं से जुड़ा सतरंगी बाजार भी। आर्चीज लव कार्डस की बात करें या लव बर्ड या टेडी बियर जैसे प्रेम प्रतीकों की। जो बात कहने में होंठ सिल जाएं, उसे इन उपहारों के जरिए अभिव्यक्त करने का सुलभ साधन। इतने से काम न चले, तो अपने प्यार को यादगार बनाने के कई अनूठे तरीके प्यार की कंपनियों द्वारा उपलब्ध। आपकी नजर पड़े और जेब भारी हो, तो सोचने की जरूरत नहीं। अजी, प्यार का सवाल है। मामला दिल ए नादान का है। अभिप्राय बस इतना की इश्क, प्यार, मोहब्बत वक्त की परतों में न कभी दबा न दब पाएगा। वक्त के साथ अंदाज भले बदल जाएं। प्यार के मारे चोटिल दीवाने बेशक बार-बार चेताएं कि इश्क की गलियों में न विचरना, जहां जो आया, वह बेकाम हो गया। पर, दिल ने कब सुनी, जो अब सुनेगा। वह तो बस, निहाल होना जानता है। नफा-नुकसान से परे, जब दिमाग को अनसुना कर दिल इंसान पर हावी होता है, तो मोहब्बत परवान चढ़ती है। इश्क जवान होता है। ऐसे ही वैलेंटाइन पर हम याद कर रहे हैं मिर्जा गालिब को।

होगा कोई ऐसा भी कि गालिब को न जाने

शायर तो वो अच्छा है, पर बदनाम बहुत है।

एक मुशायरे में गालिब ने खुद अपने बारे में यह कहा था। वे जानते थे कि दुनिया की रवायतों को न मानने वाले शख्स को इस समाज में क्या मुकाम हासिल होता है। इसलिए अपने जीते जी उन्होंने यह कह डाला था कि उन्हें लोग कई तरीकों से जानेंगे। कुछ लोग उनकी शायरी के दीवाने होंगे, तो कुछ कट्टरपंथी विचारकों की नजरों में काफिर से ज्यादा कुछ नहीं। फिर उनके शराब और शबाब के किस्से। इससे पार पाना तो गालिब के बस में था ही नहीं।

मिर्जा असदुल्लाह बेग खान- यह नाम दिया था उनके माता-पिता ने, पर कलम के दीवाने मिर्जा ने अपने नाम के साथ गालिब जोड़ लिया। स्वभाव में बेबाकी और अपने ढंग से जीने के लक्षण तो बचपन में ही नजर आने लगे थे। लेकिन जब मिर्जा आगरा से दिल्ली आए तो बहादुरशाह जफर की सल्तनत में वे भी उर्दू के रंग से बेलग न रह पाए। दिल्ली के बल्लीमारन की एक हवेली से अपनी शायरी का आगाज किया। ऐसी शायरी जिसमें बेबाकी भी थी और विरोध भी। तभी तो उन्होंने अपने शेरो-शायरी में मय का जिक्र किया, मयखाने का भी। खैर, बात करते हैं उनके प्यार के अफसाने की। बहुत कम उम्र में ब्याह कर आई बेगम को जब पहले पहल गालिब ने नजर भर देखा, तो देखते रहे। उनका पहला इश्क उसी छुटपन में ब्याही गई बालिका वधू से रहा। नवाबी के घराने की वह लड़की मिर्जा की पहली सहचरी बनी। इसलिए जब इश्क की बात हो, तो गालिब की शेऱो शायरी में उसकी झलक साफ दिख भी जाती है। मगर स्वभाव से बेपरवाह, दिल से भावुक और दिमाग से संवेदनशील गालिब की जब कोई संतान बची नहीं तो उन्होंने दिल के दरवाजे भी कहीं और खेल दिए। मयखानों से होते हुए मुजरेखाने पहुंचे मिर्जा गालिब वहीं दिल भी गंवा बैठे।

इसकी बड़ी वजह यह भी थी कि मुस्लिम रवायतों और धर्म-कर्म को मानने वाली बीवी से इतर नमाज और मस्जिद से दूर रहे गालिब को लगने लगा था कि अक्सर उनके जज्बातों को उनकी बीवी भी नहीं समझ पाती। किस्सा कुछ यूं है कि एक बार इसी तरह एक तवायफ के कोठे पर जब गालिब की आमद हुई तो उन्होंने चौदवीं को अपनी गजल गाते हुए सुना। हालांकि कई जगह चौदवीं बेगम की जगह गुलनाज का भी जिक्र आता है किताबों में। बस, वहीं दिल दे बैठे। गुफ्तगू का सिलसिला चला, तो पता चला ख्यालात भी काफी मिलते हैं। कई जगह गुलनाज नाम का जिक्र भी आया है किताबों में। बस इश्क के इस समंदर में डूबने को हो गए तैयार गालिब भी।

हालांकि, मयखाने और तवायफ से इस तरह की नजदीकियों ने उन्हें बदनामी के छींटों से दागदार भी किया, पर बदनामी की परवाह कहां थी उन्हें। उन्होंने उस पारंपरिक दौर में भी बेबाकी से वह किया, जो उनका दिल करना चाहता था। हालांकि उनकी इस मोहब्बत की खबर उनकी बेगम को हुई, तो वह इससे आहत भी हुईं, मगर जानती थी गालिब को समझाना व्यर्थ है। क्या मना करने से उन्होंने शराब छोड़ी, जो उसे छोड़ते। यही सच भी था। वह तवायफ गालिब के दिल में हमेशा बसर करती रही। उन्होंने एक बार नहीं, हजार बार उस महबूबा को अपनी गजलों मे उकेरा। कहीं दर्द भरे जज्बात, तो कहीं शिकवा और शिकायत, तो कहीं जिंदगी की कठोर धरातल पर दम तोड़ता उनका रूमानी प्यार, बार बार इसीलिए उभरा उनकी गजलों में। कहते हैं वह तवायफ भी गालिब से बेपनाह मोहब्बत करती थी, पर उसे गालिब की बदनामी मंजूर न थी। लिहाजा, उसने खुद ही उनसे गुजारिश की थी कि वह अपनी शादीशुदा जिंदगी में मन लगाएं। स्वार्थ से परे, किसी लाभ से परे दिल से दिल का यह रिश्ता बेशक इस गुजारिश के साथ तहजीब और लिहाज के पर्दों में सिमट गया, पर गालिब की गजलों में बराबर नुमाया रहा। 

यकीं न हो तो इन चंद शेरों पर गौर करें। आप खुद ही समझ जाएंगे इश्क की आग में किस कदर झुलसे थे गालिब।

-मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे

तू देख कि क्या रंग तेरा मेरे आगे। 

-दिल ही तो है ना संग आ खिश्त।

दर्द से भर न आए क्यों।

रोएंगे हम हजार बार, 

कोई हमें सताए क्यों।

-मुद्दत हुए यार को मेहमां किए हुए---।

(यह शेर उन्होंने खास उस प्रेमिका के लिए लिखा था जो दुनिया की नजर में तवायफ थी।)

-हजारों ख्वाहिशें ऐसी 

कि हर ख्वाहिश पर दम निकले।

बहुत निकले मेरे अरमान, 

लेकिन फिर भी कम निकले।

- चंदा सिंह

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