‘मण्डल-कमण्डल’ ने किया वामदलों को उप्र की सियासत से ओझल

साम्यवाद का झंडा बुलंद करके कभी उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी दखल रखने वाले वामपंथी दल 1990 के दशक से मण्डल-कमण्डल की राजनीति के जोर पकड़ने के बाद धीरे-धीरे इस सूबे के सियासी परिदृश्य से ओझल हो गये।

लखनऊ। साम्यवाद का झंडा बुलंद करके कभी उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी दखल रखने वाले वामपंथी दल 1990 के दशक से मण्डल-कमण्डल की राजनीति के जोर पकड़ने के बाद धीरे-धीरे इस सूबे के सियासी परिदृश्य से ओझल हो गये। खासकर वर्ष 1962 से 1974 तक सूबे की राजनीति में अपने उत्कर्ष पर पहुंची भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और वर्ष 1974 से 2002 तक विधानसभा में बहुत सीमित ही सही, लेकिन अपनी आमद दर्ज कराने वाली मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) समेत सूबे की सियासत में मौजूद सभी वामदल पिछले 10 साल से वनवास काट रहे हैं।

भाकपा के राष्ट्रीय सचिव अतुल अंजान ने बताया कि 1990 के दशक से प्रदेश में जाति और धर्म की राजनीति के जड़े जमाने से वामपंथी दलों की विचारधारा की धार कुंद सी पड़ गयी। भाकपा का प्रदेश के लगभग 65 जिलों में संगठन है, मगर सभी इकाइयां संसाधनों की घोर कमी से जूझ रही हैं। कमोबेश यही हाल अन्य वामदलों का भी है। माकपा के केन्द्रीय कमेटी के पूर्व सदस्य एस.पी. कश्यप ने भी कहा कि प्रदेश में बड़े पैमाने पर धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण के कारण वाम दल पिछड़ गये। जिस दौर में ये चीजें आगे बढ़ीं, उस समय इन दोनों ही कारकों से लोगों की भावनाएं बहुत गहराई से जुड़ी थीं।

उत्तर प्रदेश में सांस्कृतिक पिछड़ापन है, राजनीतिक चेतना का अभाव है और ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाने वालों के पास संसाधनों की भरमार है। इससे वामदलों की लड़ाई स्वत: कमजोर हो गयी। उन्होंने कहा, ‘‘इससे निपटने का एक ही तरीका है, जिस पर हम अब अमल कर रहे हैं। वह है जनमुद्दों को उठाकर जनसंघर्षों को तेज करना। जब वर्गीय चेतना बढ़ती है तो जाति और सम्प्रदाय की चेतना कमजोर हो जाती है। लड़ाई कठिन है, लेकिन आखिर में जीत हमारी ही होगी।’’ अंजान का कहना है कि उनकी पार्टी की प्रदेश की राजनीति में बड़ी भूमिका थी। जमींदारी के खिलाफ पूरा आंदोलन ही भाकपा की देन था। एक दौर था जब उत्तर प्रदेश से उसके छह-सात सांसद और 12-15 विधायक चुने जाते थे।

भाकपा नेता ने कहा कि उनकी पार्टी का 62 जिलों में अच्छा संगठन है। करीब 54 जिलों में पार्टी के कार्यालय हैं। वामपंथी दल पूंजीपतियों के चंदे से नहीं बल्कि अपने कार्यकर्ता के चंदे से चलते हैं। ऐसा नहीं है कि वाम दलों ने समय के साथ चलने में अनिच्छा दिखायी, मगर बड़े पैमाने पर जो चंदा एकत्र होना चाहिये वह नहीं हो पा रहा है। आर्थिक तंगी हमारी नाकामी के सबसे प्रमुख कारणों में से है। उन्होंने एक सवाल पर कहा कि हमें उम्मीद है कि वामपंथी आंदोलन अभी चलेगा, क्योंकि जाति और धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले लोग अब बेपर्दा होते जा रहे हैं। उनके बेपर्दा होने का सिलसिला अब आखिरी दौर से गुजर रहा है। अब हमारा नौजवान साम्प्रदायिक भाषणों पर नहीं जाता, बल्कि रिपोर्ट कार्ड मांगता है।

वैसे, प्रदेश विधानसभा के मौजूदा चुनाव में भाकपा, माकपा, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी), सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आफ इण्डिया-कम्युनिस्ट (एसयूएसआईसी), भाकपा-माले और फॉरवर्ड ब्लाक मिलकर प्रदेश की कुल 140 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें 68 सीटों पर भाकपा, 26 पर माकपा, फारवर्ड ब्लाक और एसयूएसआईसी सात-सात और भाकपा-माले 32 सीटों पर मैदान में है। प्रदेश में वामपंथी दलों के इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1957 के विधानसभा चुनाव में भाकपा ने एक सीट जीती थी। बाद में उसका ग्राफ तेजी से चढ़ा और पांच साल बाद हुए चुनाव में उसे 14 सीटें मिलीं। साल 1967 में हुए चुनाव में उसे 13 सीटें मिलीं जो वर्ष 1974 के चुनाव में बढ़कर 16 हो गयीं। इसी बीच माकपा वर्ष 1974 से 1996 तक एक से चार सीटें जीतती रही। हालांकि वर्ष 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में इन दोनों वामदलों का खाता नहीं खुला।

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