नक्सलवाद से निबटने के लिए सही रणनीति का होना बहुत जरूरी है

amit shah

इस समय छत्तीसगढ़ के 14 जिलों में और देश के लगभग 50 अन्य जिलों में नक्सलियों का दबदबा है। ये वहां छापामारों को हथियार और प्रशिक्षण देते हैं और लोगों से पैसा भी उगाहते रहते हैं। ये नक्सलवादी छापामार सरकारी भवनों, बसों और नागरिकों पर सीधे हमले भी बोलते रहते हैं।

छत्तीसगढ़ के टेकलगुड़ा के जंगलों में 22 जवान मारे गए और दर्जनों घायल हुए। माना जा रहा है कि इस मुठभेड़ में लगभग 20 नक्सली भी मारे गए। यह नक्सलवादी आंदोलन बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से 1967 में शुरू हुआ था। इसके आदि प्रवर्तक चारु मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी जैसे नौजवान थे। ये कम्युनिस्ट थे लेकिन माओवाद को इन्होंने अपना धर्म बना लिया था। मार्क्स के ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ के आखिरी पेराग्राफ इनका वेदवाक्य बन गया है। ये सशस्त्र क्रांति के द्वारा सत्ता-पलट में विश्वास करते हैं। इसीलिए पहले बंगाल, फिर आंध्र व ओडिशा और फिर झारखंड और मप्र के जंगलों में छिपकर ये हमले बोलते रहे हैं और कुछ जिलों में ये अपनी समानांतर सरकार चलाते हैं।

इसे भी पढ़ें: छत्तीसगढ़ में नक्सली वारदातें बीस प्रतिशत अधिकः सांसद संतोष पाण्डेय

इस समय छत्तीसगढ़ के 14 जिलों में और देश के लगभग 50 अन्य जिलों में इनका दबदबा है। ये वहां छापामारों को हथियार और प्रशिक्षण देते हैं और लोगों से पैसा भी उगाहते रहते हैं। ये नक्सलवादी छापामार सरकारी भवनों, बसों और नागरिकों पर सीधे हमले भी बोलते रहते हैं। जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को भड़का कर ये उनकी सहानुभूति अर्जित कर लेते हैं और उन्हें सब्जबाग दिखाकर अपने गिरोहों में शामिल कर लेते हैं। ये गिरोह इन जंगलों में कोई भी निर्माण-कार्य नहीं चलने देते हैं और आतंकवादियों की तरह हमले बोलते रहते हैं। पहले तो बंगाली, तेलुगु और ओड़िया नक्सली बस्तर में डेरा जमाकर खून की होलियां खेलते थे लेकिन अब स्थानीय आदिवासी जैसे हिडमा और सुजाता जैसे लोगों ने उनकी कमान संभाल ली है।

केंद्रीय पुलिस बल आदि की दिक्कत यह है कि एक तो उनको पर्याप्त जासूसी सूचनाएं नहीं मिलतीं और वे बीहड़ जंगलों में भटक जाते हैं। उनमें से एक जंगल का नाम ही है— अबूझमाड़। इसी भटकाव के कारण इस बार सैकड़ों पुलिसवालों को घेरकर नक्सलियों ने उन पर जानलेवा हमला बोल दिया। 2013 में इन्हीं नक्सलियों ने कई कांग्रेसी नेताओं समेत 32 लोगों को मार डाला था। ऐसा नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी आंख मींच रखी है। 2009 में 2258 नक्सली हिंसा की वारदात हुई थी लेकिन 2020 में 665 ही हुईं। 2009 में 1005 लोग मारे गए थे जबकि 2020 में 183 लोग मारे गए। आंध्र, बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना के जंगलों से नक्सलियों के सफाए का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि वहां की सरकारों ने उनके जंगलों में सड़कें, पुल, नहरें, तालाब, स्कूल और अस्पताल आदि बनवा दिए हैं। बस्तर में इनकी काफी कमी है।

इसे भी पढ़ें: जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी, नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन और तेज होगा: अमित शाह

पुलिस और सरकारी कर्मचारी बस्तर के अंदरुनी इलाकों में पहुंच ही नहीं पाते। केंद्र सरकार चाहे तो युद्ध-स्तर पर छत्तीसगढ़-सरकार से सहयोग करके नक्सल-समस्या को महिने-भर में जड़ से उखाड़ सकती है। यह भी जरूरी है कि अनेक समाजसेवी संस्थाओं को सरकार आदिवासी क्षेत्रों में सेवा-कार्य के लिए प्रेरित करे।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़