सिर्फ करिकुलम को हैप्पी बना देने भर से काम नहीं चलेगा

Only happy curriculum will not work

किन्हें कब और कितना उछालना है, किसे तवज्जो देनी है आदि सरकार और सत्ता तय किया करती है। क्या हम इसे सरकार और सरकारी सत्ता की इच्छा शक्ति की कमी न मानें कि छह दशक के बाद भी हम ज्वायफुल लर्निंग की ही बात कर रहे हैं। सिर्फ नाम बदले हैं।

तकरीबन पांच व छह दशक पहले प्रो. यशपाल ने 'शिक्षा बिना बोझ के' वकालत की थी। उनका तर्क था कि शिक्षा−शिक्षण, पढ़ना−पढ़ाना आदि कोई बोझ न हो। सीखना−सिखाना प्रक्रिया सहज और आनंदपूर्ण प्रक्रिया हो। बजाए कि स्कूल और स्कूली परिवेश बच्चों को आकर्षित करने के उन्हें डराएं आदि। बड़ी ही शिद्दत से प्रो. यशपाल ने अपनी इन सिफारिशों को सरकार को सौंपा था। सरकार तो सरकार होती है। उसकी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। किन्हें कब और कितना उछालना है, किसे तवज्जो देनी है आदि सरकार और सत्ता तय किया करती है। क्या हम इसे सरकार और सरकारी सत्ता की इच्छा शक्ति की कमी न मानें कि छह दशक के बाद भी हम ज्वायफुल लर्निंग की ही बात कर रहे हैं। सिर्फ नाम बदले हैं। रैपर बदले हैं अंदर का कंटेंट, कंसेप्ट तकरीबन समान है। यदि दिल्ली सरकार हैप्पी करिकुलम की बात करती है। साथ ही कई महीनों की मेहनत से कंटेंट तैयार करवाया गया। अब उसे स्कूलों में लागू किया जाएगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि कक्षा में स्कूल की शुरुआत में तीस मिनट बच्चे ध्यान किया करेंगे। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन गैर हिन्दू संप्रदाय के बच्चों को भी हमें विमर्श के केंद्र में रखना होगा क्योंकि स्कूल किसी एक खास संप्रदाय व मान्यताओं का परिसर नहीं है बल्कि यहां एक ऐसा समाज बसता और आकार लेता है जो भविष्य में व्यापक समाज का दिशा देते हैं।

दूसरा उदाहरण मानव संसाधन मंत्रायल के निर्णय को लिया जाए। हाल ही में एमएचआरडी मंत्री ने घोषणा की कि हमारे बच्चों का करिकुलम बहुत भारी है। उस भार को कम करना होगा। कम किया जाना चाहिए। यह पहली सरकार है जो शिक्षा के इस भार को पहचान कर कम करने की इच्छा शक्ति रखती है। अब उन्हें कौन समझाए कि कभी कभी शिक्षा और मंत्रालय के निर्णयों, दस्तावेज़ों को पढ़ लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका कि प्रो. यशपाल से लेकर जस्टिस जेएस वर्मा की कमिटि भी शिक्षा की बेहतरी और ज्वायफुल लर्निंग के लिए सिफारिशें दे चुकी है। यह अलग बात है कि हमने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। उस पर तुर्रा यह कि पहली बार उनकी सरकार इस ओर ध्यान दे रही है। यह  अफसोसनाक बात नहीं तो और क्या है।

जो भी हो चाहे हम करिकुलम के भार को कम करें या बस्ते का बोझ कम करने का प्रयास या घोषणा करें अंततः यदि बच्चों को इसका लाभ नहीं मिल पाता तो तमाम घोषणाएं महज बातें हैं बातों का क्या....से ज़्यादा अहम नहीं माना जा सकता। क्या हम इस चिंता से मुंह मोड़ सकते हैं कि एक ओर बेहतर स्कूलों की स्थापनाएं, पुनर्स्थापनाएं हो रही हैं वहीं दूसरी ओर केंद्र और राज्य सरकार शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों को खोलने की सिफारिश कर रहे हैं। दूसरी ओर बच्चों में सीखने का कमी भी स्पष्ट दिखाई देती है। तमाम रिपोर्ट यह हक़ीकत चीख चीख कर बता रही हैं कि हमारी प्राथमिक शिक्षा की दशा−दिशा बहुत संतोषप्रद नहीं है। यदि हमारे बच्चे स्कूलों में सीख नहीं पा रहे हैं व सीखने का स्तर कमतर है तो यह एक एलॉर्मिंग स्थिति है। हम शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए विभिन्न स्तरों पर नवाचार कर रहे हैं। कभी मिशन बुनियाद, कभी ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, कभी सर्व शिक्षा अभियान, कभी राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान आदि। इन अभियानों से होता क्या है? इसे भी संज्ञान में लेने की आवश्यकता है।

विभिन्न अभियानों के ज़रिए हम क्या हासिल करना चाहते हैं इस पर ठहर कर विमर्श करने की आवश्यकता है। वरना अभियानों के महज नाम बदलते हैं लेकिन स्कूली स्तर पर बच्चों की सीखने की गुणवत्ता नहीं सुधर पाती। ऐसे में कहीं न कहीं हमें अपने एप्रोच, एजेंडा, मिशन और विज़न को दुबारा से व्याख्यायित करना होगा। हमें बेहतर तरीके से अपने शिक्षकों की शैक्षिक संपदा का प्रयोग करना होगा। इसके लिए हमारे पास व्यापक स्तर पर टेस्टेड रोड मैप की आवश्यकता पड़ेगी।

विभिन्न राज्यों में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापनाएं की गईं। उनका मकसद ही यही था कि हम सेवा पूर्व शिक्षकों को बेहतर प्रशिक्षण प्रदान कर पाएं ताकि वे सेवाकालीन शिक्षण में अपनी बेहतर समझ और कौशल का इस्तमाल कर सकें। लेकिन जिस तरह से सेवा पूर्व प्रशिक्षण संस्थानों से शिक्षक स्कूलों में पहुंच रहे हैं वे एक तरह से महज किताबी समझ के साथ कक्षाओं में आते हैं। उनकी मदद सेवापूर्व प्रशिक्षण उतनी नहीं कर पातीं जितनी की उम्मीद किया करते हैं। हरियाणा सरकार ने 2009 के आस−पास एमएचआरडी से और प्रशिक्षण संस्थान डाईट्स की मांग की थी। उस मांग के मद्देनज़र अतिरिक्त डाईट्स खोले गए। लेकिन जब उन संस्थानों की गुणवत्ता का मूल्यांकन और जांच की गई तो स्थिति बेहद निराशाजनक थी। शिक्षक प्रशिक्षक पर्याप्त नहीं थे। एमएचआरडी के नियमों का पालन वहां नहीं हो रहा था। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार से हरियाण व अन्य राज्यों में सेवापूर्व शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों में शिक्षकों को डिग्रियां बांटी जाती हैं उन्हें देखकर तो ऐसी ही छवि बनती है। इन डिग्रियों की दुकानों को जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय पहले ही फटकार लगा चुकी है।

आज देश में विभिन्न तरह के सेवापूर्व शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान चल रहे हैं। इनमें सरकारी अनुदान प्राप्त, सरकारी गैर अनुदान प्राप्त, स्वपोषित संस्थान आदि हैं। सरकारी संस्थानों में डाइट्स हैं वहीं गैर सरकारी व गैर अनुदान प्राप्त संस्थाएं निजी स्तर पर विभिन्न शैक्षिक स्टेक होल्डर्स की ओर से चलाई जा रही हैं। इन संस्थानों में किस प्रकार की और किस स्तर का गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण दिया जा रहा है इसकी निगरानी दुरुस्त करने की आवश्यकता है क्योंकि जब इन संस्थानों से बच्चे प्रशिक्षण हासिल कर सेवा में आते हैं उनके सामने कक्षायी हक़ीकत एकदम भिन्न हुआ करती है।

राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर शिक्षक शिक्षण दक्षता पात्रता परीक्षा के रिजल्ट्स बताते हैं कि कितने फीसदी शिक्षण के योग्य हैं। एक बड़ा हिस्सा शिक्षण दक्षता में पास तक नहीं हो पाता। यह उनकी योग्यता और दक्षता से ज़्यादा उन शिक्षक−प्रशिक्षण संस्थानों पर सवाल खड़ी करती है जहां उन्हें सेवापूर्व प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इन सेवापूर्व शिक्षक संस्थानों में किस स्तर के प्रशिक्षण प्रदान किए जा रहे हैं उन्हें समय समय पर बदलने की भी आवश्यकता है। जहां तक करिकुलम की बात है वहां हमें प्रशिक्षण−संस्थानों के करिकुलम को भी वर्तमान स्कूली चुनौतियों के मददे नज़र बदलने की आवश्यकता है। इस हक़ीकत से कोई इंकार नहीं कर सकता कि हमारे यहां शिक्षण कर्म को कम से कम अब की तारीख में बेहद उपेक्षित प्रोफेशन की तरह देखा जाता है। जिन्हें कहीं और स्थान व दाखिला नहीं मिला वैसे युवाओं की संख्या काफी है।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

(भाषा एवं शिक्षा पैडागोजी एक्सपर्ट)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़