बाजारवाद के इस दौर में मीडिया के उद्देश्य ही नहीं आदर्श भी बदल गये हैं

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सच तो यह है कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण इन दो शब्दों ने भारतीय समाज और मीडिया, दोनों को प्रभावित किया है। 1991 के बाद सिर्फ मीडिया ही नहीं पूरा समाज बदला है, उसके मूल्य, सिद्धांत, जीवनशैली में क्रांतिकारी परिर्वतन परिलक्षित हुए हैं।

मीडिया की दुनिया में आदर्शों और मूल्यों का विमर्श इन दिनों चरम पर है। विमर्शकारों की दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी है। एक वर्ग मीडिया को कोसने में सारी हदें पार कर दे रहा है तो दूसरा वर्ग मानता है जो हो रहा है वह बहुत स्वाभाविक है तथा काल-परिस्थिति के अनुसार ही है। उदारीकरण और भूमंडलीकृत दुनिया में भारतीय मीडिया और समाज के पारंपरिक मूल्यों का बहुत महत्त्व नहीं है।

एक समय में मीडिया के मूल्य थे सेवा, संयम और राष्ट्र कल्याण। आज व्यावसायिक सफलता और चर्चा में बने रहना ही सबसे बड़े मूल्य हैं। कभी हमारे आदर्श महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी और गणेश शंकर विद्यार्थी थे, ताजा स्थितियों में वे रुपर्ट मर्डोक और जुकरबर्ग हों? सिद्धांत भी बदल गए हैं। ऐसे में मीडिया को पारंपरिक चश्मे से देखने वाले लोग हैरत में हैं। इस अंधेरे में भी कुछ लोग मशाल थामे खड़े हैं, जिनके नामों का जिक्र अकसर होता है, किंतु यह नितांत व्यक्तिगत मामला माना जा रहा है। यह मान लिया गया है कि ऐसे लोग अपनी बैचेनियों या वैचारिक आधार के नाते इस तरह से हैं और उनकी मुख्यधारा के मीडिया में जगह सीमित है। तो क्या मीडिया ने अपने नैसर्गिक मूल्यों से भी शीर्षासन कर लिया है, यह बड़ा सवाल है।

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सच तो यह है कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण इन दो शब्दों ने भारतीय समाज और मीडिया, दोनों को प्रभावित किया है। 1991 के बाद सिर्फ मीडिया ही नहीं पूरा समाज बदला है, उसके मूल्य, सिद्धांत, जीवनशैली में क्रांतिकारी परिर्वतन परिलक्षित हुए हैं। एक ऐसी दुनिया बन गयी है या बना दी गई है जिसके बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है। आज भूमंडलीकरण को लागू हुए तीन दशक होने जा रहे हैं। उस समय के प्रधानमंत्री श्री पीवी नरसिंह राव और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने इसकी शुरुआत की तबसे हर सरकार ने कमोबेश इन्हीं मूल्यों को पोषित किया। एक समय तो ऐसा भी आया जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में उदारीकरण का दूसरा दौर शुरू हुआ तो स्वयं नरसिंह राव जी ने टिप्पणी की “हमने तो खिड़कियां खोली थीं, आपने तो दरवाजे भी उखाड़ दिए।” यानी उदारीकरण-भूमंडलीकरण या मुक्त बाजार व्यवस्था को लेकर हमारे समाज में हिचकिचाहटें हर तरफ थी। एक तरफ वामपंथी, समाजवादी, पारंपरिक गांधीवादी इसके विरुद्ध लिख और बोल रहे थे, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने भारतीय मजूदर संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों के माध्यम से इस पूरी प्रक्रिया को प्रश्नांकित कर रहा था। यह साधारण नहीं था कि संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को ‘अनर्थ मंत्री’ कहकर संबोधित किया। खैर ये बातें अब मायने नहीं रखतीं।

1991 से 2019 तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और सरकारें, समाज व मीडिया तीनों ‘मुक्त बाजार’ के साथ रहना सीख गए हैं। यानी पीछे लौटने का रास्ता बंद है। बावजूद इसके यह बहस अपनी जगह कायम है कि हमारे मीडिया को ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा मानवीय और ज्यादा संवेदनशील कैसे बनाया जाए। व्यवसाय की नैतिकता को किस तरह से सिद्धांतों और आदर्शों के साथ जोड़ा जा सके। यह साधारण नहीं है कि अनेक संगठन आज भी मूल्य आधारित मीडिया की बहस से जुड़े हुए हैं। जिनमें ब्रह्मकुमारीज और प्रो. कमल दीक्षित द्वारा चलाए जा रहे ‘मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति’ के अभियानों को देखा जाना चाहिए। प्रो. दीक्षित इसके साथ ही ‘मूल्यानुगत मीडिया’ नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहे हैं। जिनमें इन्हीं विमर्शों को जगह दी जा रही है।

इस सारे समय में पठनीयता का संकट, सोशल मीडिया का बढ़ता असर, मीडिया के कंटेंट में तेजी से आ रहे बदलाव, निजी नैतिकता और व्यावसायिक नैतिकता के सवाल, मोबाइल संस्कृति से उपजी चुनौतियों के बीच मूल्यों की बहस को देखा जाना चाहिए। इस समूचे परिवेश में आदर्श, मूल्य और सिद्धांतों की बातचीत भी बेमानी लगने लगी है। बावजूद इसके एक सुंदर दुनिया का सपना, एक बेहतर दुनिया का सपना देखने वाले लोग हमेशा एक स्वस्थ और सरोकारी मीडिया की बहस के साथ खड़े रहेंगे। संवेदना, मानवीयता और प्रकृति का साथ ही किसी भी तरह का संवाद माध्यम को सार्थक बनाता है। संवेदना और सरोकार समाज जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक हैं, तो मीडिया उससे अछूता कैसे रह सकता है।

सही मायने में यह समय गहरी सांस्कृतिक निरक्षता और संवेदनहीनता का समय है। इसमें सबके बीच मीडिया भी गहरे असमंजस में है। लोक के साथ साहचर्य और समाज में कम होते संवाद ने उसे भ्रमित किया है। चमकती स्क्रीनों, रंगीन अखबारों और स्मार्ट हो चुके मोबाइल उसके मानस और कृतित्व को बदलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे में मूल्यों की बात कई बार नक्कारखाने में तूती की तरह लगती है। किंतु जब मीडिया के विमर्शकार, संचालक यह सोचने बैठेंगे कि मीडिया किसके लिए और क्यों- तब उन्हें इसी समाज के पास आना होगा। रूचि परिष्कार, मत निर्माण की अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित करना होगा। क्योंकि तभी मीडिया की सार्थकता है और तभी उसका मूल्य है। लाख मीडिया क्रांति के बाद भी ‘भरोसा’ वह शब्द है जो आसानी से अर्जित नहीं होता। लाखों का प्रसार आपके प्राणवान और सच के साथ होने की गारंटी नहीं है। ‘विचारों के अनुकूलून’ के समय में भी लोग सच को पकड़ लेते हैं। मीडिया का काम सूचनाओं का सत्यान्वेषण ही है, वरना वे सिर्फ सूचनाएं होंगी-खबर या समाचार नहीं बन पाएंगी।

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कोई भी मीडिया सत्यान्वेषण की अपनी भूख से ही सार्थक बनता है, लोक में आदर का पात्र बनता है। हमें अपने मीडिया को मूल्यों, सिद्धांतों और आदर्शों के साथ खड़ा करना होगा, यह शब्द आज की दुनिया में बोझ भले लगते हों पर किसी भी संवाद माध्यम को सार्थकता देने वाले शब्द यही हैं। सच की खोज कठिन है पर रुकी नहीं है। सच से साथ खड़े रहना कभी आसान नहीं था। हर समय अपने नायक खोज ही लेता है। इस कठिन समय में भी कुछ चमकते चेहरे हमें इसलिए दिखते हैं क्योंकि वे मूल्यों के साथ, आदर्शों की दिखाई राह पर अपने सिद्धांतों के साथ डटे हैं। समय ऐसे ही नायकों को इतिहास में दर्ज करता है और उन्हें ही मान देता है। आइए भारतीय मीडिया के पारंपरिक अधिष्ठान पर खड़े होकर हम अपने वर्तमान को सार्थक बनाएं।

-प्रो. संजय द्विवेदी

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं।)

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