राष्ट्रवाद के नाम पर अतिवाद से किसका भला होगा

यूरोप और अमेरिका में अब एक ऐसा समाज जोर पकड़ रहा है, जो एक रंग, एक भाषा, एक मजहब, एक संस्कृति और एक जीवन-पद्धति पर जोर दे रहा है। क्या यही सच्चा लोकतंत्र है?

अमेरिका और यूरोप के राष्ट्रों में राष्ट्रवाद के नाम पर कितना अतिवाद हो रहा है, इसके ताजा प्रमाण अभी-अभी सामने आए हैं। अमेरिका के केन्सास शहर में एक गोरे अमेरिकी ने दो भारतीयों पर गोलियां चला दीं और कहा कि तुम अमेरिका से भाग जाओ। इधर पेरिस में फ्रांस की दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी नेता श्रीमती ली पेन ने कहा है कि अगर वे राष्ट्रपति बन गईं तो वे बुर्के, सिर के दुपट्टे और यहूदी टोपी पर प्रतिबंध लगा देंगी। हर फ्रांसीसी नागरिक पहले फ्रांस का नागरिक है, फिर किसी मजहब का सदस्य है। चौबीसों घंटे उसे अपनी मजहबी पहचान को हिलाते रहने की क्या जरूरत है? जब वह मस्जिद या चर्च या साइनेगोग में जाए तब वह अपना मजहबी लिबास धारण करे लेकिन हर जगह अपनी मज़हबी पहचान को प्रदर्शित करते रहने का मतलब है- आपका मजहब ऊपर है और आपका देश नीचे है। इसके अलावा इन पहचान-चिन्हों के कारण राष्ट्रीय एकता भी कमजोर पड़ती है। लोगों में अपने अलग होने की भावना भी पनपती है।

ली पेन के ये विचार फ्रांस की ज्यादातर जनता में इसलिए भी लोकप्रिय हो रहे हैं कि फ्रांस के मुसलमान लोग या तो अरब हैं या अफ्रीकी हैं और आतंकवाद के कई भयंकर हादसे हो चुके हैं। ये लोग रंग-रूप से इतने अलग हैं कि यदि वे दाढ़ी न रखें, उनकी औरतें बुर्का न पहनें और वे धाराप्रवाह फ्रांसीसी बोलें तो भी वे अलग से पहचाने जाएंगे। इसके बावजूद ली पेन का तर्क गोरे लोगों को इसलिए पसंद आ रहा है कि वे विदेशी मूल के इन फ्रांसीसी नागरिकों के प्रति सशंकित हो गए हैं। इस प्रवृत्ति का दूसरा पहलू यह है कि ‘सेक्युलरिज्म’ और फ्रांसीसी क्रांति के नाम पर पूरे योरोप में उत्पन्न विविधता का विरोध होने लगा है। भारत अपनी जिस विविधता पर गर्व करता है, वह यूरोप और अब अमेरिका में भी घृणा की वस्तु बनती जा रही है।

यूरोप और अमेरिका में अब एक ऐसा समाज जोर पकड़ रहा है, जो एक रंग, एक भाषा, एक मजहब, एक संस्कृति और एक जीवन-पद्धति पर जोर दे रहा है। क्या यही सच्चा लोकतंत्र है? क्या यही सच्ची द्वंद्वात्मकता है? क्या यह एकायामी और नीरस जीवन-पद्धति वाला समाज नहीं बन जाएगा? डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद ऐसा लगता है कि अमेरिकी समाज भी इसी ढर्रे पर चल पड़ा है। ट्रंप अमेरिका और उसकी अर्थ-व्यवस्था को मजबूत बनाने की बात कहें, इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन उनके भाषणों ने नफरत का बाजार गर्म कर दिया है। इसीलिए एक गोरे ने दो भारतीयों को अरब मुस्लिम समझकर उन पर जानलेवा हमला कर दिया।

ट्रंप और ली पेन के अपने तर्क हैं और उनमें थोड़ा-बहुत दम भी है लेकिन कहीं ऐसा न हो कि ये अति उत्साही पश्चिमी नेता उन मूल्यमानों को ही गारत कर दें, जिनके आधार पर आधुनिक फ्रांसीसी और अमेरिकी समाज की नींव रखी गई है।

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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