राज्यों ने प्रवासी श्रमिकों की देखरेख का जिम्मा उठाया होता तो यह नौबत नहीं आती

migrant labourers

लॉकडाउन के साइड इफेक्ट दिखने शुरू हो चुके हैं। राज्य सरकारों के लिए लाखों की संख्या में फंसे प्रवासी श्रमिकों के लिए इंतजाम करना टेढ़ी खीर है। इसके अलावा श्रमिकों ने भी अपने घर वापसी के लिए अपने राज्यों की सरकारों पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया।

लॉकडाउन के दौरान अलग−अलग राज्यों में फंसे श्रमिकों को लेकर देश में अफरा−तफरी मची हुई है। इस समस्या की तरफ की राज्यों और केंद्र ने प्रारंभ में ही ध्यान दिया होता तो हालात इतने नहीं बिगड़ते। प्रवासी श्रमिकों को लेकर केंद्र सरकार ने कोई नीति तय नहीं की। यह ठीक है कि कोरोना को फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन का कदम आवश्यक था, किन्तु इससे उत्पन्न होने वाली परेशानियों के लिए कोई रोड मैप तैयार नहीं किया गया। सब कुछ भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया। 

इसी से देश के अलग−अलग राज्यों में फंसे श्रमिकों में भारी बैचेनी व्याप्त है। देश में कोरोना के बढ़ते मरीजों की संख्या और हॉट स्पॉट के मद्देनजर केंद्र सरकार का दूसरी बार लॉकडाउन बढ़ाना सही निर्णय माना जा सकता है। लॉकडाउन के कारण ही भारत की स्थिति विदेशों से बेहतर है। सवाल यही है कि लॉकडाउन आखिर कब तक रखा जा सकता है। यदि लॉकडाउन को लागू किया गया तो प्रवासी श्रमिकों की समस्याओं की तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया गया। 

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राज्यों की मजबूरी यह है कि वहां की सरकारें अपने नागरिकों के लिए ही सही से राशन−पानी का इंतजाम नहीं कर पा रही हैं। ऐसे में लाखों की संख्या में फंसे प्रवासी श्रमिकों के लिए इंतजाम करना टेढ़ी खीर है। इसके अलावा श्रमिकों ने भी अपने घर वापसी के लिए अपने राज्यों की सरकारों पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया। श्रमिकों को घर बुलाने की शुरुआत सबसे पहले उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने की। दिल्ली से बसें भेज कर इसकी शुरुआत की गई। इतना ही नहीं देश के कोचिंग सेंटर कहलाने वाले राजस्थान के कोटा में फंसे हजारों छात्रों को भी बसों के जरिए उत्तर प्रदेश बुलवाया गया। 

इस शुरुआत के साथ ही दूसरे राज्यों पर छात्रों और श्रमिकों को बुलवाने का दबाव बढ़ने लगा। बिहार देश को सर्वाधिक श्रमिक देता है। सर्वाधिक मुसीबत बिहार की नीतीश सरकार की हुई। केंद्र सरकार द्वारा श्रमिकों के लिए विशेष ट्रेन चलाए जाने से पहले बिहार सरकार श्रमिक और छात्रों को लेकर भारी दबाव में आ गई। प्रधानमंत्री की राज्यों के मुख्यमंत्रियों से हुई वीडियो कांफ्रेंसिंग के बाद बीच का रास्ता निकला जरूर किन्तु इसके दूरगामी परिणामों पर किसी की नजर नहीं गई। केंद्र सरकार राज्यों की मांगों पर विशेष ट्रेनें चलाने को सहमत हो गई। इसमें 85 प्रतिशत राशि केंद्र और 15 प्रतिशत राशि राज्यों द्वारा दिया जाना तय किया गया। इसका परिणाम यह रहा कि रेलवे ने राज्यों की मांगों के अनुरूप श्रमिक ट्रेनें चलाना शुरू कर दिया। 

श्रमिकों की आवाजाही को लेकर केंद्र और राज्यों ने इसके परिणामों पर गौर नहीं किया। केंद्र की एडवाइजरी के बाद राज्यों ने अपने हालात के अनुसार लॉकडाउन में छूट दे दी। वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियों का पहिया घूमने लगा। लेकिन इसके लिए श्रमिक मुहैया कराए जाने की समस्या खड़ी हो गई। श्रमिक हर हालत में अपने राज्यों में लौटने का दबाव बनाए हुए हैं। औद्योगिक उत्पादन वाले राज्यों के सामने संकट खड़ा हो गया कि जब पर्याप्त संख्या में श्रमिक ही नहीं होंगे तो उत्पादन कैसे होगा। अब राज्य यह चाह रहे हैं कि श्रमिक अपने राज्यों को ना लौटें। दरअसल राज्यों ने यदि श्रमिकों का ख्याल पहले रखा होता तो शायद यह नौबत नहीं आती। लॉकडाउन से घबराए और घर−परिवार से दूर श्रमिकों का राज्यों की सरकारों ने भावनात्मक तो दूर इनके पेट भरने तक का इंतजाम नहीं किया। अब औद्योगिक उत्पादन वाले राज्य ऐसे श्रमिकों को रोकने का प्रयास कर रहे हैं। इनके लिए पर्याप्त संख्या में परिवहन का इंतजाम नहीं किया जा रहा है। 

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लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों का आत्मविश्वास इतना डगमगा गया है कि वे किसी भी सूरत में अपने घरों पर जाने के लिए अड़े हुए हैं। गुजरात और तेलंगाना सहित कई दूसरे राज्यों में प्रवासी श्रमिकों ने अपने घरों को जाने को लेकर धरने−प्रदर्शन किए। पुलिस को कई स्थानों पर बल प्रयोग तक करना पड़ा। कोरोना को रोकने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का बड़े पैमाने पर उल्लंघन हो रहा है। इसके क्या परिणाम आएंगे यह भविष्य ही बताएगा। जहां−तहां फंसे श्रमिकों को लॉकडाउन के प्रारंभ से ही राज्यों की सरकारों के आश्वासनों पर भरोसा नहीं है। इसका कारण है कि कुछ राज्यों ने श्रमिकों को बुला लिया, बाकी ने उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया। यही कारण है कि लॉकडाउन से लेकर अभी बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन जारी है। मजदूर पैदल और अन्य निजी साधनों से सैंकड़ों−हजारों किलोमीटर की दूरी तय करके लगातार पहुंच रहे हैं। 

अब बिहार और उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान जैसे राज्यों के लिए नई मुसीबत यह है कि अलबत्ता तो लाखों की संख्या में इधर−उधर फंसे श्रमिकों को लाने के लिए व्यापक इंतजाम कैसे किए जाएं। यदि इन श्रमिकों को जैसे−तैसे वापस बुला भी लिया जाए तो इनके रोजगार का इंतजाम कैसे होगा। राजस्थान, तेलंगाना जैसे राज्यों की सीमाओं पर हजारों की संख्या में श्रमिक और बाहरी लोग अटके हुए हैं। राज्य सरकारों ने कोरोना फैलने के डर से सड़क या कच्चे रास्तों से आने वाले लोगों पर पाबंदी लगा दी है। 

समस्या यह भी है कि राज्यों के खजाने वैसे भी खाली होते जा रहे हैं। लॉकडाउन के कारण औद्योगिक और वाणिज्यिक उत्पादन नहीं होने से राजस्व लगभग शून्य हो गया है। इसके अलावा भी अभी उद्योग इस हालात में नहीं हैं कि सरकारों को आगामी कुछ महीनों तक पूरा टैक्स दे सकें। मजबूरीवश सरकारों को उद्योगों को छूट देने की घोषणाएं भी अपने स्तर पर करनी पड़ रही हैं। इससे यदि उत्पादन व्यवस्थित हो भी जाता है तो भी सरकारों को आगामी कुछ महीनों तक राजस्व के लिए इंतजार करना होगा, तभी खजाने में कुछ आमदनी हो सकेगी। राज्यों की हालत राजस्व के मामलों में करेला ओर नीम चढ़ा जैसी बनी हुई है। यही वजह है कि ज्यादातर राज्यों को आय प्राप्त करने के लिए शराब की दुकाने खोलने का निर्णय करना पड़ा। हालांकि इस निर्णय से सोशल मीडिया पर सरकारों की खूब खिंचाई हो रही है। शराब के लिए सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ने की खबरें देश के हर राज्य से आई हैं। शराब पीकर बहकने वालों के वीडियो वायरल हो रहे हैं। 

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देश के सामने फिलहाल यक्ष प्रश्न यही है कि लाखों श्रमिकों की सही−सलामत घर वापसी कैसे हो। श्रमिकों में घरों को लौटने को लेकर बैचेनी बढ़ती जा रही है। हालात विस्फोटक बने, उससे पहले केंद्र और राज्यों को मिलजुल कर इस समस्या का समाधान तलाशना चाहिए, क्योंकि पानी अभी सिर से नहीं गुजरा है, वरना पहले से ही कोरोना से जूझ रहे देश में कानून−व्यवस्था की गंभीर समस्या खड़ी हो जाएगी।

-योगेंद्र योगी

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