''सधी'' चाल से अंतरराष्ट्रीय अदालत को भारत ने ब्रिटेनमुक्त कर दिया

analysis of Indias win in ICJ Elections
राकेश सैन । Nov 29 2017 12:07PM

ब्रिटेन का एक न्यायाधीश हमेशा आईसीजे के 15 न्यायाधीशों में शामिल रहा है। अंतरराष्ट्रीय अदालत को भारत ने ब्रिटेनमुक्त कर दिया और जज के चुनाव के दौरान ये बाजी ब्रिटेन से जीत ली है।

भारतीयों को असभ्य व पिछड़ा मान कर क्लबों व रेस्टहाऊसों में 'इंडियन एंड डॉग्स आर नॉट एलाऊड' के बोर्ड चस्पा करने वाले अंग्रेजों के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) हेग में चले आ रहे लगभग पौनी सदी के आधिपत्य को उन्हीं 'काले भारतीयों' ने तोड़ दिया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक एक ब्रिटेन का एक न्यायाधीश हमेशा आईसीजे के 15 न्यायाधीशों में शामिल रहा है। अंतरराष्ट्रीय अदालत को भारत ने ब्रिटेनमुक्त कर दिया और जज के चुनाव के दौरान ये बाजी ब्रिटेन से जीत ली है। इसे डोकलाम विवाद, ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद का मुद्दा शामिल करवाने जैसी भारत की एक और बड़ी कूटनीतिक जीत माना जा रहा है जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को बधाई दी है।

आईसीजे से ब्रिटेन की अनुपस्थिति की अहमियत कोर्ट के साथ दुनिया में ब्रिटेन के प्रभुत्व को लेकर भी है। अदालत में हर तीन सालों में 15 में से पांच जजों के पद पर चुनाव होता है। ब्रिटेन के जज सर क्रिस्टोफर ग्रीनवुड को इस चुनाव में अगले नौ सालों के कार्यकाल के लिए दोबारा निर्वाचित होने की उम्मीद थी। लेकिन इस बार यूएन में लेबनान के पूर्व राजदूत डॉ. नवाफ सलाम ने भी अपनी दावेदारी कर दी। ऐसे में अब पांच पदों के लिए पांच की जगह छह उम्मीदवार दावेदारी कर रहे थे। यूएन में लंबा समय बिताने वाले डॉ. सलाम ने अपने संबंधों के दम पर एशिया के लिए रिजर्व स्लॉट पर कब्जा जमा लिया, ऐसे में भारत के दलवीर भंडारी को उन सीटों पर अपनी दावेदारी करनी पड़ी जो सामान्यत: यूरोपीय जजों के लिए खाली रहती है। ये ब्रिटेन को चुनौती देना था, पांच में से चार सीटों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति होने के बाद दलवीर भंडारी और सर क्रिस्टोफर ग्रीनवुड आमने-सामने थे। भंडारी को सयुंक्त राष्ट्र की आम सभा का समर्थन हासिल था तो वहीं ग्रीनवुड को यूएन सुरक्षा समिति से समर्थन मिल रहा था, परंतु रेस में जीतने वाले को दोनों संस्थाओं की जरूरत थी। ऐसे में कई बार मतदान होने के बाद भी कोई फैसला नहीं निकल सका। भारत सरकार ने इस मामले में भारी मेहनत की और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का सहारा लिया।

ब्रिटेन सरकार भी कूटनीतिक जोर लगाने में पीछे नहीं रही और प्रयास किया गया कि यूएनए का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाए, जिसमें वीटो पावर पाले पांच देश भी शामिल हों जिसका एक सदस्य खुद ब्रिटेन भी है। यूएनए के कई देशों में सुरक्षा समिति, के पास बहुत ज़्यादा ताकत को लेकर नाराजगी चली आ रही है। आतंकवाद, ग्लोबल वार्मिंग, मानवाधिकार सहित अनेक मुद्दों को लेकर यूएन महासभा के बहुत से देश सुरक्षा परिषद् के स्थाई देशों के दोहरे मापदंडों से खिझे हुए हैं और इसकी पूरी संभावना थी कि संयुक्त अधिवेशन में ब्रिटेन को हार का सामना करना पड़ता जो उसके लिए बहुत बड़ी शर्मिंदगी की बात होती।

दूसरी ओर आर्थिक मंदी से गुजर रहे ब्रिटेन ने ऐन मौके पर यह प्रयास छोड़ दिया क्योंकि उसे भारत के साथ संघर्ष में आर्थिक नुकसान दिख रहा था। दूसरे दौर में ब्रिटेन ने अपनी ताकत के बल पर भारत का सामना किया होता तो उसकी चल सकती थी परंतु अब अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में आर्थिक, सामरिक व कूटनीतिक दृष्टि से भारत पहले जैसा नहीं रहा। इसी के चलते ब्रिटेन ने पीछे हटने का फैसला किया ताकि एक अल्पाविधी नुकसान के बदले में लंबे दौर के आर्थिक नुकसान को बचाया जा सके।

भारत की इस जीत को विकासशील देशों की विकसित देशों पर जीत के रूप में भी देखा जा रहा है। निश्चित रूप से अब विकासशील देशों को इस जीत के बाद भारत के रूप में नया नेतृत्व और उत्साह मिलेगा और वे विकसित देशों के सम्मुख अपनी बात को और भी प्रबलता से रख पाएंगे। देश के लिए गौरव की बात है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति व कूटनीति में भारत अमीर देशों को टक्कर देने की स्थिति में पहुंच गया है। अब देखना यह है कि राजनीतिक रूप से बुरी तरह बंटे खुद भारत के अंदर सरकार की इस जीत को कैसे लिया जाता है।

- राकेश सैन

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