छुट्टी और मनोरंजन नहीं मिलने से हताशा बढ़ती है सुरक्षा बलों में

सुरक्षा बलों में बढ़ते मनोरोगों का प्रभाव आतंकवाद विरोधी अभियानों पर तो पड़ ही रहा है उस समय स्थिति और खतरनाक हो जाती है जब मानसिक रूप से पीड़ित जवान द्वारा हताशा की स्थिति में गोलीबारी कर दी जाती है।

-17 सितम्बर 2006: बारामुल्ला के करनाह क्षेत्र में तैनात सेना की एएससी बटालियन के एक जवान ने अपने साथी को इसलिए गोली मार दी क्योंकि उसे छुट्टी मिल गई थी और यह गोली मारने वाले को गंवारा न था। बाद में उसने अपने आपको भी गोली मार कर आत्महत्या कर ली।

-14 सितम्बर 2006: राजौरी में तैनात सेना के जवान रविकुमार ने अपने अधिकारी मेजर हर्षराज सिंह को इसलिए गोली मार दी क्योंकि

 उसने उसे छुट्टी देने से इंकार कर दिया था।

-2 अप्रैल 2006: तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद के सरकारी निवास के बाहर तैनात सीआरपीएफ के सिपाही आनंद कुमार ने भी अपने साथियों पर गोलीबारी कर दो को मार डाला। उसे वरिष्ठ अधिकारी ने छुट्टी देने से इंकार कर दिया था।

-26 जनवरी 2006: केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कांस्टेबल अवतार सिंह ने श्रीनगर के हवल क्षेत्र में स्थित अपनी बटालियन कैम्प के भीतर ही चार जवानों को गोली मार दी। चारों की मौत हो गई और तीन जख्मी हो गए। कारण, छुटटी न मिली तो दिमाग खराब हो गया था।

-2 अक्तूबर 2005: पुंछ के मनकोट इलाके में 49 बिहार रेजिमेंट के एक जवान ने छुट्टी न मिलने पर अपने दो अधिकारियों तथा एक सिपाही साथी को गोली मार दी। तीन अन्य को गंभीर रूप से घायल कर दिया।

-28 नवम्बर 2004: बारामुल्ला में तैनात सीआरपीएफ के जवान डेका ने अपने सात साथियों को गोली मार दी। कारण इस घटना में भी छुट्टी का न मिलना था। हालांकि घटना के प्रति शक इसलिए भी किया जाता रहा है क्योंकि डेका पहले उल्फा से संबंधित रहा था और हथियार डालने के बाद उसे सीआरपीएफ में भर्ती किया गया था।

-28 अप्रैल 2004: बारामुल्ला में ही सीआरपीएफ के एक अन्य जवान ने अपने 6 साथियों की हत्या कर दी।

-जुलाई 2004: बारामुल्ला में सेना के एक जवान ने छुट्टी मंजूर न किए जाने पर गुस्से में आकर अपने कमांडिंग आफिसर ले. कर्नल को ही मार डाला।

-अगस्त 2002: उधमपुर में 4 ग्रेनेडियर के जवान आबिद खान ने छुट्टी न मिलने पर अपने कमांडिंग आफिसर कर्नल सुनील कुमार पाधी को मार डाला।

-अगस्त 2002: बीएसएफ की 127वीं बटालियन के एक जवान ने जम्मू रेलवे स्टेशन पर गोलीबारी कर अपने दो साथियों को मार डाला।

इन घटनाओं को पढ़ कर अब यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जम्मू कश्मीर में तैनात जवानों द्वारा अब छुट्टी न मिले तो ‘गोली मार दे’ को अपनाया जा रहा है और छुट्टी न मिले तो नौकरी छोड़ कर जाने का राग पुराना हो चुका है। वैसे भी उपरोक्त घटनाएं मात्र टिप आफ आइसबर्ग कही जा सकती हैं। जबकि घरेलू कारणों से तंग आकर सेना के भीतर ही आत्महत्या करने के मामलों की फेहरिस्त अगर दी जाए तो शायद खबर लिखने के लिए जगह न बचे।

इसी तरह राजौरी में एक अर्दली ने अपने वरिष्ठ अधिकारी मेजर हर्षकुमार को गोली मार दी का चौंकाने वाला पहलू यह था कि चार-चार आतंकवादियों को अकेले ढेर करने वाले अदम्य साहसी मेजर हर्षराज सिंह को अपने ही अर्दली की गोली का शिकार मात्र इसलिए होना पड़ा था क्योंकि उसने अर्दली को छुट्टी देने से इंकार कर दिया था। 

वैसे यह कोई पहले मामले नहीं थे कश्मीर घाटी में जबकि किसी गुस्साए जवानों ने ऐसा कुछ किया हो। कई घटनाओं में तो मानसिक तनाव के दौर से गुजर रहे जवानों द्वारा 9-10 साथियों की हत्या भी कर डाली गई। इन सबके बावजूद मनोरोगी जवान कश्मीर में तैनात हैं।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आतंकवाद विरोधी अभियानों में लिप्त जवानों द्वारा छोटी छोटी बातों पर अपने अफसरों को गोली मार देने, अपने साथियों के मजाक को सहन न करते हुए उन्हें उड़ा देने और कभी कभार अपने आपको गोली मार देने की घटनाएं अब जम्मू कश्मीर में आम हो गई हैं। अधिकारी मानते हैं कि उनके जवान मानसिक तनाव के दौर से गुजर रहे हैं मगर बावजूद इसके अधिकारी वे कारण नहीं तलाश पाए हैं जिनसे जवानों के सब्र का प्याला छलक जाता है।

इस संदर्भ में चौंकाने वाला एक तथ्य यह है कि सबसे अधिक मनोरोगी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल में ही हैं। दूसरे नम्बर पर सीमा सुरक्षा बल और तीसरे स्थान पर भारतीय सेना आती है। दो वर्ष पूर्व तक मानसिक तनाव के दौर से गुजरने वाले मनोरोगी जवानों की संख्या सारी कश्मीर घाटी में 15000 के लगभग थी। इनमें से अधिकतर का इलाज भी चल रहा था। तनाव घटाने की खातिर उन कारणों को भी तलाश किया जा रहा था जिसने उन्हें ऐसे जोखिम और खतरों से भरे कदम उठाने पर मजबूर कर दिया था।

सुरक्षा बलों में बढ़ती इस प्रवृत्ति के प्रति अधिकारी कहते हैंः ‘हम कारण तलाशने में जुटे हैं। जैसे ही ठोस कारण मिलेंगे निवारण भी हो जाएगा। यह बात अलग है कि वे इससे इंकार नहीं करते कि इन सबमें बड़ा कारण परिवार वालों से एक लम्बे समय से दूरी भी है। असल में कश्मीर में तैनात सुरक्षाकर्मी कई-कई महीनों तक अपने घरों को नहीं जा पाते। ऊपर से आतंकी हमले का खतरा उनके दिलोदिमाग पर छाया रहता है।

नतीजा सबके सामने है। कभी अपने आपको गोली मार ली तो कभी साथी या फिर अधिकारी को। बहाना कोई भी बना लिया गया। लेकिन इतना जरूर देखा गया है कि ऐसा कुछ करने से पूर्व उस जवान का स्वभाव थोड़ा चिड़चिड़ा अवश्य हो जाता रहा है जो मानसिक तनाव के दौर से गुजर रहा होता है।

यह भी देखा गया है कि अधिक हाई रिस्क वाले क्षेत्र में नियुक्ति के बाद भी जवानों का स्वभाव चिड़चिड़ा हुआ है। ऐसा होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण यही गिनाया जा रहा है कि आतंकवादग्रस्त क्षेत्र में वैसे ही उनका जीवन बिना मनोरंजन का हो जाता है। इसमें ऊपरी अफसरों व अनुशासन की कठोरता उन्हें परेशान करती रहती है। और हाई रिस्क जोन में यह कुछ अधिक ही होती है। देखा भी यही गया है कि हाई रिस्क जोन में ऐसी घटनाएं कुछ अधिक ही हुई हैं। 

अधिकारियों ने जो निष्कर्ष निकाला है उसमें यह दो कारण भी जोड़े गए हैं, जिनमें बार-बार छुट्टी मिलने की उम्मीद का टूटना तो होता ही है कई बार कई क्षेत्रों में बिना मूलभूत सुविधायों के ड्यूटी करनी पड़ती है और वह भी कई कई दिनों तक। फिलहाल स्थिति से निपटने के लिए कुछ ठोस नहीं किया गया है। सिवाय इसके कि साथियों को एक दूसरे के हाथों मरने दिया जा रहा है।

आधिकारिक तौर पर इससे इंकार नहीं किया जा रहा है कि कश्मीर में आतंकवाद से जूझ रहे सुरक्षाकर्मियों में से एक अच्छी खासी संख्या मानसिक रूप से बीमार है। आतंकवाद से जूझ रहे जवान शारीरिक बीमरियों से ग्रस्त तो हैं ही मानसिक रूप से भी बीमार हैं। इस संबंध में कोई सर्वेक्षण तो नहीं किया गया है जिससे मानसिक रूप से बीमार सुरक्षाकर्मियों की सही संख्या का पता लगाया जा सके लेकिन एक अनुमान के अनुसार तैनात सुरक्षाकर्मियों में से 15 हजार से अधिक आज मानसिक रोगों से पीड़ित हैं।

पिछले 17 सालों से पाकिस्तान समर्थक आतंकवाद से जूझ रहे सुरक्षाकर्मियों में मानसिक रोगों से ग्रस्त होने वालों की संख्या में दिनोंदिन वृद्धि भी हो रही है जबकि स्थिति यह है कि उनके रोगों का उपचार न किए जाने के कारण कभी-कभी वे पागलपन का शिकार भी हो जाते हैं और यह पागलपन अक्सर अपने साथियों की गोली मार कर हत्याएं करने के रूप में ही सामने आ रहा है।

हालांकि सुरक्षा बलों में बढ़ते मानसिक रोगों के उपचार के लिए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की ओर से कदम भी उठाए गए हैं जिसने अपने जवानों में बढ़ते मानसिक रोगों की रोकथाम के लिए चंडीगढ़ से एक मनोवैज्ञानिक को अब जम्मू में स्थाई रूप से नियुक्त करने का निर्णय लिया गया है। इस बात की जानकारी केरिपुब के अधिकारियों ने दी है जिनके अनुसार सिर्फ केरिपुब में ही 6800 जवान आज मनोरोगों से ग्रस्त हैं। लेकिन केरिपुब द्वारा उन कारणों को दूर करने के प्रयास नहीं किए जा रहे हैं जो मानसिक रोगों को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार हैं।

सुरक्षाकर्मियों में बढ़ते मनोरोग का हालांकि सबसे बड़ा कारण उनके अधिकारी उन पर बढ़ने वाले कार्य के बोझ को बताते हैं जबकि वे इसे भी स्वीकार करते हैं कि अपने परिवार से एक लम्बे समय तक दूर रहने का प्रभाव भी सुरक्षाकर्मियों पर पड़ रहा है जिसके कारण वे मनोरोगों का शिकार हो रहे हैं। कश्मीर में फैले आतंकवाद से निपटने के लिए तैनात सुरक्षा बलों के जवानों में बढ़ते मनोरोग की स्थिति का एक गंभीर तथ्य यह है कि इसके शिकार सिर्फ जवान ही नहीं बल्कि अधिकारी भी हैं।

अधिकारियों के अनुसार, सुरक्षा बलों में बढ़ते मनोरोगों का प्रभाव आतंकवाद विरोधी अभियानों पर तो पड़ ही रहा है उस समय स्थिति और खतरनाक हो जाती है जब मानसिक रूप से पीड़ित जवान द्वारा हताशा की स्थिति में गोलीबारी कर अपने ही दोस्त जवानों या अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है। और इस प्रकार की स्थिति का न सिर्फ कश्मीर में तैनात सुरक्षा बल सामना कर रहे हैं बल्कि जम्मू में भी इस प्रकार की स्थिति का सामना केरिपुब के अधिकारियों को उस समय करना पड़ा था जब हवाई अड्डे पर तैनात एक केरिपुब जवान ने कुछ दिन पूर्व अपने ही साथियों की गोलियां दाग हत्या कर दी थी।

इस प्रकार की स्थिति से बचने के लिए गृह व रक्षा मंत्रालयों द्वारा उपाय करने के निर्देश भी जारी किए गए हैं लेकिन अनेकों कारणों से इन निर्देशों का पालन सुरक्षा बलों द्वारा नहीं किया जा रहा है नतीजतन उन अधिकारियों तथा जवानों पर फिलहाल खतरा मंडरा रहा है जो मानसिक रूप से पीड़ित जवानों के साथ ड्यूटी करने को मजबूर हैं।

यूं तो सेना के जवान भी मानसिक रोगों से पीड़ित हैं लेकिन सेना के अधिकारियों द्वारा तत्काल कदम उठाए गए हैं और न सिर्फ जवानों का मनोचिकित्सक से इलाज करवाया जा रहा है बल्कि उन कारणों को भी दूर करने का तत्काल प्रयास किया जा रहा है जिनके कारण जवान मनोरोग के शिकार हो रहे हैं। पर अन्य सुरक्षा बल जिनमें केरिपुब तथा सीमा सुरक्षा बल भी शामिल हैं, द्वारा कारणों को जड़ से दूर करने के उपाय न किए जाने का परिणाम है कि दोनों ही बल मानसिक रोगों से पीड़ित जवानों को अपने साथ खतरे के रूप में तैनात किए हुए हैं।

यह भी याद रखने योग्य तथ्य है कि मानसिक रोगों के शिकार जवानों से सिर्फ अन्य जवान ही हमेशा खतरे में नहीं रहते हैं बल्कि आम नागरिकों पर भी खतरा मंडराता रहता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कई बार मानसिक रूप से पीड़ित जवान द्वारा अचानक गोलीबारी आंरभ कर दी जाती है। ऐसी कई घटनाएं कश्मीर में हो चुकी हैं।

- सुरेश एस डुग्गर

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