अनूठा है कश्मीरी पंडितों का शिवरात्रि मनाने का तरीका

तीन दिन तक तीन-चार घंटे तक विधिवित् पूजा होती है। तीसरे दिन कलश को प्रवाहित करने का प्रचलन है। पहले मिट्टी के कलश को झेलम में प्रवाहित किया जाता था।

कहने को 28 साल का अरसा बहुत लंबा होता है और अगर यह अरसा कोई विस्थापित रूप में बिताए तो उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह अपनी संस्कृति और परंपराओं को सहेज कर रख पाएगा। पर कश्मीरी पंडित विस्थापितों के साथ ऐसा नहीं है जो बाकी परंपराओं को तो सहेज कर नहीं रख पाए लेकिन शिवरात्रि की परंपराओं को फिलहाल नहीं भूले हैं। आतंकवाद के कारण पिछले 28 वर्ष से जम्मू समेत पूरी दुनिया में विस्थापित जीवन बिता रहे कश्मीरी पंडितों का तीन दिन तक चलने वाले सबसे बड़े पर्व महाशिवरात्रि का धार्मिक अनुष्ठान पूरी आस्था और धार्मिक उल्लास के साथ शुरू हो जाएगा। यह समुदाय के लिए धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व भी है।

जम्मू स्थित कश्मीरी पंडितों की सबसे बड़ी कालोनी जगती और समूचे जम्मू में बसे कश्मीरी पंडितों के घर-घर में पिछले एक हफ्ते से ही पूजा की तैयारी शुरू हो चुकी है। लोग घर की साफ-सफाई और पूजन सामग्री एकत्रित करने में व्यस्त हैं। कश्मीर घाटी में बर्फ से ढके पहाड़ और सेब तथा अखरोट के दरख्तों के बीच मनोरम प्राकृतिक वातावरण में यह पर्व मनाने वाले कश्मीरी पंडित अब छोटे-छोटे सरकारी क्वार्टरों और जम्मू की तंग बस्तियों में धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। शिवरात्रि को कश्मीरी में हेरथ कहते हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हेरथ शब्द संस्कृत शब्द हररात्रि यानी शिवरात्रि से निकला है। नयी मान्यता के अनुसार यह फारसी शब्द हैरत का अपभ्रंश है। कहते हैं कश्मीर घाटी में पठान शासन के दौरान कश्मीर के तत्कालीन तानाशाह पठान गवर्नर जब्बार खान ने कश्मीरी पंडितों को फरवरी में यह पर्व मनाने से मना कर दिया। अलबत्ता उसने सबसे गर्म माह जून-जुलाई में मनाने की अनुमति दी। खान को पता था कि इस पर्व का हिमपात के साथ जुड़ाव है। शिवरात्रि पर जो गीत गाया जाता है, उसमें भी शिव-उमा की शादी के समय सुनहले हिमाच्छादित पर्वतों की खूबसूरती का वर्णन किया जाता है। इसलिए उसने जानबूझकर इसे गर्मी के मौसम में मनाने की अनुमति दी लेकिन गवर्नर समेत सभी लोग उस समय हैरत मे पड़ गये जब उस वर्ष जुलाई में भी भारी बर्फबारी हो गयी। तभी से इस पर्व को कश्मीरी में हेरथ कहते हैं।

पूरे घर की साफ-सफाई करके पूजास्थल पर शिव और पार्वती के दो बड़े कलश समेत बटुक भैरव और पूरे शिव परिवार समेत करीब दस कलशों की स्थापना की जाती है। पहले कुम्हार खासतौर पर इस पूजा के लिए मिट्टी के कलश बनाते थे लेकिन अब पीतल या अन्य धातुओं के कलश रखे जाते हैं। फूल मालाओं से सजे कलश के अंदर पानी में अखरोट रखे जाते हैं।

तीन दिन तक तीन-चार घंटे तक विधिवित् पूजा होती है। तीसरे दिन कलश को प्रवाहित करने का प्रचलन है। पहले मिट्टी के कलश को झेलम में प्रवाहित किया जाता था। अब पास के जलनिकाय पर औपचारिकता की जाती है। कलश में रखे अखरोट का प्रसाद सगे-संबंधी आपस में बांटते हैं।

कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर के अधिकारियों ने बताया कि सामाजिक अलगाववाद के बावजूद कश्मीरी पंडितों ने अपनी धार्मिक परंपरा को जीवंत रखा है। उन्होंने कहा कि अपनी जड़ जमीन से बेदखल हमारे समुदाय के बच्चों की अच्छी शिक्षा और पूजा-पाठ ने परंपरा को बचाये रखा। अभी भी देश-विदेश में बसे इस समुदाय की युवा पीढ़ी भी पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ यह धार्मिक पर्व मनाती है।

- सुरेश एस डुग्गर

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