जनमते कहीं हैं, पलते बढ़ते कहीं हैं और फिर शहर पीछे छूटते चले जाते हैं

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जब से हम वैश्विक नागरिक से होने लगे हैं तब से यह तय कर पाना मुश्किल है कि हम कहां जन्मेंगे, कहां शिक्षा हासिल करेंगे और कहां नौकरी करते हुए बस जाएंगे। जन्म चाहे किसी भी भूखंड में और नौकरी कहीं समंदर पार किया करते हैं।

शहर किसी का भी हो वह हमें ताउम्र प्यारा होता है। बार-बार लौटकर अपने शहर आने का लोभ हम रोक नहीं पाते। कहीं भी रहें। देश दुनिया टहल घूम आएं, लेकिन हर किसी की चाहत होती है कि अपने शहर लौट जाऊं जब अंतिम समय आए। लेकिन वैश्विक नागरिक जब से हुए हैं तब से यह संभव नहीं। जनमते कहीं हैं, पलते−बढ़ते कहीं हैं और रोजगार की तलाश में हमें हमारा शहर पीछे छूटता जाता है। इतना पीछे छूट जाता है कि फिर हमें हमारा शहर समेटा नहीं जाता। हालांकि शहर कोई वस्तु नहीं जिसे पॉकेट में भर लिया जाए। इतना तो ज़रूर हम करते हैं कि उन शहरों की स्मृतियों को अपनी यादों में समेटने की पुरजोर कोशिश करते हैं जब भी हमें अपने शहर लौटने, टहलने का मौका मिलता है। चाहे वह लेखक हों, कवि हों, पत्रकार, व्यापारी, डॉक्टर सब के सब अपने शहर के जुड़े होते हैं।

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बातों ही बातों में लिखने में या कहने में हमारा शहर न चाहते हुए भी जि़ंदा हो जाया करता है। वह तस्लीमा नसरीन हों, सलमान रूश्दी हों, कुलदीप नैय्यर हों, विद्या निवास मिश्र हों आदि। सब के सब ताउम्र अपने शहर लौटने की उम्मीद लिए यहां से कूच कर गए। तस्लीमा नसरीन का अधिकांश लेखन जिसमें ''जाबो न केनेर जाबो ना'', ''फेरा'' आदि में अपने वतन और जन्मस्थली को ढूंढ़ते हुए अटी हुई हैं। वहीं कुलदीप नैय्यर भी कई बार कह चुके वो अपने देश जहां जन्मे वहां जाना चाहते थे। गए भी, लेकिन सब कुछ बदला बदला-सा मंज़र मिला। शायद अंदर से निराश भी हुए। यहां मांग व उम्मीद कितना जायज है कि जो शहर आपकी स्मृतियों में रचा−बसा है। वह सदियों बाद भी वैसा का वैसा ही रहे। यह संभव नहीं। बल्कि यह मांग ही अपने आप में ग़लत कह सकते हैं। विकास की गति में आप ही का शहर क्यों पीछे रहे। क्यों वहां के रहने वालों को बड़ी बड़ी दुकानों, मॉल्स में घूमने, खरीदारी करने से महरूम रहना पड़े। क्यों वहां भी छह और आठ लेन की सड़कें न गुज़रें। क्यों नहीं आपके शहर के लोगों को बड़ी-बड़ी गाडि़यों पर घूमने का शौक पूरा हो। होना चाहिए। दरअसल हम थोड़े से संकुचित हो जाते हैं। बल्कि कहना चाहिए हम अपनी स्मृतियों में ही जीना चाहते हैं। अतीतजीवी होकर हम कहीं न कहीं शहर के विकास और प्रगति को नकारना चाहते हैं।

जब हम अपने शहर में जन्मे तब और अब में खासा बदलाव नज़र आने लगता है। हम उस बदलाव को पचाना नहीं चाहते या उस परिवर्तन के चक्र को रोक देना चाहते हैं। कोई भी शहर, गांव, कस्बा वहीं नहीं रह जाता जैसा आपने बीस तीस साल पहले देखा और जीया था। बदलाव तो वहां भी घटित होंगे ही। वह देश कौन-सा है जहां शहर नहीं बदले। गांव और कस्बे नहीं बदले? तकनीक के कंधे पर चढ़कर हर शहर अपने आप को बाबू और शहरी रंगबाज़ बनना चाहता है। उन्हें हम किस नैतिक आधार पर रोक सकते हैं। जब हम स्वयं महानगर में रहते हुए तमाम सुविधाओं का आनंद उठाने में गुरेज़ नहीं करते तो हम किस आधार पर उन शहरों में खुलने वाले अत्याधुनिक प्रसाधनों, सुविधाओं का विरोध करने का अधिकार रखते हैं जो परिवर्तन के साथ चलना और चलाना चाहते हैं। जिन शहरों में हम लोग जन्मे, बुनियादी तालीम हासिल की तब की स्थितियां एकदम भिन्न थीं। फोटो कॉपी कराना हो तो, फोन करना हो तो, फोटो निकलवाना हो तो काफी श्रम और वक़्त लगा करता था। लेकिन इस बार जब आप या कि हम उस शहर लौटे तो वो सभी सुविधाएं हमें मिलीं जिसकी आदत हमें महानगर में लग चुकी है। हम इस तथ्य और तल्ख हक़ीकत को पचा नहीं पाते कि अरे यहां के लोग भी इन सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। तुर्रा यह कि हमें लगता है हमारा शहर बदल गया। हमारे शहर में मॉल नहीं खुलने थे। हमारे शहर की पुरानी पहचान बरकरार रहें आदि आदि।

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जब से हम वैश्विक नागरिक से होने लगे हैं तब से यह तय कर पाना मुश्किल है कि हम कहां जन्मेंगे, कहां शिक्षा हासिल करेंगे और कहां नौकरी करते हुए बस जाएंगे। जन्म चाहे किसी भी भूखंड में और नौकरी कहीं समंदर पार किया करते हैं। लेकिन ऐसे में अंतिम मिट्टी हमें हमारे शहर की नसीब हो यह कैसे मयस्सर हो सकता है। हालात तो यह हो चुके हैं कि अपने मां−बाप की मृत्यु, शादी आदि अवसरों पर भी हम अपने शहर, अपनों के बीच अपने घर नहीं लौट पाते। और एक टीस मन में लिए डोला करते हैं। काश अंतिम क्षणों में उन्हें मिल आता। तब हमारी ज़ेब और नौकरी तय किया करती हैं हमारी प्राथमिकताएं। कब कहां और किनके बीच जाना है। ऐसे परिवार हमारे बीच हैं जिनके बच्चे प्रदेश में हैं जब वो अपने उम्र के अंतिम पड़ाव में होते हैं तब भी उनके बच्चे उनके पास नहीं हो पाते। यह एक पीर हमें सालती रहती है। लेकिन सच्चाई तो यह भी है ही कि हम समय पर अपने शहर नहीं लौट पाते। वज़हें जो भी हों।

जब कभी जाना हो अपने घर एवं अपने शहर तो ज़रा इन खाली कमरों को ज़रूर देखने का अवसर निकालिएगा। वहां उन अंधेरे कमरों में भी जाने की कोशिश कीजिएगा जहां आप कभी उठा−बैठा करते थे। जिन सोफों पर बैठने के लिए आपस में लडाई होती थी उस सोफे पर अब चूहों, बिल्लियों की धमाचौकड़ी करती मिलेंगी। कोई नहीं बैठता अब आपके बैठकखाने में। कोई बैठा मिलेगा तो बस पुरानी यादें। इन्हीं यादों को संजोए बैठे मिलेंगे हमारे मां−बाप। जो तमाम कमरों को बंद कर एक दो कमरों पर सिमटकर रह गए हैं। क्या करेंगे सारे कमरे खोल कर। कमरे खुलेंगे तो यादें बाहर झांकने लगेंगी। बाहर की हवाओं और धूल से गंदे होंगे। तब कौन साफ−सफाई करेगा। जहां मां−बाप रहा करते हैं उन्हें ही साफ करना उनसे नहीं बनता। बिस्तर पर ही पिछली यात्रा के बैग, सामाना पड़े हैं। उन्हें तो रखा नहीं जा सका। खाली कमरों को कौन दुरुस्त करे।

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इन सूनी आंखों और खाली कमरों को न तो देखने वाला कोई है और न संभालने वाला। यूं ही कभी जाना हो घर तो देख सकते हैं छत भी जगह जगह से पलस्तर छोड़ रहे हैं। पुराने पंखे चलने बंद हो गए हैं। उन्हीं पंखों की जिनके नीचे पूरा घर सोने के लिए मारा मारी किया करता था। अब वे पंखे भी बंद पड़े हैं। मां−बाप से पूछ लिया कि यह क्यों बंद है? लालटेन क्यों ख़्रराब है? या फिर कल, बिजली का मीटर ठीक क्यों नहीं है? आदि तो जवाब मिलेगा अब हमसे नहीं बनता। उम्र सत्तर अस्सी पार है। अपने लिए खाना−पानी, दवा सेवा करें कि इन्हें देखें। कौन सुनेगा? कोई नहीं सुनता। कई बार बिजली आफिस, बैंक का चक्कर काट आए हैं मगर रोज नया बहाना बना देते हैं आज के मैनेजर। तुम्हारे पिता की स्मृतियां भी तो ऐसी ही हो चली हैं। इन्हें संभालें कि खाली घरों को। पैसे लेकर जाते हैं बाजार और पैसे कहां किसे दे आते हैं या गिरा देते हैं। पूछो कि सामान कहां हैं तो बच्चों सा मुंह बना लेते हैं। लगता है पैसे तो दिए थे, लेकिन सामान वहीं छूट गया शायद। कहते कहते मां की बेबसी छलकने लगती है।

तुम लोगों के पास वक़्त कहां है? कोई भी तो नहीं आता। मुहल्ले वाले, आस−पड़ोस वाले, नाते रिश्तेदार सब के सब पूछा करते हैं फलां को तो आए जमाना हो गया। बेटी भी पिछले कई सालों से नहीं आई। कोई नहीं आने वाला। इतना पढ़ाया ही क्यों इन्हें? नहीं पढ़ाते तो कम से कम आपके पास रहते आदि आदि। ऐसे ऐसे तर्कों, कुतर्कों से मां−बाप के कान पक चुके हैं। वो भी कई बार, कई मर्तबा अपने आप को समझा चुके हैं कि बच्चे व्यस्त हैं। सब के सब अपने आफिस और बच्चे में उलझे हुए हैं। लेकिन कभी तो कान में इन बातों का असर तो पड़ता ही है। और मां−बाप कभी कभी उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं।

खाली कमरों, सूनी आंखों की संख्या लंबी है। हर शहर, हर कस्बे में ऐसी कहानी आम मिलेगी। शहर छोटा हो या बड़ा। लेकिन बच्चों का विस्थापन बतौर ज़ारी है। शहर और कस्बे खासकर इस माईग्रेशन से गुजर रहे हैं। शहरों में विकास और निर्माण कार्य देखे जा सकते हैं। पुरानी दुकानें, घर तोड़कर पुनर्निर्माण किया जा रहा है। इन्हीं बनते, टूटते शहर में कुछ कमरे अभी भी तवा रहे हैं, कोई रहने नहीं आता। कोई इनका हाल जानने नहीं आता। यदि किसी दिन मां−बाप में से कोई भी एक खिसका फिर बच्चे भागे भागे आएंगे। यह मेरा कमरा, वहां तेरा कमरा। घर को दो फांक किया जाए। उस कमरे को भी बांटा जाए जिसमें देवता घर हुआ करता है। और औने पौने दामों में घर को बेचने का सिलसिला निकल पड़ता है।

याद आता है कभी पड़ोस के चचा ने अपना घर बेचा। बेचकर सारी रकम बेटे को सौंप दी। और अब आलम यह है कि बीच में कुछ कहानियां बनीं और वापस उसी शहर में आना हुआ। लोगों ने देखा। बातें बनाईं और कहानी फिर चल पड़ी। यह एक ऐसी कहानी थी जिसे सुनकर आंखों में किसी को भी लोर भर आए। लेकिन क्या कीजै जब होनी को होनी थी और हुई भी। उम्र नब्बे साल। पत्नी की उम्र अस्सी साल। अब दोनों उसी शहर में किराए पर रहा करते हैं।

काफी हद तक वैश्विक साहित्य और कला की अन्य विधाएं इन्हीं टीसों और शहर की कहानियों में सनी हुई हैं। वह कहानी, उपन्यास, कविता, यात्रासंस्मरण आदि में कथाकार, कवि अपने अतीत के शहर और पलों को जीया करता है। जिन्हें जीया उन्हें लिखा। जिन्हें लिखा उसे ताउम्र जीने की पढ़ने−पढ़ाने की कोशिश किया करते हैं। जब याद किया करते हैं अपने शहर को तो वह तमाम चीजें आंखों के आगे घूमने लगा करती हैं। सुबह के होते अज़ान और हनुमान चालीसा दोनों की मिश्रित ध्वनियां कानों में एक खास एहसास से भर देते हैं।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

(भाषा एवं शिक्षा शास्त्र विशेषज्ञ)

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