सियाचिन से जीवित लौटना दूसरे जन्म के जैसा होता है

इस सच्चाई के अतिरिक्त कि छह हजार के लगभग सैनिक इस युद्धक्षेत्र में पिछले 33 सालों में शहीद हो चुके हैं, सरकारी आंकड़ा 1022 का है। स्थिति यह है कि इस हिमखंड पर प्रत्येक दो दिनों में एक जवान की मृत्यु हो जाती है।

सियाचिन अर्थात गुलाबों की बगिया। लेकिन उन सैनिकों के लिए यह किसी मौत के मैदान से कम नहीं है जो उस पर मूंछ की लड़ाई को जारी रखने के इरादे से तैनात हैं। इन सैनिकों में वह भाग्यशाली माना जाता है जो विश्व के इस सबसे ऊंचे युद्धस्थल से जीवित वापस लौटता है। और यह भी सच है कि सियाचिन हिमखंड तथा करगिल जैसे बर्फीले रेगिस्तान सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के लिए भी भारी साबित हो रहे हैं।

सियाचिन हिमखंड में चारों ओर साल भर जमी बर्फ पर जीवन का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता और बावजूद इसके उसकी रक्षा के लिए अभी तक भारतीय पक्ष 80 हजार करोड़ से अधिक की राशि फूंक चुका है। इस सच्चाई के अतिरिक्त कि छह हजार के लगभग सैनिक इस युद्धक्षेत्र में पिछले 33 सालों में शहीद हो चुके हैं सरकारी आंकड़ा 1022 का है। स्थिति यह है कि इस हिमखंड पर प्रत्येक दो दिनों में एक जवान की मृत्यु हो जाती है।

शहीद होने वाले सभी जवान दुश्मन की गोलियों का शिकार नहीं हुए बल्कि 90 प्रतिशत को वह प्रकृति लील गई जो इस 22 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित युद्ध के मैदान में किसी भी फौज के लिए सबसे बड़ी शत्रु है। स्थिति यह है कि तीन महीने की अवधि की ड्यूटी पूरी कर बेस कैम्प लेह में जीवित लौटने वाला जवान अपने आप को भाग्यशाली मानता है।

इन सैनिकों के लिए बदनसीबी यह है कि कभी पहले बतौर सजा ऐसे स्थानों पर तैनाती की जाती थी लेकिन अब उन्हें मौत के मुंह में धकेलने की शुरूआत हो चुकी है। जहां तैनात जवानों के लिए ताजा खाना और हरी सब्जियां मात्र सपना हैं। जबकि प्रकृति का कोप कब छा जाए इसकी चिंता और बेरंग मौसम के कारण जवानों की भूख मर जाती है। जिसका परिणाम यह होता है कि तीन महीनों की तैनाती के बाद जीवित लौटने वाले प्रत्येक जवान का भार औसतन 20 किग्रा कम हो जाता है।

सियाचिन हिमखंड के युद्धक्षेत्र की कल्पना मात्र से वे सभी लोग कांप उठते हैं जो एक बार इस पर ड्यूटी निभा कर आते हैं। एक वापस लौटने वाले सेनाधिकारी के शब्दों में: ‘ग्लेशियर पर अगर कोई एक रात काट कर जीवित बच जाता है तो समझो वह परीक्षा में पास हो गया।’

यही नहीं गहन अंधेरे में शून्य से 50 डिग्री नीचे के तापमान में एक चौकी से दूसरी तक का सफर भी कम खतरनाक नहीं है सियाचिन में। चाल इस तरह से रखी जाती है कि पाकिस्तानी सैनिकों से बचने के साथ-साथ प्रकृति की नजर से भी बचा जाए ताकि वह कहीं किसी को निगल न जाए। नतीजतन सियाचिन में दूरी को घंटों में नापते हैं क्योंकि एक घंटे में सिर्फ 250 मीटर की दूरी ही पार की जा सकती है।

देखा जाए तो सियचिन का युद्ध वायुसेना के दम पर ही लड़ा जा रहा है और वायुसेना के दम पर ही यह क्षेत्र भारतीय कब्जे में है। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि कभी न जीती जा सकने वाली सियाचिन की लड़ाई पर प्रति वर्ष वायुसेना 2400 करोड़ रूपया खर्च कर रही है। पिछले 33 सालों में 80 हजार करोड़ के लगभग राशि को वायुसेना सियाचिन के लिए खर्च कर चुकी है।

भारतीय वायुसेना के पास जितने भी चीता हैलिकाप्टर हैं उनमें से 95 प्रतिशत आज सियाचिन की ड्यूटी पर तैनात हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यही एकमात्र ऐसा हैलिकाप्टर है जो 18 से 22 हजार फुट की ऊंचाई पर उड़ान भर सकता है और एक घंटे की उड़ान पर एक लाख रूपया खर्च कर यह हैलिकाप्टर एक लाख रूपयों में 20 लिटर मिट्टी का तेल सियाचिन में पहुंचाता है।

ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार की परिस्थितियों से सिर्फ भारतीय सेना और भारत ही जूझ रहा हो बल्कि पकिस्तान तथा पाक सेना भी ठीक इसी प्रकार की परिस्थितियों से दो-चार है। अंतर सिर्फ इतना है कि उसे उतनी ऊंचाई पर नहीं जाना पड़ता क्योंकि उसका मैदानी इलाका अधिक दूर नहीं है। लेकिन इतना अवश्य है कि प्रकृति का कोप उसे भी नहीं बख्शता है क्योंकि प्राकृतिक कोप की नजर में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता है। इस बेमायने की जंग को रोकने के प्रयास तो किए गए हैं मगर मूंछ की लड़ाई में कौन पहले अपनी मूंछ को नीचे करे बात इसी पर आकर अटक जाती है। सात दौर हो चुके हैं इस हिमखंड से सेना को हटा कर सैनिकों को इस काल से छुटकारा दिलवाने के लिए।

यह भी सच है कि लगातार तीन महीनों तक सुर्खियों में रहने वाला करगिल भी अब भारत तथा पाकिस्तान के लिए भारी साबित हो रहा है। करगिल ही नहीं सियाचिन हिमखंड भी दोनों देशों के लिए भारी साबित हो रहा है। सिर्फ खर्चों के मामले में ही नहीं बल्कि भयानक सर्दी में आने वाले बर्फीले तूफानों तथा अन्य कारणों से होने वाली सैनिकों की मौतों के कारण भी यह दोनों देशों के लिए भारी साबित हो रहा है।

आधिकारिक तौर पर अब इसकी पुष्टि की गई है कि अभी तक भयानक सर्दी के कारण होने वाली बीमारियों तथा उक्त क्षेत्र में आने वाले बर्फीले तूफानों में जान गंवाने वाले भारतीय सैनिकों की संख्या रिकार्ड बनाने लगी है। हालांकि पाकिस्तानी पक्ष की संख्या इससे अधिक बताई जा रही है।

हालांकि सियाचीन हिमखंड में भी ऐसी ही परिस्थितियां हैं लेकिन वहां तथा करगिल के हालात को पूरी तरह से अलग निरूपित किया जा रहा है। सैनिक सूत्रों के अनुसार, करगिल में भारतीय सैनिकों की यह पहली तैनाती है और तैनाती भी ऐसी परिस्थितियों में हुई थी कि अभी तक उन्हें पूरा सैनिक साजो सामान भी मुहैया नहीं करवाया जा सका है जो ऐसे क्षेत्रों में चौकसी तथा सतर्कता बरतने के लिए आवश्यक होता है।

मई 1999 में आरंभ हुए करगिल युद्ध के उपरांत भारतीय सेना को करगिल की 140 किमी लंबी नियंत्रण रेखा की सुरक्षा के लिए तैनात कर दिया गया था। तभी से लेकर आज तक करीब 105 भारतीय सैनिकों की मृत्यु सिर्फ मौसम के कारण हो चुकी है। जबकि 960 से अधिक ऐसे रोगों का शिकार हो चुके हैं जो उन्हें अपंगता की ओर ले जाते हैं।

वैसे सैनिकों को ऐसी परिस्थितियों से बचाने की खातिर भारतीय सेना ने सर्दियों में करगिल के कुछ भयानक सर्दी वाले क्षेत्रों में से सैनिकों को हटाने का निर्णय लिया था लेकिन पाकिस्तानी पक्ष द्वारा इन क्षेत्रों में अपनी तैयारी को बढ़ाने के कारण उन्हें अपना निर्णय बदलना पड़ा था। हालांकि मौसम की परिस्थितियों से सिर्फ भारतीय सेना ही नहीं जूझ रही है बल्कि पाकिस्तानी सेना भी ऐसी परिस्थितियों के दौर से गुजर रही है लेकिन बावजूद इसके वह अपने सैनिकों को पीछे हटाने को तैयार नहीं है।

सिर्फ सैनिकों की जानों के संबंध में ही नहीं बल्कि खर्चों के हिसाब से भी दोनों पक्षों को करगिल बहुत ही महंगा साबित हो रहा है। रक्षा सूत्रों के अनुसार, सियाचिन हिमखंड की रक्षार्थ प्रतिदिन होने वाले खर्च का दोगुना खर्च इस क्षेत्र में इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि सियाचिन क्षेत्र मात्र 90 किमी के क्षेत्रफल में फैला हुआ है और करगिल की नियंत्रण रेखा 140 किमी तक फैली हुई है जिसमें द्रास जैसा सबसे ठंडा विश्व का दूसरा ऐसा क्षेत्र है जहां लोग निवास करते हैं।

इसके अतिरिक्त करगिल की सीमा की रक्षार्थ भारतीय सेना को बहुत ही अधिक तैयारी इसलिए करनी पड़ी है क्योंकि इस क्षेत्र से राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरता है जो लेह-लद्दाख क्षेत्र के अतिरिक्त सियाचिन हिमखंड के लिए भी महत्वपूर्ण मार्ग है। और इसे भूला नहीं जा सकता कि करगिल युद्ध के दौरान पाक सेना का मुख्य मकसद इसी राजमार्ग को क्षति पहुंचाना था।

फिलहाल स्थिति यह है कि करगिल में सैनिकों की तैनाती जान व माल की क्षति के रूप में दोनों ही देशों को भारी साबित हो रही है परंतु बावजूद इसके दोनों ही पक्ष वहां से सैनिकों की वापसी को तैयार इसलिए नहीं हैं क्योंकि सियाचिन हिमखंड की ही तरह अब करगिल में सैनिकों की तैनाती मूंछ की लड़ाई का रूप धारण कर चुकी है। जबकि यह कड़वी सच्चाई है कि इस मूंछ की लड़ाई के लिए भारतीय पक्ष को प्रतिदिन दस करोड़ रूपयों का बोझ उठाना पड़ रहा है। हालांकि पाकिस्तानी सेना का भी लगभग इतना ही खर्च इस क्षेत्र में हो रहा है।

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