यह सही समय है जब एमएसपी व्यवस्था को युक्तिसंगत बना सकती है सरकार

Farmers celebrate

कई दशकों से चली आ रही एमएसपी व्यवस्था के बावजूद अभी एमएसपी के नाम पर ले देकर किसान गेहूं, चावल, कपास, गन्ना, सरसों, सोयाबीन, मूंगफली ही बेचते हैं और अब पिछले कुछ सालों की बात करें तो मूंग-उड़द की बात भी की जा सकती है।

हालांकि केन्द्र सरकार ने कृषि कानूनों को वापिस ले लिया है पर किसान अभी भी एमएसपी को लेकर डटे हुए हैं। आजादी के 75 साल बाद भी एमएसपी पर खरीद कुछ फसलों तक ही सीमित है। वहीं एमएसपी व्यवस्था को युक्ति संगत बनाना आज भी आवश्यक है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसानों को मुख्य धारा में लाने के लिए एमएसपी व्यवस्था कारगर सिद्ध हो सकती है। समर्थन मूल्य पर खरीद व्यवस्था को कुछ फसलों तक ही खरीद के दायरे से बाहर निकालना होगा। अन्नदाता को आर्थिक विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लाख दावे किए जाते रहे हों पर वह दिन अभी दूर की कौड़ी ही है जब देश का अन्नदाता अपनी मेहनत से तैयार उपज का भाव स्वयं तय कर सके।

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कई दशकों से चली आ रही एमएसपी व्यवस्था के बावजूद अभी एमएसपी के नाम पर ले देकर किसान गेहूं, चावल, कपास, गन्ना, सरसों, सोयाबीन, मूंगफली ही बेचते हैं और अब पिछले कुछ सालों की बात करें तो मूंग-उड़द की बात भी की जा सकती है। दुनिया आज मोटे अनाज को लेकर गंभीर हुई है और मोटे अनाज को बढ़ावा देने की बात की जा रही है वहीं बाजरा आदि मोटे अनाज की खरीद एमएसपी पर कोसों दूर है। नेशनल सेंपल सर्वे की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 2019 के दौरान देश में सिर्फ पांच फसलों की खरीद ही दस प्रतिशत से ज्यादा रही है। हालांकि गेहूं, चावल, गन्ना और कपास की खरीद अधिक मात्रा में होती रही है। पिछले कुछ सालों में एमएसपी दरों में अच्छी खासी बढ़ोत्तरी हुई है तो दूसरी ओर कृषि लागत में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई है। इसलिए एमएसपी बढ़ने के बावजूद अधिक लाभ वाली बात नहीं है। यही कारण है कि नए कृषि कानूनों के चलते सबसे मुखर आवाज उभर कर आई है तो वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की व्यवस्था को लेकर हुई है। सरकार का दावा है कि नए कानूनों के बावजूद एमएसपी पर खरीद व्यवस्था जारी है और जारी रहेगी, वहीं किसानों की पैरवी करने वाले सभी संगठन एमएसपी को लेकर अधिक मुखर हैं। एमएसपी को लेकर देश में भ्रम की स्थिति बनी हुई है। हालांकि एमएसपी को लेकर लाख संदेहों के बावजूद देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद जारी है।

यह सही है कि पिछले कुछ सालों से फसल की बुवाई के समय या उसके आसपास ही फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा की जाने लगी है। इससे पहले देरी से एमएसपी की घोषणा को लेकर विवाद होता रहता था और यह कहा जाता था कि समय पर एमएसपी की घोषणा नहीं होने से किसान अच्छे मूल्य वाली फसलों की बुवाई से वंचित रह जाता था। हालांकि अब हालातों में सुधार आया है। पर सवाल अभी भी वहीं का वहीं है। अन्नदाता में अभी भी एमएसपी को लेकर वह जागरूकता नहीं है जो उसमें होनी चाहिए। इसका एक बड़ा कारण देश में खेती के लिए चली आ रही संस्थागत ऋण व्यवस्था है। देश की संस्थागत वित्तदायी संस्थाएं आजादी के सात दशक बाद भी सभी किसानों की खेती के लिए आवश्यक वित्त व्यवस्था करने में विफल रही हैं और यही कारण है कि आज भी बड़ी संख्या में काश्तकारों की रुपयों, पैसों की जरूरत पूरी करने के लिए गैर संस्थागत ऋण दाताओं खासतौर से साहूकारों पर निर्भरता बनी हुई है। लाख दावे किए जाते हों पर सहकारी ऋण व्यवस्था में झोल आज भी बना हुआ है। वैसे सहकारी बैंक संसाधनों की कमी के चलते सभी किसानों की ऋण जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। इस कारण से किसानों की निर्भरता अन्य स्रोतों पर बनी हुई है। यही कारण है कि किसानों से ही खरीद का दावा करने के बावजूद किसानों की मेहनत का बहुत बड़ा हिस्सा इन साहूकारों या गैर संस्थागत ऋणदाताओं की झोली में चला जाता है और किसान अपने आपको ठगा महसूस करता है।

सरकार द्वारा खरीफ और रबी के लिए फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर घोषणा की जाती है। गेहूं आदि खाद्यान्नों की खरीद की जिम्मेदारी जहां भारतीय खाद्य निगम के पास है तो दलहनी और तिलहनी फसलों की खरीद की जिम्मेदारी नेफैड ने संभाल रखी है। कपास की खरीद कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया द्वारा तो गन्ने की खरीद गन्ना मिलों द्वारा की जा रही है। कुछ प्रदेशों में राज्य की संस्थाओं द्वारा भी वाणिज्यिक दरों के साथ ही बाजार हस्तक्षेप योजना के तहत खरीद की जाती है पर यह नाममात्र की ही हो पाती है। भारतीय खाद्य निगम और नेफैड हालांकि बदली परिस्थितियों में यह दोनों ही संस्थाएं खरी नहीं उतरी हैं और यही कारण है कि नेफैड जहां लड़खड़ाती हुई जैसे तैसे चल रही है वहीं भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन पर भी विचार की चर्चा यदा कदा चलती रही है। ले देकर के देश में गेहूं और चावल की ही एमएसपी पर अधिक व समय पर खरीद होती है। इसकी खरीद के पीछे भी एक दूसरा बड़ा कारण सरकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली की बाध्यता भी है।

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सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गेहूं और चावल आदि उपलब्ध कराने होते हैं। इसके लिए सरकार के पास बड़ा सहारा एमएसपी पर खरीद व्यवस्था ही है। हालांकि कोरोना महामारी के दौर में खाद्यान्नों की उपलब्धता व्यवस्था पूरी तरह से खरी उतरी है। सरकारी गोदामों में गेहूं व चावल के भण्डारों के चलते केन्द्र व राज्य सरकारों ने जरूरतमंद लोगों को मुफ्त राशन सामग्री उपलब्ध कराने में कोई कोताही नहीं बरती और परिणाम सामने है। देश में कोरोना लॉकडाउन व उसके अलावा भी राशन सामग्री उपलब्ध कराने में किसी तरह की परेशानी नहीं हुई। पूरी निष्पक्षता के साथ कहा जा सकता है कि इसका श्रेय अन्नदाता की मेहनत और सरकार की एमएसपी व्यवस्था को ही जाता है।

आज भी देश की एमएसपी खरीद व्यवस्था ले देकर गेहूं, धान, कपास, गन्ना, सरसों आदि तक सीमित हो कर रह गई है। जबकि 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष मनाने की तैयारियां जोरों से चल रही हैं। मोटे अनाज का महत्व समझा जाने लगा है। ऐसे में मोटे अनाज का लाभकारी मूल्य मिले यह सुनिश्चित करना भी सरकारों की जिम्मेदारी हो जाती है ताकि किसान स्वयं आगे आकर मोटे अनाज की पैदावार लेने के प्रति प्रेरित हों। सरकारों को इस ओर सोचना ही होगा। आज राजस्थान सहित उत्तरी भारत के राज्यों में बाजरे की समर्थन मूल्य पर खरीद की मांग की जा रही है। होना तो यह चाहिए कि जिस भी फसल का समर्थन मूल्य घोषित हो उसके भाव बाजार में कम होते ही खरीद आरंभ हो जाए तो समस्या का समाधान बहुत आसानी से हो सकता है।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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