समस्याओं को हल नहीं करना चाहते युवा, विदेश जाना चाहते हैं

मनोज ज्वाला । Feb 13 2017 1:43PM

माना कि हमारे देश में तरह-तरह की समस्यायें हैं, किन्तु इनसे जूझने की बजाय पलायन करने अथवा कोरा लफ्फाजी करने कि हमें प्रधानमंत्री बना दिया जाए तो देश को सुंदर बना देंगे, अति महात्वाकांक्षा-युक्त मानसिक असंतुलन का ही द्योत्तक है।

20 दिसम्बर 2016 के हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित उसके एक सर्वेक्षण पर गौर करने की जरूरत है, जिसमें बताया गया है कि हमारे देश के पढ़े-लिखे और शहरी नवजवानों में से आधे से अधिक ऐसे हैं, जो अपने भारत देश को पसंद नहीं करते; वे विदेशों में जाकर बस जाना चाहते हैं। उनमें से 75% युवाओं का कहना है कि वे किसी तरह बे-मन से और मजबूरीवश भारत में रह रहे हैं। 62.9 % युवतियों और 66.01 % युवाओं का मानना है कि इस देश में उनका भविष्य ठीक नहीं है, क्योंकि यहां अच्छे दिन आने की सम्भावना कम ही है। उनमें से ५०% का मानना है कि भारत में किसी महापुरुष का अवतरण होगा तभी हालात सुधर सकते हैं, अन्यथा नहीं; जबकि 40% युवाओं का मानना है कि उन्हें अगर इस देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाए, तो वे पांच साल में इस देश का काया-पलट कर देंगे।

अखबार का यह सर्वेक्षण बिल्कुल सही है, बल्कि मेरा तो यहां तक मानना है कि और व्यापक स्तर पर अगर सर्वेक्षण किया जाता, तो देश छोड़ने को तैयार युवाओं का प्रतिशत और अधिक बढ़ा हुआ दिखता। यह सर्वेक्षण तो सिर्फ शहरों तक सीमित है, जबकि अपने देश में गांवों पर भी तेजी से शहर छाते जा रहे हैं, गांव के लोगों की सोच भी शहरी सोच से प्रभावित हो रही है। खास कर युवाओं में अनुकरण और पलायन की प्रवृति ज्यादा बढ़ रही है।

गौर कीजिए कि देश छोड़ने को तैयार ये युवा पढ़े-लिखे हैं और शहरों में पले-बढ़े हुए हैं। ये किस पद्धति से किस तरह के विद्यालयों में क्या पढ़े-लिखे हैं और किस रीति-रिवाज से कैसे परिवारों में किस तरह से पले-बढ़े हैं, यह ज्यादा गौरतलब है। किन्तु यह जानने के लिए हमें अपना दिमाग ज्यादा खपाने की जरूरत नहीं है। विद्यालय सरकारी हों या गैर सरकारी, सबमें शिक्षा की पद्धति एक है और वह है मैकाले-अंग्रेजी पद्धति। शिक्षा का माध्यम हिन्दी-अंग्रेजी कोई भी भाषा हो, पद्धति सबकी एक ही है- मैकाले-अंग्रेजी पद्धति; क्योंकि इसी पद्धति को सरकारी मान्यता प्राप्त है, सरकार का पूरा तंत्र इसी पद्धति की शिक्षा के विस्तार में लगा हुआ है। वैसे अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय सबसे अच्छे माने जाते हैं। गैर सरकारी निजी क्षेत्र के अधिकतर विद्यालय अंग्रेजी माध्यम के ही हैं। शहरों में ऐसे ही विद्यालयों की भरमार है और जिन युवाओं के बीच अखबार ने उपरोक्त सर्वेक्षण किया उनमें से सर्वाधिक युवा ऐसे ही ‘उत्कृष्ट’ विद्यालयों से पढ़े-लिखे हुए हैं। अब रही बात यह कि इन विद्यालयों में आखिर शिक्षा क्या और कैसी दी जाती है, तो यह इन युवाओं की उपरोक्त सोच से ही स्पष्ट है। जाहिर है उन्हें शिक्षा के नाम पर ऐसी-ऐसी डिग्रियां दी जाती हैं, जिनके कारण वे या तो निकम्मे बेरोजगार आरामतलबी महात्वाकांक्षी स्वार्थी बन असंतोष अहंकार खीझ पलायन जैसी मानसिक बीमारियों एवं हीनता-बोध से ग्रसित हो जाते हैं, अथवा कमाने-खाने भर थोड़े-बहुत ज्ञान-हुनर हासिल कर भी लेते हैं, तो उसके परिणाम-स्वरूप स्वभाषा व स्वदेश के प्रति ‘नकार’ भाव से पीड़ित और अमेरिका यूरोप आदि विदेशों की ओर उन्मुख हो जाते हैं।

प्रसंगवश मुझे अहमदाबाद में प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति का एक गुरुकुल चलाने वाले प्रयोगधर्मी शिक्षाविद उत्तम भाई की वो बातें याद आ रही हैं, जो उन्होंने पिछले साल पुनरुत्थान विद्यापीठ नामक एक स्वैच्छिक संस्था की ओर से वहां आयोजित शिक्षा-विषयक एक संगोष्ठी के दौरान व्यक्तिगत भेंटवार्ता में कही थी और जिसकी चर्चा वे प्रायः किया करते हैं। वे कहते हैं- ''जहां डिग्री है, वहां अंग्रेज है, हर डिग्रीधारी अपने मन-मिजाज से अंग्रेज है और जिसके पास जितनी बड़ी डिग्री है, वह उतना ही ज्यादा अंग्रेज है”। अपने बच्चों को डिग्रियां देने वाले आधुनिक स्कूलों से निकाल कर उन्हें घर में ही अनौपचारिक शिक्षा देने के पश्चात पिछले दस वर्षों से ‘डिग्री-मुक्त’ गुरुकुल- हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला चलाने वाले उत्तम भाई का मानना है कि ब्रिटिश जमाने से हमारे देश में कायम मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति यहां के युवाओं को देश-द्रोही, राष्ट्र-द्रोही तथा धर्म-संस्कृति-विरोधी और भ्रष्टाचारी बना रही है। हिन्दुस्तान टाइम्स के उपरोक्त सर्वेक्षण से न केवल उत्तम भाई की यह उक्ति सत्य प्रमाणित हो रही है, बल्कि हमारी मौजूदा शिक्षा-पद्धति के जनक थामस मैकाले की कुटिल कूटनीति भी पूरे रौब से फलित होती दिख रही है।

मालूम हो कि थामस विलिंग्टन मैकाले कोई शिक्षा-शास्त्री नहीं था बल्कि एक षड्यंत्रकारी था, जिसने भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की जड़ें जमाने की नीयत से भारत की धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-आधारित भारतीय शिक्षा-पद्धति की जड़ें उखाड़ कर इस मौजूदा शिक्षा-पद्धति को प्रक्षेपित किया था, जो आज भी उसी रूप में कायम है। ३० अक्तूबर सन १९३० को लन्दन के रायल इंस्टिच्युट आफ फौरन अफेयर्स के मंच से महात्मा गांधी ने जो कहा था कि अंग्रेजी शासन से पहले भारत की शिक्षा-व्यवस्था इंग्लैण्ड से भी अच्छी थी, उस पूरी व्यवस्था को सुनियोजित तरीके से समूल नष्ट कर देने के पश्चात ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की जरूरतों के अनुसार उसके रणनीतिकारों ने लम्बे समय तक बहस-विमर्श कर के मैकाले की योजनानुसार यह शिक्षा-पद्धति लागू की थी। मैकाले की योजना यही थी, जिसके बाबत उसने ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की ततविषयक समिति के समक्ष कहा था ''हमें भारत में ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करना चाहिए, जो हमारे और उन करोड़ों भारतवासियों के बीच, जिन पर हम शासन करते हैं उन्हें समझाने-बुझाने का काम कर सके; जो केवल खून और रंग की दृष्टि से भारतीय हों, किन्तु रुचि, भाषा व भावों की दृष्टि से अंग्रेज हों”।

भारत छोड़ विदेशों में बस जाने को उतावले इन यवाओं ने पूरी मेहनत व तबीयत से मैकाले शिक्षा-पद्धति को आत्मसात किया है, ऐसा समझा जा सकता है। यहां प्रसंगवश मैकाले के बहनोई- चार्ल्स ट्रेवेलियन द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की एक समिति के समक्ष ‘भारत में भिन्न-भिन्न शिक्षा-पद्धतियों के भिन्न-भिन्न परिणाम’ शीर्षक से प्रस्तुत किये गए एक लेख का यह अंश भी उल्लेखनीय है कि ''मैकाले शिक्षा-पद्धति का प्रभाव अंग्रेजी राज के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह सकता, … हमारे पास उपाय केवल यही है कि हम भारतवासियों को यूरोपियन ढंग की उन्नति में लगा दें... इससे हमारे लिए भारत पर अपना साम्राज्य कायम रखना बहुत आसान और असंदिग्ध हो जाएगा”। ऐसा ही हुआ, किन्तु इतना ही नहीं हुआ, जितना मैकाले का लक्ष्य था; बल्कि उसकी योजना तो लक्ष्य से ज्यादा ही सफल रही।

हमारे देश के मैकालेवादी राजनीतिकारों ने अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की समाप्ति के बाद भी उनकी अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति को न केवल यथावत कायम ही रखा, बल्कि उसे और ज्यादा अभारतीय रंग-ढंग में ढाल दिया। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-लक्षी प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति को अतीत के गर्त में डाल कर शिक्षा को उत्पादन-विपणन-मुनाफा-उपभोग-केन्द्रित बना देने और उसे नैतिक सांस्कृतिक मूल्यों से विहीन कर देने तथा राष्ट्रीयता के प्रति उदासीन बना देने का ही परिणाम है कि हमारी यह युवा पीढी महज निजी सुख-स्वार्थ के लिए अपने देश-राष्ट्र से विमुख हो जाना पसंद कर रही है, उसे विदेशों में ही अपना भविष्य दिख रहा है। माना कि हमारे देश में तरह-तरह की समस्यायें हैं, किन्तु इनसे जूझने और इन्हें दूर करने के बजाय पलायन कर जाने अथवा कोरा लफ्फाजी करने कि हमें प्रधानमंत्री बना दिया जाए तो हम देश को सुंदर बना देंगे, अति महात्वाकांक्षा-युक्त मानसिक असंतुलन का ही द्योत्तक है। लेकिन आधे से अधिक ये शहरी युवा मानसिक रूपसे असंतुलित नहीं हैं, बल्कि असल में वे पश्चिम के प्रति आकर्षित हैं और इसके लिए हमारे देश की चालू शिक्षा-पद्धति का पोषण करने वाले हमारे नीति-नियंता जिम्मेवार हैं। यह ‘यूरोपीयन ढंग की उन्नति’ के प्रति बढ़ते अनावश्यक आकर्षण का परिणाम है। इस मानसिक पलायन को रोकने के लिए जरूरी है कि हम अपने बच्चों को हमारे राष्ट्र की जड़ों से जोड़ने वाली और संतुलित समग्र मानसिक विकास करने वाली प्राचीन भारतीय पद्धति से भारतीय भाषाओं में समस्त ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने की सम्पूर्ण व्यवस्था कायम करें।

मनोज ज्वाला

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