महाशिवरात्रि पर इस तरह करें देवों के देव महादेव का व्रत और पूजन
भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा परम कल्याणमय हैं। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया शक्ति में भगवान शिव के जैसा कोई नहीं है।
महाशिवरात्रि का व्रत फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता है जोकि इस साल 11 मार्च को पड़ रही है। मान्यता है कि सृष्टि के प्रारम्भ में इसी दिन मध्य रात्रि भगवान शंकर का ब्रह्म से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा परम कल्याणमय हैं। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया शक्ति में भगवान शिव के जैसा कोई नहीं है। वे सभी के मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियन्ता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के सम्पूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान, विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं। देवों के देव महादेव के इस व्रत का विशेष महत्व है। इस व्रत को हर कोई कर सकता है।
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इस तरह करें पूजा
त्रयोदशी को एक बार भोजन करके चतुर्दशी को दिन भर निराहार रहना पड़ता है। पत्र पुष्प तथा सुंदर वस्त्रों से मंडप तैयार करके वेदी पर कलश की स्थापना करके गौरी शंकर की स्वर्ण मूर्ति तथा नंदी की चांदी की मूर्ति रखनी चाहिए। कलश को जल से भरकर रोली, मोली, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलाइची, चंदन, दूध, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेल पत्र आदि का प्रसाद शिव को अर्पित करके पूजा करनी चाहिए। रात को जागरण करके चार बार शिव आरती का विधान जरूरी है। दूसरे दिन प्रातः जौ, तिल, खीर तथा बेलपत्र का हवन करके ब्राह्मणों को भोजन करवाकर व्रत का पारण करना चाहिए।
समस्त बाधाओं का इस तरह करें निवारण
शिवरात्रि के प्रदोष काल में स्फटिक शिवलिंग को शुद्ध गंगा जल, दूध, दही, घी, शहद व शक्कर से स्नान करवाकर धूप−दीप जलाकर निम्न मंत्र का जाप करने से समस्त बाधाओं का अंत होता है। शिवरात्रि को एक मुखी रूद्राक्ष को गंगाजल से स्नान करवा कर धूप−दीप दिखा कर तख्ते पर स्वच्छ कपड़ा बिछाकर स्थापित करें। शिव रूप रुद्राक्ष के सामने बैठ कर सवा लाख मंत्र जप का संकल्प लेकर जाप आरंभ करने से काफी लाभ होता है। शिवरात्रि को रुद्राष्टक का पाठ करने से शत्रुओं से मुक्ति मिलती है तथा मुक़दमे में जीत व समस्त सुखों की प्राप्ति होती है।
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ध्यान रखने योग्य कुछ बातें
- भगवान शंकर पर चढ़ाया गया नैवेद्य खाना निषिद्ध है। मान्यता है कि जो इस नैवेद्य को खाता है वह नरक को प्राप्त होता है। यदि गलती से भगवान शिव को चढ़ा हुआ नैवेद्य खा लिया है तो इस कष्ट के निवारण के लिए शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम की मूर्ति रखिये। यदि शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम की मूर्ति होगी तो नैवेद्य खाने पर कोई दोष नहीं लगेगा।
- शिव पूजा में केतकी पुष्प का निषेध है। पौराणिक ग्रंथों में कहा गया है कि एक बार ब्रह्मा-विष्णु में परस्पर विवाद हुआ कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? उसी समय एक अखण्ड ज्योति लिंग के रूप में प्रकट हुई तथा आकाशवाणी हुई कि आप दोनों इस लिंग के ओर−छोर का पता लगायें। जो पहले पता लगायेगा, वही श्रेष्ठ होगा। विष्णु पाताल की ओर गये और ब्रह्मा ऊपर की ओर। विष्णु थक कर वापस आ गये। ब्रह्माजी शिव के मस्तक से गिरे हुये केतकी पुष्प को लेकर ऊपर से लौट आये और विष्णु से कहा कि यह केतकी पुष्प मैंने लिंग के मस्तक से प्राप्त किया है। केतकी पुष्प ने भी ब्रह्मा के पक्ष में विष्णु को असत्य साक्ष्य दिया। इस पर भगवान शिव प्रकट हो गये और उन्होंने असत्यभाषिणी केतकी पर क्रुद्ध होकर उसे सदा के लिए त्याग दिया। तब ब्रह्माजी ने भी लज्जित होकर भगवान विष्णु को नमस्कार किया। उसी दिन से भगवान शंकर की पूजा में केतकी पुष्प के चढ़ाने का निषेध हो गया।
भगवान शिव की महिमा अपरमपार है
भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा परम कल्याणमय हैं। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया शक्ति में भगवान शिव के जैसा कोई नहीं है। भगवान शिव सभी के मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियन्ता होने के कारण महेश्वर भी कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करने वाले हैं।
महाशिवरात्रि व्रत कथा
पार्वती जी के द्वारा प्रश्न किए जाने पर भगवान शंकर जी ने महाशिवरात्रि व्रत की मुक्तिदायिनी महत्ता बताई तथा इसी से संबंधित एक कथा सुनाई− प्राचीन समय में एक नृशंस बहेलिया था, जो नित्य प्रति अनगिनत निरपराध जीवों को मारकर अपने परिवार का पालन−पोषण करता था। वह एक बार सेठ को रुपया देने में असमर्थ होने के कारण शिव मठ में बंदी बना। वह दिन फाल्गुन त्रयोदशी का था इसलिए मंदिर में अनेक कथाएं हो रही थीं। उस व्याध ने उन कथाओं को सुनते हुए शिवरात्रि व्रत की भी कथा सुनी। सेठ ने उसे एक दिन की मोहलत देकर छोड़ दिया। दूसरे दिन चतुर्दशी को वह बहेलिया पूर्व की तरह वन में शिकार के लिए चला गया।
पूरे जंगल में विचरण करने पर भी जब उसे कोई नहीं मिला तो वह परेशान होकर एक तालाब के किनारे रहने लगा। उसी स्थान पर एक बेल के वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित था। बहेलिया ने उसी वृक्ष की शाखा पर चढ़कर अपनी आवासल्ली बनाने के लिए बेलपत्रों को तोड़ते हुए शिवलिंग को आच्छादित कर दिया। दिन भर की भूख से व्याकुल उस बहेलिये का एक प्रकार से शिवरात्रि व्रत पूरा हो गया। कुछ रात बीत जाने पर एक गर्भित हिरणी उधर कुलाचे भरती आई। उसे देखते ही बहेलिया ने निशाना लगाया। झिझकती, भयाकुल हिरणी दीन वाणि में बोली कि हे व्याध! मैं अभी गर्भिणी हूं, प्रसव बेला भी समीप है इसलिए इस समय मुझे मत मारो। प्रजनन क्रिया के बाद शीघ्र ही आ जाऊंगी।
बहेलिया उसकी बातों को मान गया। थोड़ी रात बीत जाने पर एक दूसरी हिरणी उस स्थान पर आई। पुनः बहेलिया के निशाना साधते ही उस हिरणी ने भी निवेदन किया कि मैं ऋतु क्रिया से निवृत्ति हूं इसलिए मुझे पति समागम करने दीजिए, मारिए नहीं। मैं पति से मिलने के पश्चात स्वयं तुम्हारे पास आऊंगी। बहेलिया ने उसकी बात भी स्वीकार कर ली। रात्रि को तृतीया बेला में एक तीसरी हिरणी छोटे−छोटे छानों को लिए उसी जलाशय में पानी पीने आई। बहेलिया ने उसको भी देखकर धनुष बाण उठा लिया, तब वह हिरणी भी कातर स्वर में बोली कि हे व्याध! मैं इन छोनों को अपने हिरण के संरक्षण में कर आऊं तो तुम मुझे मार डालना। बहेलिया ने दीन वचनों से प्रभावित होकर उसे भी छोड़ दिया।
प्रातः काल के समय एक मांसल बलवान हिरण उसी सरोवर पर आया। बहेलिये ने पुनः अपने स्वभावनुसार उसका शिकार करना चाहा। यह क्रिया देखते ही हिरण व्याध से प्रार्थना करने लगा। हे व्याधराज! मुझसे पूर्व आने वाली तीन हिरणियों को यदि तुमने मारा है तो मुझे भी मारिए अन्यथा उन पर तरस खाना बेकार जाएगा। जब वे तुम्हारे द्वारा छोड़ दी गई हैं तो मुझे उनसे मिलकर आने पर मारना। इस प्रकार बहेलिया ने उसे भी छोड़ दिया।
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दिन भर उपवास, पूरे रात जागरण तथा शिव मूर्ति पर बेलपत्र गिरने यानि चढ़ाने के कारण बहेलिया में आंतरिक शुचिता आ गई थी। उसका मन निर्दयता से कोमलता में ऐसा बदल गया कि हिरण परिवार के लौटने पर भी नहीं मारने का निश्चय कर लिया। भगवान शंकर के प्रभाव से उसका हृदय इतना पवित्र तथा सरल हो गया कि वह पूर्ण अहिंसावादी बन गया।
उधर हिरणियों से मिलने के बाद हिरण ने बहेलिया के पास आकर अपनी सत्यवादिता का परिचय दिया। उसके सत्याग्रह से प्रभावित होकर व्याध अहिंसा परमोधर्म का पुजारी हो गया। उसकी आंखों से आंसू छलक आए तथा पूर्व के कर्मों पर पश्चाताप करने लगा। इस पर स्वर्गलोक से देवताओं ने व्याध की सराहना की तथा भगवान शंकर जी ने दो पुष्प विमान भेजकर बहेलिया तथा मृग परिवार को शिवलोक का अधिकारी बनाया।
- शुभा दुबे
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