भौंकता है, पर काटता नहीं (व्यंग्य)

शाम को जब लॉन में बैठकर चाय पी रहे थे, तो नौकर टाइगर को टहला रहा था। इतने में फाटक के बाहर दो ‘नॉन-बँगला-रेजिडेंट’ कुत्ते आ गए। वे सड़किया, भटकती आत्माएँ, भूख से झूलते हुए, हमारे टाइगर को देख रहे थे—मानो कह रहे हों, “ओ रे बाबू, तु बड़ा आदमी बन गया रे!” टाइगर ने तुरंत भौंकना शुरू कर दिया।
बचपन में दादी कहती थीं—"बिटवा, भौंकता है, पर काटता नहीं, ऐसे ही कुत्ते से मत डरना!" लेकिन अब लगता है, दादी को शहर के बंगलों की जानकारी नहीं थी। वहाँ के कुत्ते पहले भौंकते हैं, फिर घूरते हैं, फिर काटते नहीं... लेकिन अस्पताल का रास्ता ज़रूर दिखा देते हैं। हमारी भी एक ऐसी ही मुलाकात थी एक बँगलेवाले कुत्ते से, जो ‘हैलो’ से पहले ही ‘भौं-भौं’ करता था और ‘अलविदा’ के समय ‘गुर्र-गुर्र’। मानो कह रहा हो—“जा, जी ले अपनी ज़िंदगी!” मैंने कहा, “भाई, तेरे मालिक की चाय पीने आया हूँ, तुझसे शादी थोड़ी करनी है!” पर उसे मानो संविधान में संशोधन करना हो, हर आने-जाने वाले का बैरिकेटिंग चेकअप कर डालता।
फाटक पर लिखा था—"बिवेर ऑफ डॉग"। पर मन में खटका—"डॉग के लिए लिखा है या मालिक के लिए?" क्योंकि दोनों एक जैसे दिखते थे—रौबदार, गुर्राते हुए और जब देखो तब भौंकने को तैयार। जब मालिक ने दरवाज़ा खोला तो कुत्ता पहले झपटा, फिर पीछे हटा। शायद उसे मेरे चेहरे में नाथूराम दिखा हो। मैंने धीमे से कहा—"भाई, गोली नहीं लाया, बस दो बिस्कुट लाया हूँ।" मालिक ने हँसते हुए कहा, “अरे डरो मत, ये तो बड़ा शरीफ है।” और मैं सोचने लगा—“शरीफ तो वो होते हैं जो भौंकते नहीं। ये शरीफ है या शहर का सीरियल किलर?”
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हमारी तीन दिन की मजबूरी थी उस बँगले में ठहरने की। रात को छत पर सोते हुए महसूस होता कि कोई लगातार घूर रहा है। नीचे देखा, तो साहब का टाइगर—नाम तो टाइगर, पर हरकतें पिंकू की तरह—चारपाई पर लेटा, झबरीली आँखों से घूरता हुआ जैसे कह रहा हो—“तू मेरे लॉन में कैसे सो गया?” और मैं, आत्मग्लानि में डूबा—"ओह! मैं एक मध्यवर्गीय इंसान और ये उच्चवर्गीय कुत्ता, हम एक ही अहाते में हैं। कहीं देश का GDP तो नहीं गिरा?" कुत्ते का टशन देख मैंने मन में दोहराया—"ग़रीब आदमी को सिर्फ़ आदमी ही नहीं, कुत्ता भी नीचा दिखाता है!"
शाम को जब लॉन में बैठकर चाय पी रहे थे, तो नौकर टाइगर को टहला रहा था। इतने में फाटक के बाहर दो ‘नॉन-बँगला-रेजिडेंट’ कुत्ते आ गए। वे सड़किया, भटकती आत्माएँ, भूख से झूलते हुए, हमारे टाइगर को देख रहे थे—मानो कह रहे हों, “ओ रे बाबू, तु बड़ा आदमी बन गया रे!” टाइगर ने तुरंत भौंकना शुरू कर दिया। और उन दोनों ने शर्म से सिर झुका लिया, जैसे इंटरव्यू में फेल हो गए हों। मैंने मेज़बान से पूछा, “ये उनके पीछे क्यों भौंकता है?” मेज़बान ने कहा, “वो तो इसकी रोज़ की आदत है।” मैंने कहा, “क्लासिक केस है—सफलता के बाद रिश्तेदारों से मुँह मोड़ना!”
रात को टाइगर चुपचाप पड़ा था। पास में ही दोनों सड़किया कुत्ते फिर से आ गए और मोहल्ले में भौंकने लगे। आश्चर्य यह कि टाइगर भी उनके साथ आवाज़ मिलाने लगा। लगा जैसे ‘भौंकना’ यूनियन की हड़ताल हो और टाइगर उसमें मोर्चा संभाले। मैंने कहा, “वाह, ये तो राजनीतिक कुत्ता निकला। सुबह पूँजीवादी, रात को सर्वहारा।” टाइगर की भौंक अब मुझे आंदोलन लगने लगी। पर अगली सुबह जो दृश्य देखा, उसने आत्मा को रुला दिया। टाइगर गेट के बाहर पड़ा था, लहूलुहान। दोनों आवारा कुत्तों ने उसकी धुनाई कर दी थी—जैसे कह रहे हों, "अबे ग़द्दार, भौंकता हमारे साथ है, पर दिखावा करता है अमीर बनने का!"
मालिक बोले, “नौकर की गलती से गेट खुल गया और ये निकल गया। दोनों कुत्ते घात में थे।” मैंने कुत्ते की तरफ देखा। उसकी आँखों में पश्चाताप था—मानो कह रहा हो, “काश मैं अपनी औकात नहीं भूलता।” उसकी चुप्पी में एक गहरी पुकार थी—“मैं अब जान गया हूँ, मैं कौन हूँ।” अब वह भौंक भी नहीं रहा था, बस कभी-कभी कराहता था, जैसे कह रहा हो—"बेवफ़ाई की सज़ा मिली है, मालिक... पट्टे को भगवान समझ लिया था।"
लौटते समय मेरा मन भारी था। टाइगर को देखा—उसकी आँखें भीगी थीं, मेरी भी। शायद वह कहना चाह रहा था, “सिस्टम ने मुझे ये बनाया, मैं कौन था, ये भूला दिया।” और मैंने सिर झुका लिया। पीछे से दो सड़किया कुत्ते फिर आ गए थे, वे चुपचाप देख रहे थे। वे अब नहीं भौंक रहे थे। शायद कह रहे हों—“अब ये हमारा है। अब ये भौंकता नहीं, सोचता है।”
और मैं बुदबुदाया—“भौंकने से आदमी बड़ा नहीं होता...कभी-कभी चुप्पी उसकी जात बता देती है।”
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
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