प्लास्टिक के फूल (व्यंग्य)

Plastic flowers
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तैयारियों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड हो रही थीं। कैप्शन में लिखा था – “गो ग्रीन विथ प्लास्टिक ड्रीम!” एक लड़की ने पौधे की फोटो के नीचे लिखा – “हैप्पी नेचर डे ऑल माय डियर ट्रीस ”। उस पेड़ को काट कर उस पर वही फोटो चिपकाई गई थी।

शहर की इस बार की पर्यावरण रैली कुछ ज़्यादा ही हरी-भरी थी। हर गली, हर नुक्कड़, हर चौराहा हरा नहीं, हरा-पीला-नीला-बैंगनी दिखाई दे रहा था। वजह साफ़ थी– ‘पर्यावरण दिवस’ आने वाला था और तैयारियाँ प्लास्टिक के फूलों से इतनी सज-धजकर की गई थीं कि खुद गुलाब की झेंप खुल जाए और मोगरा आत्महत्या कर ले। मुहल्ले की गुप्ता आंटी, जो पूरे साल नल खुला छोड़कर पौधे धोती हैं, इस दिन सुबह से प्लास्टिक की माला लेकर तुलसी के गले में ऐसे झूल पड़ीं जैसे कोई बहू सास की सेवा में झूलती है– दिखावे भर के लिए। तुलसी ने खाँसते हुए शायद कहा भी हो – "कृपया मुझे जीवित रहने दीजिए," पर उस आवाज़ को आंटी ने साउंड बॉक्स में बज रहे ‘ए पर्यावरण माई, रक्खिहो हमार लाज’ में गुम कर दिया। लब्बोलुआब यही था– “पौधों को ऑक्सीजन चाहिए, हमने उन्हें सेलोफेन ओढ़ा दिया।”

मुहल्ले के निगम पार्षद, श्री टाइगर प्रसाद ‘हरियाले’, अपने दो चमचों के साथ, हरे रंग की प्लास्टिक टी-शर्ट पहनकर निकले। एक हाथ में माइक और दूसरे में प्लास्टिक का गमला था, जिसमें नकली बोनसाई रखी थी। उन्होंने माइक से ललकारा – “हम पेड़ नहीं काटते, बस उनकी जगह पर सेल्फी पॉइंट बनाते हैं।” पूरा मुहल्ला ताली बजा-बजाकर धरती की छाती पीटने लगा। बच्चे तो प्लास्टिक के फूल चबाकर खुश थे। एक छोटा बच्चा बोला– “मम्मी! ये जैविक लगता है।” मम्मी मुस्कराईं– “हाँ बेटा, ये बायोडिग्रेडेबल टाइप फील देता है।” पंचलाइन उड़ती हुई आई– “जहाँ भावनाएँ प्लास्टिक की हों, वहाँ फूल असली क्यों हों?”

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तैयारियों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड हो रही थीं। कैप्शन में लिखा था – “गो ग्रीन विथ प्लास्टिक ड्रीम!” एक लड़की ने पौधे की फोटो के नीचे लिखा– “हैप्पी नेचर डे ऑल माय डियर ट्रीस ”। उस पेड़ को काट कर उस पर वही फोटो चिपकाई गई थी। जड़ें हवा में थीं, और कैप्शन जन्नत में। एक बुढ़ा पीपल पेड़ देखकर सुबक पड़ा– “पहले मुझे पूजते थे, अब मेरे फोटो से लाईक्स कमाते हैं।” उसी पेड़ के नीचे एक बोर्ड लटक रहा था – “दिज इज ए सेल्फी जोन – सेव ट्रीस.” – “जंगल बचे या ना बचे, जंगल की यादें इंस्टा में ज़रूर बचें।”

स्कूलों में बच्चों ने भाषण दिए। एक छोटा बच्चा चिल्लाया – “प्लास्टिक नहीं चाहिए!” उसके ठीक पीछे पूरे मंच को प्लास्टिक के पर्दों, सजावटों और फूलों से ढाँप दिया गया था। शिक्षक मुस्कराए – “बिलकुल सही बेटा, लेकिन इन सजावटों को हाथ मत लगाना, किराए पर आए हैं।” बच्चे को थोड़ी उलझन हुई, मगर उसने फिर कहा– “पेड़ों को काटना पाप है।” तभी पीछे से माली आता है और कहता है– “सर! वो नीम के पेड़ की डाली मंच में घुस रही थी, काट दी।” – “संदेश पर्यावरण बचाओ, व्यवस्था पेड़ हटाओ।”

शहर के सबसे बड़े होटल में पर्यावरण दिवस समारोह रखा गया था। चीनी मिट्टी की थालियों की जगह डिस्पोज़ल प्लेट, ग्लास और चम्मच रखे गए। हर कुर्सी के पीछे लिखा था– “रिसाइकल, रियूज, रिपीट” मंच पर बैठे अधिकारी बोले– “पृथ्वी को बचाना हमारा कर्तव्य है।” वहीं एक ओर AC की फुल स्पीड में चाय परोसी जा रही थी। बाहर पौधे मुरझाए खड़े थे, भीतर बर्फ़ के गोले पर चर्चा हो रही थी – “ग्रीनहाउस इफेक्ट बहुत घातक है।” पंचलाइन जैसे स्वयं पृथ्वी ने चिल्लाकर कही– “जो जितना बोले, वो उतना ही काटे।”

मैंने मोहल्ले के एक पुराने माली से पूछा– “क्या सच में लोग पर्यावरण से प्रेम करते हैं?” वो चुप रहा। फिर झोले से एक सूखी बेल निकाली, जिसकी जड़ें प्लास्टिक की थीं। वो बोला – “बाबूजी, अब पेड़ उगते नहीं, लगाए जाते हैं… वो भी फोटोज़ के लिए।” उसकी आँखों में कुछ पुराने वनों की परछाइयाँ थीं, जो आजकल सिर्फ बच्चों की किताबों में मिलती हैं। उसने अंतिम पंच मारा – “पहले पेड़ लगते थे जीवन के लिए, अब लगते हैं प्रमाण पत्र के लिए।”

अंत में जब समारोह समाप्त हुआ, तो देखा गया कि पूरे मैदान में प्लास्टिक की पन्नियाँ उड़ रही थीं, बच्चों के हाथ में खाली बोतलें थीं, और पेड़ों के नीचे चिप्स के पैकेट पड़े थे। तुलसी के गले से माला उतर चुकी थी, और माली जी की आँखें झर चुके थे। वो धीरे से बोले – “इस बार भी बचा न सका किसी पेड़ को… इस बार भी हार गया मैं, हर बार की तरह।” और यही वो दर्द था जो शब्दों से नहीं, साँसों से निकलता है। पंचलाइन लहूलुहान थी – “जिस धरती को माँ कहा, उसी की छाती छील दी।”

एक पुराना नीम पेड़, जो मोहल्ले का अंतिम वृक्ष था, आज रात को गिर पड़ा। कोई आँधी नहीं आई थी, बस भीड़ ने उसके नीचे डीजे स्टेज लगाया था। उसकी अंतिम साँसें कह रही थीं – “मुझे सजाया गया… मारने से ठीक पहले।” और अंत में वह पंचलाइन गूँजी, जो कोई नहीं कहता, बस सुनता है – “हमने पेड़ों को मारा, और उम्मीद की छाँव।”

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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