जब मानसून जल्दी आ जाए (व्यंग्य)

इस बार तो मानसून ने जल्दबाज़ी दिखाई है। अभी तो हमने बारिश के लिए हवन भी शुरू नहीं किया था कि बारिश आनी शुरू हो गई। ऊपरवाला इतने साल से हमारे साथ है उसे अब तक तो समझ जाना चाहिए कि हमारी व्यवस्था कैसे चलती है।
यह इंसान की गलती तो बिलकुल नहीं मानी जा सकती। यह तो मानसून ने ही जल्दबाजी की है। हमारे यहां अधिकांश सामाजिक, राष्ट्रीय, आर्थिक कार्य देर से करने की परम्परा है। सड़कें ठीक नहीं रखते, गड्ढे पड़ जाएं तो उन्हें भरते नहीं, भरते हैं तो मिटटी से भर देते हैं। बजरी तारकोल से मरम्मत करते हैं तो इतनी बढ़िया करते हैं कि सिर्फ एक ही बारिश में बह जाए। उसमें भी बारिश की गलती होती है जो गलत वक़्त पर आती है। जिन दिनों बारिश का पानी ज्यादा आ जाता है, बेचारे नेताओं को पुराने भाषण दोहराने पड़ते हैं। इससे फायदा यह होता है कि मरम्मत फिर से करने का अनुमान पकाना फिर से शुरू हो जाता है। बस होशियार कर्मचारियों को काम थोडा ज्यादा करना पड़ता है।
हम वृक्षों की शाखाओं की काट छांट भी नहीं करते, चाहते हैं आंधी ज़ोर से आए और शाखाएं तोड़ कर ज़मीन पर गिरा दे। हमें नालियों में फंसे पोलीथिन, उनमें भरा कचरा निकालना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। हमें तो गलियों और बाज़ारों के मुहानों पर फेंका और पशुओं द्वारा फैलाया, सड़ता हुआ कचरा बुरा नहीं लगता। हम तो पानी की निकासी पर सीमेंट डाल देते हैं।
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इस बार तो मानसून ने जल्दबाज़ी दिखाई है। अभी तो हमने बारिश के लिए हवन भी शुरू नहीं किया था कि बारिश आनी शुरू हो गई। ऊपरवाला इतने साल से हमारे साथ है उसे अब तक तो समझ जाना चाहिए कि हमारी व्यवस्था कैसे चलती है। हम ज़्यादा परवाह नहीं करते। हम तो पीटने, पिटने, मरने, मारने और खासे खतरनाक कारनामों की परवाह नहीं करते, बारिश क्या चीज़ है। हम रिकार्ड बनाने में महारथी हैं। हम अविलम्ब बता सकते हैं कि कहां कहां कितनी बारिश हुई। पिछले एक सौ बारह वर्षों में सबसे अधिक बारिश कहां हुई। पिछले अठ्तर वर्षों में सबसे पहले मानसून कब आया।
इस मामले में सारी गलती प्रबंधन कमेटी, प्रशासन, राजनीति और नेताओं की भी नहीं है। उन्होंने जनता को बिगाड़ना शुरू किया, जनता बिगड़ती रही फिर इतनी बिगड़ गई कि अनुशासन के हाथों से फिसल गई। कुदरत को इतना बिगाड़ दिया कि छोटा मोटा क्या बड़ा कार्यक्रम भी कर लो, जितने मर्जी भाषण और उपदेश दो। रैलियों में पोस्टर उठवा लो जनता और स्थिति सुधरती ही नहीं।
अब तो विकास चाहने वालों को विनाश भी संभालना पडेगा क्यूंकि यह दोनों साथ साथ आते हैं। इन्हें अलग करने की हिम्मत किसी में नहीं। इन्होंने तो भ्रष्टाचार कूड़े कर्कट की तरह फंसा दिया है। पानी ज़्यादा हो जाए तो डुबो देता है हां कुछ को तैरना भी सिखा देता है। आपदा में अवसर देता है ताकि तैराकी सिखाने वालों को रोज़गार मिले। नावों का व्यापार शुरू हो सकता है। बेरोज़गार नावें बेचें, चलाएं लोगों को बचाएं और कमाएं भी। बरसात में जो लोग बीमार होते हैं वे डॉक्टर के लिए कच्चा माल बन जाते हैं। यहां वहां का कचरा बरसात साफ़ कर देती है। टूटती, बहती सड़कें, पुल, रास्ते, गलियां मरम्मत करने वाले विशेषज्ञ, अफसर, ठेकेदार और नेताओं का फायदा करवाती हैं। इस बार ज़रूरी बैठकें भी जल्दबाजी में हो रही होंगी।
- संतोष उत्सुक
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