तुम्ही हो बंधु सखा तुम्ही हो: क्या बेवजह दुनिया को चीन का खौफ दिखा रहे थे नेहरू, दोस्त के लिए अमेरिका-ब्रिटेन सभी से भिड़ गए
भारत की तरफ से चीन से दोस्ती की हर कोशिश की गई। भारत की आजादी से पहले से ही जवाहर लाल नेहरू का मानना था कि चीन और भारत में काफी समानता हैं और दोनों एक दूसरे के कापी अच्छे दोस्त साबित हो सकते हैं।
पूरी दुनिया के लिए चीन हमेशा से एक पहेली बना हुआ है। नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक भारत भी अपने बड़े भाई जैसे लगने वाले पड़ोसी देश को समझ नहीं पाए। वजह साफ है क्योंकि चीन की कम्युनिस्ट सरकार की कथनी और करनी में बड़ा फर्क है, जिसका सबूत उसके नेता बीते 74 सालों में हर मौके पर भारत को धोखा देकर देते रहे हैं। पंडित नेहरू, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी ये वो भारत के प्रधानमंत्रियों के नाम हैं जिन्होंने चीन का दौरा किया और उससे रिश्ते सुधारने की भरसक कोशिश की, लेकिन नतीजा पूरी दुनिया जानती है। चीन के बारे में एक कहावत तो हमेशा से ही प्रसिद्ध रही है कि ऐसा कोई सगा नहीं जिसे उसने ठगा नहीं। पड़ोसियों से रिश्ते में हमेशा उसने जमीन हड़पने की नीति अपनाई है। यही वजह है कि पूरे दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को छोड़ उसका कोई दोस्त नहीं है। जबकि भारत की तरफ से चीन से दोस्ती की हर कोशिश की गई। भारत की आजादी से पहले से ही जवाहर लाल नेहरू का मानना था कि चीन और भारत में काफी समानता हैं और दोनों एक दूसरे के कापी अच्छे दोस्त साबित हो सकते हैं। इसी उम्मीद में शायद प्रधानमंत्री बनने के बाद जब पंडित नेहरू ने साल 1949 में पहली दफा अमेरिका की यात्रा की तो अपने देश के गंभीर मुद्दे के साथ चीन को लेकर भी चर्चा की थी। उन्होंने रिपब्लिक ऑफ चाइना की वकालत करते हुए अमेरिका के सामने उसे मान्यता देने की बात कही थी।
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यूएन में उत्तर कोरिया के खिलाफ अमेरिका का प्रस्ताव, भारत का समर्थन
चीन को एक करने के लिए सुन् यात-सेन ने 1912 में कुओ मिंगतांग पार्टी का गठन किया और रिपब्लिक ऑफ चाइना वाले अपने अभियान में वो काफी हद तक सफल भी हुए। लेकिन 1925 सुन् यात-सेन की मौत हो गई। उनकी मृत्यु के बाद कुओ मिंगतांग पार्टी दो भागों में बंट गई एक बनी नेशनलिस्ट पार्टी और दूसरी कम्युनिस्ट। चीन के अंदर महायुद्ध की शुरुआत होती है। चीन के इस आपसी संघर्ष का फायदा जापान ने उठाया और इसके एक बड़े शहर मंचूरिया पर कब्जा कर लिया। जापान के जाने के बाद दोनों पार्टियों के बीच फिर से सिविल वॉर शुरू हो गया। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी चीन और ताइवान। इन दोनों ने एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी यानी माओ त्देसेंग का शासन था। जबकि ताइवान पर नेशनलिस्ट कुओमिन्तांग यानी चियांग काई शेक का शासन था। चियांग काई शेक अपने समर्थकों के साथ फ़ॉरमोसा द्वीप चले जाते हैं। इसे ही ताइवान के नाम से जाना जाता है। अमेरिका चियांग काई शेक की सरकार को ही असली चीन मानता था। वहीं, नेहरू मान्यता देने की बात माओ वाले पीपुल्स रिपबल्कि ऑफ चाइना को मान्यता देने की बात कह रहे थे। हालांकि अमेरिकी विदेश मंत्री डीन एचेसन की तरफ से इसको लेकर नेहरू को दो टूक कह दिया गया था कि ऐसा उसका कोई इरादा नहीं है। नेहरू की चीन पर राय को अमेरिका के प्रति उसके नजरिया कायम करने में भी शुरुआती तौर पर मददगार साबित हुई। हालांकि कोरियाई देशों के बीच छिड़े युद्ध के बाद भारत और अमेरिका की दूरी बढ़ने लगी। उत्तर कोरिया ने चीन की सहायता से दक्षिण कोरिया पर हमला कर दिया। वहीं दक्षिण कोरिया को अमेरिका का समर्थन प्राप्त था। अमेरिका ने यूएन सिक्योरिटी काउंसिल की सहायता से उत्तर कोरिया को घेरने की योजना बनाई। अमेरिका की तरफ से सुरक्षा परिषद में उत्तर कोरिया के हमले के खिलाफ प्रस्ताव लाया। सोवियत संघ ने वोटिंग से दूरी बनाई और अमेरिकी प्रस्ताव को 11 में से 9 वोट हासिल हुए। भारत ने उस वक्त अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन किया था।
चीन के लिए लॉबिंग में लगे नेहरू
नेहरू को लग रहा था कि कोरियाई युद्ध ज्यादा खतरनाक रुख ले सकता है। उन्हें लग रहा था कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना भी उत्तर कोरिया के पक्ष में युद्ध के लिए आ सकता है। उनका सोचना था कि पीआरसी को मान्यता देकर संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य बनाने से कोरिया युद्ध के दायरे को सीमित रखा जा सकता है। उनका मानना था कि यूएनएससी में अगर पीआरसी को जगह मिल जाती है तो उसकी नाराजगी कुछ हद तक दूर हो सकती है। आदर्शवाद और नैतिकता का बोझ पंडित नेहरू पर इतना था कि वो चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए पूरी दुनिया में लाबिंग करने लगे। पंडित नेहरू के इस रूख से अमेरिका बहुत नाराज हुआ था। उस वक्त अमेरिका दुनिया की बहुत बड़ी महाशक्ति था। लेकिन पंडित नेहरू खुलकर अमेरिका की नीतियों की आलोचना करते थे। चीन पर कम्युनिस्ट शासकों का राज था। तब पंडित नेहरू को लगा कि चीन के संस्थापक माओ गरीबों के नेता हैं और उनका लक्ष्य अपनी जनता को रोटी-कपड़ा और मकान मुहैया करवाना है।
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अमेरिका ने फिर नेहरू के सुझाव को नहीं दी तवज्जो
पंडित नेहरू का मानना था कि माओ के गुट वाले पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना से संबंधित मामले को गंभीरता से विचार करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि बीएन राऊ ने सुझाव दिया कि कोरिया मामले में बीच का रास्ता निकालने के लिए समिति गठित हो उसमें उत्तर कोरिया और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना समेत सभी पक्ष शामिल हों। हालांकि अमेरिका की तरफ से इसे खासा अहमियत नहीं दी गई।
ब्रिटेन के प्रस्ताव का भारत ने किया विरोध
यूएन की सेना ने उत्तर कोरिया को भारी क्षति पहुंचाई। उत्तर कोरिया तथा दक्षिण कोरिया को दो भागों में बांटती 38 वीं समानांतर रेखा को ही दोनों देशों का सरहद माना जाता था। इसे पार करने का मतलब उत्तर कोरिया में दखल देना होता। लेकिन तभी ब्रिटेन की तरफ से सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव पेश किया गया। इसमें 38 वीं समानांतर रेखा को पार करने की छूट दी गई। भारत की तरफ से इस प्रस्ताव का विरोध किया गया।
बेवजह दुनिया को चीन का खौफ दिखा रहे थे नेहरू
भारत का मानना था कि 38वीं समानांतर रेखा को पार करने से छूट देने पर पीपुल्स रिप्बल्कि की तरफ से भी प्रतिक्रिया आ सकती है। हालांकि अमेरिका का मानना था कि भारत बिना वजह के पूरी दुनिया को कम्युनिस्ट चीन का खौफ दिखा रहा है। पश्चिमी मीडिया में नेहरू के चीन प्रेम की जमकर आलोचना भी हुई। यहां तक की अमेरिकी राजनयिक और राजदूतक चेस्टर ब्राउल्स का मानना था कि किसी ने भी नेहरू को गंभीरता से नहीं लिया और उन्हें कम्युनिस्ट चीन का हितैषी समझा जाने लगा था।
चीन को नहीं नाराज करना चाहते थे नेहरू
लेखक एमजे अकबर ने अपने लेख में बताया था कि 1950 में जब कम्युनिस्टों ने चीन पर कब्जा किया तो अमेरिका ने ये प्रस्ताव दिया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद यानी यूएनएससी में चीन की जगह भारत को दे दी जाए। इसको लेकर नेहरू की छोटी बहन और भारत में अमेरिका की राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित ने एक सीक्रेट लेटर भी लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था कि अमेरिका चाहता है कि चीन को हटाकर भारत को यूएनएससी का सदस्य बनाया जाए। लेकिन नेहरू ने जवाब दिया कि चीन को हटाकर भारत का जगह लेना हर लिहाज से बुरा है। इससे चीन से टकराव बढ़ेगा और इसका असर दोनों देशों के संबंधों पर पड़ेगा। इतना ही नहीं उन्होंने तो चीन के लिए लॉबिग भी की और ये निर्णय लिया था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन को सीट देने के लिए कहते रहेंगे। 1955 में सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने सुझाव दिया कि भारत यदि चाहे तो उसे जगह देने के लिए सुरक्षा परिषद में सीटों की संख्या पांच से बढ़ा कर छह भी की जा सकती है। नेहरू ने बुल्गानिन को भी यही जवाब दिया कि कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट जब तक नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता।
चीन में अपनी फैन फॉलोइिंग देख फूले नहीं समा रहे थे नेहरू
नेहरू ने 1954 में चीन की यात्रा से लौटने के बाद अंग्रेजों के आखिरी वायसराय लार्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना को एक चिट्ठी लिखी थी। जिसमें वो बता रहे थे कि कैसे चीन में उनका जबरदस्त स्वागत हुआ। उन्हें जितना सम्मान भारत में मिलता है उतना ही चीन में भी मिलता है। नेहरू ने तब बताया कि चीन के एक शहर में 10 लाख लोगों ने उनका स्वागत किया था। तब ये लोग उनके वहां पहुंचने से बहुत उत्साहित थे। चीन ने उन्हें खुश तो कर दिया लेकिन वो उनकी मंशा को समझ नहीं पाए। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के कई प्रस्तावों का विरोध किया और चीन को आक्रमणकारी के रूप में देखना भी उसके लिए गंवारा नहीं था। हालांकि कम्युनिस्ट चीन की वकालत करना और अमेरिकी की नाराजगी मोल लेना आगे चलकर कितना बड़ा नुकसान दायक साबित हुआ। जब 1962 में हिंदी चीनी भाई भाई का नारा लगाते हुए उसी चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया।
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