मणिपुर में खोया आधार पाने के लिए प्रयारसत वाम दल

[email protected] । Feb 20 2017 11:51AM

मणिपुर की राजनीति में किसी समय वाम दलों का दबदबा हुआ करता था लेकिन इस बार विधानसभा चुनाव में भाकपा और माकपा राज्य में अपने खोए आधार को वापस पाने के लिए प्रयासरत हैं।

इम्फाल। मणिपुर की राजनीति में किसी समय वाम दलों का दबदबा हुआ करता था लेकिन इस बार विधानसभा चुनाव में भाकपा और माकपा राज्य में अपने खोए आधार को वापस पाने के लिए प्रयासरत हैं। मणिपुर में ‘जननेता हिजाम’ के नाम से चर्चित हिजाम इराबोत सिंह के नेतृत्व में वाम आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है। लेकिन अब ये दल राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने तक के लिए संघर्ष कर रहे हैं। राज्य में जारी उग्रवाद और जातीय संघर्ष के कारण वाम दल खासे प्रभावित हुए हैं।

माकपा, भाकपा और अन्य समान विचारधारा वाले दलों ने लेफ्ट एंड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) के नाम से एक मोर्चे का गठन किया है। वाम दलों ने नेशनल पीपल्स पार्टी के साथ भी चुनावी तालमेल किया है। 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा में वह मिलकर 50 सीटों पर लड़ रहे हैं। वाम दलों में भाकपा का दबदबा है। भाकपा के राज्य सचिव और एलडीएफ के समन्वयक एम नारा सिंह ने कहा, ‘‘किसी समय राज्य में हम बड़ी ताकत हुआ करते थे। हमारे पास बड़ी संख्या में सीटें होती थी और राज्य में सरकार के गठन में हमारा विशेष दखल हुआ करता था। लेकिन यह बीते समय की बातें हो चुकी हैं। अब हमें शून्य से शुरूआत करनी होगी। हम राज्य में खोए आधार के लिए लड़ रहे हैं और इसमें अन्य धर्मनिरपेक्ष दल तथा लोकतांत्रिक दल हमारा सहयोग कर रहे हैं।’’ माकपा के वरिष्ठ नेता सांतो ने भी यही बात दोहराई। उन्होंने कहा कि हम वर्ग संघर्ष को खत्म करना चाहते हैं। यही हमारे अभियान का आधार भी है।

भाकपा का दबदबा कभी इतना था कि महज पांच सीटों के साथ वर्ष 2002 में पार्टी ने ओकराम इबोबी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी। वर्ष 2002 में बनी पहली कांग्रेस सरकार थी कांग्रस-भाकपा गठबंधन की सेक्युलर प्रोग्रेसिव फ्रंट (एसपीएफ)। वर्ष 2007 में भी एसपीएफ सत्ता में आई लेकिन तब तक भाकपा की सीटें घटकर चार ही रह गईं। बीते एक दशक में राज्य में कई जातीय-वर्ग आंदोलन हुए जिससे वाम की विचारधारा और राज्य के लोगों पर संगठन के प्रभाव की नाकामी सामने आई। और जले पर नमक साबित हुई वर्ष 2007 के बाद राज्य में हुई कुछ कथित फर्जी मुठभेड़। लोगों का गुस्सा कांग्रेस सरकार के खिलाफ फूट पड़ा। इसकी कीमत सरकार की साझेदार भाकपा को भी चुकानी पड़ी। यह राजनीतिक रूप से घातक साबित हुआ।

नारा सिंह ने कहा, ‘‘वर्ष 2007 के अंत में कथित फर्जी मुठभेड़ों की घटनाओं के बाद मैंने अपनी पार्टी समेत अन्य विधायकों से सरकार का साथ छोड़ने को कहा। लेकिन विधायकों ने इसके खिलाफ वीटो इस्तेमाल किया। विरोध में मैंने एसपीएफ के समन्वयक पद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था। जनता को लगा कि साझेदार होने के नाते कांग्रेस के साथ-साथ हम भी दोषी हैं।’’ वर्ष 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने भाकपा से पल्ला झाड़ लिया। तब विधानसभा चुनाव में वाम दल एक भी सीट नहीं जीत सका। तब से वाम दल का आधार छिटकने लगा और पार्टी के बड़े चेहरे कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों में शामिल हो गए। राज्य में वाम दलों की स्थिति इतनी दयनीय हुई कि उसे यहां उम्मीदवार तक नहीं मिले। वर्ष 2012 में भाकपा ने 24 उम्मीदवार उतारे थे लेकिन वर्ष 2017 में यह केवल छह ही उम्मीदवार उतार सकी। मणिपुर में चार और आठ मार्च को दो चरणों में विधानसभा चुनाव होने हैं।

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