ग्रामीणों ने आंसू और ढोल के साथ दी अपने खेतों को अंतिम विदाई, दिखा अद्भुत नजारा

villagers last farewell to their fields

खेतों का अनाज खाकर बढ़े हुए। खेतों की माटी की खूशबू रग-रग में बस चुकी थी। गांव के लोगों ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन इनसे जुदा होना पड़ेगा। दरअसल गांव से रेल गुजरेगी तो ऐसे में उनका गांव भी विकास की पटरी पर सरपट दौड़ेगा। इसी वजह से गांववालों ने अपने यह खेत सरकार को सौंप दिए हैं।

खेतों की सामान्य कटाई, रोपाई होता तो हम सबने देखा है लेकिन क्या आपने कभी गाजे-बाजे और आंसूओं के साथ ये सब होते देखा है? नहीं, लेकिन ऐसा सच में हुआ है। दरअसल उत्तराखंड के गोपेश्वर में सौकोट गांव के यह खेत यहां के लोगों से पीढ़ियों से जुड़े हुए थे। इन्हीं खेतों का अनाज खाकर बढ़े हुए। खेतों की माटी की खूशबू रग-रग में बस चुकी थी। गांव के लोगों ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन इनसे जुदा होना पड़ेगा। दरअसल गांव से रेल गुजरेगी तो ऐसे में उनका गांव भी विकास की पटरी पर सरपट दौड़ेगा। इसी वजह से गांववालों ने अपने यह खेत सरकार को सौंप दिए हैं। खेतों से विदाई के समय यहां एक अलग ही नजारा देखने को मिला।

आंखों में आंसू और दमाऊं के साथ दी आखिरी विदाई

अपने खेतों को आखिरी बार काटने और जोतने के मौके पर लोगों ने ढोल-दमाऊं बजाए। पानी से भरे खेतों में धान रोपते हुए महिलाएं जागर गाती नजर आई। आंखें नम थी। ऐसे में आंखों में आंसू और ढोल के साथ लोगों ने खेतों की आखिरी बार रोपाई को खुशी और गम का मिलजुला उत्सव बना दिया। यह गांव गोपेश्वर से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर है। गांव की करीब 200 नाली भूमि रेलवे स्टेशन के लिए अधिग्रहीत की गई है। गांव में लगभग 150 परिवार रहते हैं। यहां रहने वाले लोगों को मुख्य काम पशुपालन और खेती का है। यहां घरों के आसपास ही दूर-दूर तक खेत हैं। ग्रामीण बड़ी खुशी से खेतों में धान की रोपाई करते हैं जिसके लिए तैयारी लगभग 1 महीने पहले ही शुरु हो जाती है।    

गांव के विकास के लिए लिया फैसला

इस साल इन लोगों के यह रोपाई और भी खास थी क्योंकि वे अपने खेतों से जुदा हो रहे थे। ऐसे में इसे यादगार बनाने के लिए वे खेतों में बैलों और दमाऊं के साथ पहुंचे। सुबह महिलाओं ने खेतों में पानी लगाने के बाद जीतू बगडवाल के जागरों पर रोपाई की लेकिन अपने खेतों से जुदाई का गम महिलाओं के आंसूओं में दिख रहा था। रोपाई के दौरान जागरों के गाते-गाते महिलाएं रोने लगीं। 

गांव की एक महिला तुलसी देवी का कहना है कि वह खेतों से जुदा होने का गम शब्दों में बयां नहीं कर सकतीं। बस गांव के विकास के लिए उन्होंने अपने खेतों को सरकार को देने का फैसला किया। 

डिस्क्लेमर: प्रभासाक्षी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।


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