साधना और तप से अर्जित ज्ञान बाँटा रामकृष्ण परमहंस ने

पांच वर्ष की उम्र में ही ये अद्भुत प्रतिभा और स्मरणशक्ति का परिचय देने लगे। अपने पूर्वजों के नाम व देवी-देवताओं की स्तुतियाँ, रामायण, महाभारत की कथायें इन्हें कंठस्थ हो गई थीं।

राजशक्ति की सहायता से धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में पाश्चात्य मतवाद के प्रबल आक्रमण के फलस्वरूप एक ओर भारतीय हिन्दू समाज के दलित अन्तुनत और अस्पृश्य जाति वालों का व्यापक धर्मान्तरण जारी था, दूसरी और एकांगी धर्म आन्दोलनों की नग्र व्यर्थता प्रदर्शित हो रही थी। ऐसे संकटपूर्ण क्षण में भारत के रंगमंच पर एक ऐसे आन्दोलन की आवश्यकता थी जो सनातनपंथ की रक्षणशीलता और सुधारवाद की प्रगतिशीलता के बीच समन्वय और सामन्जस्य स्थापित कर सके और इस प्रकार भारतीय धर्म और संस्कृति को पुनर्जीवित करने में समर्थ हो।

इस संधिवेला में युग प्रयोजन की पूर्ति के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस का आविर्भाव भारत एवं मानवेतिहास में एक विशेष स्मरणीय घटना है। हुगली जिले में कामारपुकुर नामक गांव में 18 फरवरी 1836 ई. को एक निर्धन निष्ठावान ब्राह्मण परिवार में रामकृष्ण का जन्म हुआ। इनके जन्म पर ही प्रसिद्ध ज्योतिषियों ने बालक रामकृष्ण के महान भविष्य की घोषणा की। ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सुन इनकी माता चन्द्रा देवी तथा पिता क्षुदिराम अत्यन्त प्रसन्न हुए। इनको बचपन में गदाधर नाम से पुकारा जाता था। पांच वर्ष की उम्र में ही ये अद्भुत प्रतिभा और स्मरणशक्ति का परिचय देने लगे। अपने पूर्वजों के नाम व देवी-देवताओं की स्तुतियाँ, रामायण, महाभारत की कथायें इन्हें कंठस्थ हो गई थीं। सन 1843 में इनके पिता का देहांत हो गया तो परिवार का पूरा भार इनके बड़े भाई रामकुमार पर आ पड़ा। 

रामकृष्ण जब नौ वर्ष के हुए तो इनके यज्ञोपवीत संस्कार का समय निकट आया। उस समय एक विचित्र घटना हुई। ब्राह्मण परिवार की यह परम्परा थी कि नवदिक्षित को इस संस्कार के पश्चात अपने किसी सम्बंधी या किसी ब्राह्मण से पहली भिक्षा प्राप्त करनी होती थी, किन्तु एक लुहारिन ने जिसने रामकृष्ण की जन्म से ही परिचर्या की थी, बहुत पहले ही उनसे प्रार्थना कर रखी थी कि वह अपनी पहली भिक्षा उसके पास से प्राप्त करे। लुहारिन के सच्चे प्रेम से प्रेरित हो बालक रामकृष्ण ने वचन दे दिया था। अत: यज्ञोपवीत के पश्चात घर वालों के लगातार विरोध के बावजूद इन्होंने ब्राह्मण परिवार की चिर-प्रचलित प्रथा का उल्लंघन कर अपना वचन पूरा किया और अपनी पहली भिक्षा उस स्त्री से प्राप्त की। यह घटना सामान्य न होकर भी कोई महत्तवहीन नहीं है। सत्य के प्रति प्रेम तथा इतनी कम उम्र में सामाजिक प्रथा से इस प्रकार ऊपर उठ जाना रामकृष्ण की अव्यक्त आध्यात्मिक क्षमता और दूरदर्शिता को कुछ कम प्रकट नहीं करता।

रामकृष्ण का मन पढ़ाई में न लगता देख इनके बड़े भाई इन्हें अपने साथ कलकत्ता ले आये और अपने पास दक्षिणेश्वर में रख लिया। यहाँ का शांत एवं सुरम्य वातावरण रामकृष्ण को अपने अनुकूल लगा और अपनी आध्यात्मिक साधनाओं के लिये उन्हें यहां एक महान सुअवसर प्रतीत हुआ। सन् 1858 में इनका विवाह शारदा देवी नामक पाँच वर्षीय कन्या के साथ सम्पन्न हुआ। जब शारदा देवी ने अपने अठारहवें वर्ष में पदार्पण किया तब श्री रामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर की पुण्यपीठ में अपने कमरे में उनकी षोड़शी देवी के रूप में यथोपचार आराधना की। यही शारदा देवी रामकृष्ण संघ में माताजी के नाम से परिचित हैं।

रामकृष्ण के जीवन में अनेक गुरु आये पर अन्तिम गुरुओं का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। एक थी भैरवी जिन्होंने उन्हें अपने कापालिक तंत्र की साधना करायी और दूसरे थे श्री तोतापुरी जो उनके अन्तिम गुरु थे। गंगा के तट पर दक्षिणेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर में रहकर रामकृष्ण माँ काली की पूजा किया करते थे। गंगा नदी के दूसरे किनारे रहने वाली भैरवी को अनुभूति हुई कि एक महान संस्कारी व्यक्ति रामकृष्ण को उसकी दीक्षा की आवश्यकता है। गंगा को तैर के पार कर वो रामकृष्ण के पास आयीं तथा उन्हें कापालिक दीक्षा लेने को कहा। रामकृष्ण तैयार हो गये तथा भैरवी से दीक्षा ग्रहण की। भैरवी द्वारा बतायी पद्धति से लगातार साधना करते रहे तथा मात्र तीन दिनों में ही सम्पूर्ण क्रिया में निपुण हो गये। 

रामकृष्ण के अन्तिम गुरु थे श्री तोतापुरी जो सिद्ध योगी, तांत्रिक तथा हठयोगी थे। वे रामकृष्ण के पास आये तथा उन्हें दीक्षा दी। रामकृष्ण को दीक्षा दी गई परमशिव के निराकार रूप के साथ पूर्ण संयोग की, पर आजीवन तो उन्होंने माँ काली की आराधना की थी। वे जब भी ध्यान करते तो माँ काली उनके ध्यान में आ जातीं और वे भावविभोर हो जाते। इस नई पद्धति निराकार का ध्यान उनसे नहीं हो पाता था। प्रयास चलता रहा पर सफलता नहीं मिली। तोतापुरी ध्यान सिद्ध योगी थे। वे समस्या जान गये कुछ दिनों बाद उन्होंने रामकृष्ण को अपने पास बिठाकर साधना करायी। श्री तोतापुरी को अनुभव हुआ कि रामकृष्ण के ध्यान में माँ काली प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने शक्ति सम्पात के द्वारा रामकृष्ण को निराकार ध्यान में प्रतिष्ठित करने के लिये बगल में पड़े एक शीशे के टुकड़े को उठाया और उसका रामकृष्ण के आज्ञाचक्र पर आघात किया जिससे रामकृष्ण को अनुभव हुआ कि उनके ध्यान की माँ काली चूर्ण-विचूर्ण हो गई हैं और वे निराकार परमशिव में पूरी तरह समाहित हो चुके हैं। वे समाधिस्थ हो गये। यज्ञपि ये उनकी पहली समाधी थी जो तीन दिन चली। श्री तोतापुरी ने रामकृष्ण की समाधी टूटने पर कहा, मैं पिछले 40 वर्षों से समाधि पर बैठा हूँ पर इतनी लम्बी समाधी मुझे कभी नहीं लगी।

रामकृष्ण ने इस्लाम, बौद्ध, ईसाई, सिख धर्मों की बकायदा विधिवत रूप से शिक्षा ग्रहण कर साधनायें की थीं। ब्रह्म समाज के सर्वश्रेष्ठ नेता केशवचंद्र सेन, पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर, बंकिमचंद्र चटर्जी, माइकेल मधुसूदन दत्त, कृष्णदास पाल, अश्विनी कुमार दत्त से रामकृष्ण घनिष्ठ रूप से परिचित थे। इनके प्रमुख शिष्यों में स्वामी विवेकानन्द, दुर्गाचरण नाग, स्वामी अद्भुतानंद, स्वामी ब्रह्मानंदन, स्वामी अद्यतानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी प्रेमानन्द, स्वामी योगानन्द थे। श्री रामकृष्ण के जीवन के अन्तिम वर्ष कारुण रस से भरे थे। 16 अगस्त, 1886 सोमवार ब्रह्ममुहूर्त में अपने भक्तों और स्नेहितों को दु:ख सागर में डुबाकर वे इस लोक से महाप्रयाण कर गये।

- रमेश सर्राफ धमोरा

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