अमेरिका के और करीब जाने के निहितार्थ

अमेरिका और चीन दोनों देशों की रणनीति भारत विरोधी ही तो है। संयुक्त राष्ट्र संघ में अज़हर मसूद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की प्रक्रिया में चीन के वीटो के बावजूद अमेरिकी चुप्पी साध गए और भारत को मुंह की खानी पड़ी।

दक्षिण एशिया की राजनीति में अमेरिका और चीन जान बूझकर ऐसे दांव चल रहे हैं, जिससे टकराहट की राजनीति को बढ़ावा मिलता रहे और भारत को कभी भी अपने दम पर वैश्विक राजनीति में उभरने का अवसर न मिल पाये। सजग दृष्टि डालने पर साफ़ दिख जाता है कि किस प्रकार मालदीव, नेपाल और श्रीलंका जैसे भारत के अच्छे पड़ोसियों पर मजबूत डोरे डालने के साथ पाकिस्तान को सीमा से पार जाकर बीजिंग मदद कर रहा है। यह बीजिंग के भविष्य की योजनाओं का रेखाचित्र भी स्पष्ट करता है। नेपाल और पाकिस्तान में तो हम चीन की हरकतें देख ही चुके हैं, हाल ही में चीन ने भारी फंड लगाकर मालदीव में इंटरनेशनल एयरपोर्ट का निर्माण किया जिसका उद्घाटन सुर्ख़ियों में छाया हुआ था। यह तब है जब मालदीव की घोषित नीति है 'इंडिया फर्स्ट'! जाहिर है, चीन भारत के सभी पड़ोसियों को अपनी दबाव की रणनीति में शामिल करने के दांव बखूबी चल रहा है। दूसरी ओर अमेरिका पाकिस्तान के साथ अपने सम्बन्धों को न केवल यथावत ही रखना चाहता है, बल्कि उसके साथ सैन्य सम्बन्धों एवं व्यापार को भी नयी ऊंचाइयों पर पहुंचता जा रहा है। अमेरिका की दोधारी नीतियों को हम इस बात से ही समझ सकते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान को 11 सितंबर 2001 में हुए आतंकी हमले के बाद से 13 बिलियन यूएस डॉलर दे चुका है। हालाँकि, ये राशि अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ने के मकसद से दी है, किन्तु यह बात गारंटी से कही जा सकती है कि इस राशि का आधे से अधिक हिस्सा आतंक को बढ़ावा देने के लिए ही इस्तेमाल हुआ होगा। इस बात को जानते तो सभी हैं, किन्तु इसकी पुष्टि तब हुई जब एक रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ।

हालिया ख़बरों के अनुसार, अमेरिकी नेशनल सिक्योरिटी आर्काइव के दस्तावेजों में इस बात का ज़िक्र है कि पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने 2009 में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के कैम्प पर हुए हमले में करीब 2 लाख डॉलर की फंडिंग की थी। इस हमले में 7 अमेरिकी एजेंट, एक कांट्रैक्टर समेत 3 अन्य लोग मारे गए थे। जाहिर है, पाकिस्तान अमेरिका के दिए गए पैसों से उसी को कई बार चोट पहुंचा चुका है, किन्तु उसी पाकिस्तान को अमेरिका हर तरह के हथियारों एवं भारी मात्रा में धन की सप्लाई करता रहता है। यही नहीं, अमेरिका अभी 200 मिलियन डॉलर की राशि पाकिस्तान को और देगा, ताकि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर वह हक्कानी जैसे प्रॉक्सी संगठनों को और मजबूत कर सके। दुनिया को दिखाने के लिए चीन और अमेरिका एक दूसरे पर दबाव बनाने की रणनीति में मशगूल हैं। इसको लेकर खूब प्रपंच किया जा रहा है, खूब दिखावा किया जा रहा है, किन्तु ध्यान से देखें तो अमेरिका और चीन दोनों देशों की रणनीति भारत विरोधी ही तो है। संयुक्त राष्ट्र संघ में अज़हर मसूद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की प्रक्रिया में चीन के वीटो के बावजूद अमेरिकी चुप्पी साध गए और भारत को मुंह की खानी पड़ी। सवाल यह है कि भारतीय प्रतिष्ठान ऐसे किसी प्रस्ताव को लाने से पहले क्या होमवर्क नहीं करता है। अज़हर मसूद के केस में ही देखें तो इसमें भारत दो रणनीतियां अपना सकता था, या तो पाकिस्तान पर दबाव बनाता अथवा उसको बचाने के एवज में चीन के ऊपर कोई आंच लाने की कोशिश की जाती, किन्तु नहीं, अमेरिका ऐसे हालातों में भारत को उकसा तो देता है, किन्तु मँझदार में उसे अकेला छोड़ देता है। ऐसे में इस बात में रत्ती भर भी सच्चाई नहीं दिखती है कि आज या कल चीन के खिलाफ अमेरिका भारत का साथ देगा! हाँ, इस बहाने डरा डराकर वह भारत के बाजार का इस्तेमाल अवश्य करेगा और न केवल करेगा, बल्कि विधिवत दोहन करेगा।

हालाँकि, भारतीय बाज़ारों का दोहन करने से हम चीन पर भी अंकुश लगा पाने में क्यों विफल रहे हैं, यह कारण आज भी अज्ञात ही है। हाँ, इसके विपरीत, इन दोनों देशों के दबाव में जरूर हम आते जा रहे हैं। अगर कहा जाये कि बड़े देशों के इन दबावों में भारत फंसने की तैयारी कर रहा है तो यह पूरी तरह गलत नहीं होगा। भारत की दुविधा यह है कि वह इन दबावों से निकलने की बजाय, इसमें उलझने की बेवजह कोशिश करता दिख रहा है। अमेरिका के साथ अभी हाल की जो सैन्य सम्बन्ध बढ़ाने घटाने की कोशिश हो रही है, उसके दूरगामी परिणाम होने वाले हैं। भारत और अमेरिका के बीच अहम रक्षा समझौता हुआ है, जिसमें दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे के सामान तथा सैन्य अड्डों का इस्तेमाल मरम्मत और आपूर्ति के लिए कर सकेंगी। इस मुद्दे को लेकर पिछली यूपीए सरकार के समय समझौता नहीं हो पाया था। हालाँकि, इसके सकारात्मक और नकारात्मक तथ्य आगे आएंगे, किन्तु समझने वाली बात यह है कि यह समझौता परस्पर दिखता जरूर है, किन्तु है यह एकतरफा! आखिर अमेरिका में जाकर, भारत उसकी ज़मीन का इस्तेमाल कर पाएगा क्या? और क्यों जायेगा वह पाताल में? जाहिर है, यह पूरी कवायद अमेरिका के पक्ष में कहीं ज्यादा झुकी हुई है तो भारत के लिए इस बात का भी खतरा है कि कहीं वह पाकिस्तान की तरह अमेरिका के हाथों अपनी स्वायत्तता को खतरा न उत्पन्न कर दे!

हालाँकि, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और भारत के दौरे पर आए अमेरिका के रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने इस बाबत कहा है कि समझौते पर आने वाले कुछ 'हफ्ते' या 'महीने' के अंदर दस्तखत हो जाएगा और इसका मतलब भारत की धरती पर अमेरिकी सैनिकों की तैनाती नहीं है। बताया जा रहा है कि भारत और अमेरिका द्विपक्षीय रक्षा समझौते को मजबूती देते हुए अपने-अपने रक्षा विभागों और विदेश मंत्रालयों के अधिकारियों के बीच मैरीटाइम सिक्योरिटी डायलॉग स्थापित करने को राजी हुए हैं, जिसमें दोनों देशों ने नौवहन की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कानून की जरूरत पर जोर दिया है। साफ़ है कि दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती दखलअंदाजी को देखते हुए संभवत: ऐसा किया गया है। इसके साथ-साथ साउथ ब्लॉक में प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के बाद दोनों देशों ने पनडुब्बी से संबंधित मुद्दों को कवर करने के लिए नौसेना स्तर की वार्ता को मजबूत करने का भी निर्णय किया है, तो दोनों देश निकट भविष्य में 'व्हाईट शिपिंग' समझौता कर समुद्री क्षेत्र में सहयोग को और बढ़ाएंगे। जाहिर है यह सारी गतिविधियाँ हिन्द महासागर और दक्षिणी चीन सागर क्षेत्र में ही होने वाली हैं और यह खतरा भी उत्पन्न हो सकता है कि कहीं यह शांत क्षेत्र भी तनावग्रस्त न हो जाए।

जानकारी के अनुसार, भारत और अमेरिका रक्षा वाणिज्य एवं प्रौद्योगिकी पहल के तहत दो नई परियोजनाओं पर सहमत हुए हैं, जिसमें सामरिक जैविक अनुसंधान इकाई भी शामिल है तो आने वाले महीनों में लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (एलईएमओए) करने को भी दोनों देश सहमत हैं।' गौरतलब है कि एलईएमओए साजो-सामान सहयोग समझौते का ही एक रूप है, जो अमेरिकी सेना और सहयोगी देशों के सशस्त्र बलों के बीच साजो सामान सहयोग, आपूर्ति और सेवाओं की सुविधाएं मुहैया कराता है। इस मामले में तेज तर्रार पर्रिकर साहब के बयान पर हास्य-बोध कहीं ज्यादा उत्पन्न होता है। प्रस्तावित समझौते के बारे में पर्रिकर ने कहा है कि मानवीय सहायता जैसे नेपाल में आए विनाशकारी भूकंप के समय अगर उन्हें ईंधन या अन्य सहयोग की जरूरत होती है तो उन्हें ये सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी।

बहरहाल एलएसए के साथ भारत हर मामले के आधार पर निर्णय करेगा। एलएसए तीन विवादास्पद समझौते का हिस्सा था, जो अमेरिका भारत के साथ लगभग एक दशक से हस्ताक्षर करने के लिए प्रयासरत था। इसी कड़ी में, दो अन्य समझौते हैं- संचार और सूचना सुरक्षा समझौता ज्ञापन तथा बेसिक एक्सचेंज एंड को-ऑपरेशन एग्रीमेंट। अमेरिकी अधिकारियों के अनुसार, साजो सामान समझौते से दोनों देशों की सेनाओं को बेहतर तरीके से समन्वय करने में सहयोग मिलेगा, जिसमें अभ्यास भी शामिल है और दोनों एक दूसरे को आसानी से ईंधन बेच सकेंगे या भारत को कलपुर्जे मुहैया कराए जा सकेंगे।

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