मायावती की चिंता दलित हित नहीं बल्कि खिसकता जनाधार है

Mayawati''s concern is not a Dalit interest
आशीष वशिष्ठ । Jul 28 2017 11:18AM

दलितों पर अत्याचार के कारण उनका दिल पिघलता तो कई मौके आए जब वह कुछ कर सकती थीं, पर उन्होंने कभी पीड़ितों के इलाकों या घरों तक का दौरा नहीं किया।

दलितों के आवाज न उठाने देने से नाराज मायावती ने क्या राज्यसभा से इस्तीफा देकर दलित संघर्ष की राजनीति में जोरदार वापसी का संकेत दिया है? क्योंकि राज्यसभा में मायावती ने 18 जुलाई को कहा, 'जिस सदन में मैं अपने समाज के हित की बात नहीं रख सकती उस सदन का सदस्य बने रहना का कोई मायने नहीं है।' ऊपरी तौर ऐसा लगता है मानो मायावती दलितों के दुख−दर्दों और परेशानियों के बोझ से कमजोर हुई जा रही हैं।

क्या मायावती ने सोची समझी रणनीति के तहत अपने राजनीतिक नफे−नुकसान का हिसाब लगाकर माकूल समय देखकर इस्तीफा दिया है। मायावती की यह दलील कि उन्हें सदन में बोलने नहीं दिया जाता, इस्तीफे का आधार नहीं हो सकती। सतही तौर पर, दलितों के बीच खिसकता जनाधार उनकी असल चिंता है। मायावती विशुद्ध राजनीतिज्ञ हैं। सीधे तौर मायवती ने अपने डूबते राजनैतिक कैरियर को बचाने के लिए एक बार फिर दलितों का मोहरा बनाया है।

राज्यसभा में मायावती ने यहां तक कहा कि, 'जिस सदन में वो अपने समाज के हित की बात नहीं रख सकतीं उस सदन का सदस्य बने रहना उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।' ऊपरी तौर ऐसा लगता है मानो मायावती दलितों के दुख−दर्द और परेशानियों के बोझ से कमजोर हुई जा रही हैं। सच्चाई इससे काफी इतर है। वर्ष 2012 में जब समाजवादी साइकिल ने बहनजी के हाथी को बुरी तरह टक्कर मारकर आईसीयू में पहुंचा दिया था, तब से लेकर आज तक उन्होंने यूपी समेत देशभर में दलितों पर हुये हमलों और अत्याचारों पर राजनीतिक नफे−नुकसान के हिसाब से बयान दिया, निंदा की। भाजपा नेता दयाशंकर सिंह के अपशब्द कहने पर जितना बड़ा प्रदर्शन मायावती के 'चेलों' ने लखनऊ में किया, उतना बड़ा प्रदर्शन रोहित वेमुला की मौत या सहारनपुर हिंसा पर नहीं किया? 

पर क्या सच्चाई भी इतनी स्पष्ट और पाक−साफ है? क्या उम्र के छठे दशक को पार कर चुकीं मायावती फिर एक बार 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' के असल नारे की ओर लौटेंगी! या उनमें अभी वह जज्बा कायम है कि वह कार्यकर्ताओं में 'चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर' के जोश को फिर से भर पाएंगी।

मायावती खुद को दलितों का सबसे बड़ा नेता बताती हैं। 2012 में यूपी की सत्ता से बेदखल होने के बाद से उनकी पार्टी का ग्राफ तेजी से गिरा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी जीरो पर बोल्ड हुई। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में उनकी झोली में 19 विधायक आए। मायावती ने विधानसभा चुनाव में 100 से अधिक टिकट मुस्लिम प्रत्याशियों को बांटे। दलितों के हिस्से में मात्र 87 टिकट आये।

बीते विधानसभा चुनाव में मायावती ने मुस्लिमों को अपने भाषणों में तरजीह भी खूब दी, पर दलितों को मैडम का यह राजनीतिक स्टाईल पसंद नहीं आया। दलितों की नाराजगी और मुस्लिमों का मायावती पर पूरी तरह से यकीन न करना 'हाथी की हार' की वजह बना। मायावती ने अपनी हार का ठीकरा बीजेपी और ईवीएम पर फोड़कर अपनी झेंप मिटाने का 'महान काम' किया। पर बात नहीं बनी, उनके अपने भी कन्विंस नहीं हुए और कार्यकर्ता पहले से भी अधिक निराश हुए। यह निराशा गुणात्मक रूप से पार्टी में लगातार बढ़ती देख मायावती को लंबे समय से नहीं सूझ रहा था कि वह क्या करें? ऐसे में उन्हें इस्तीफा सूझा और उन्होंने इस्तीफा दे दिया? उन्हें लगा कि उनकी कुर्बानी यूपी राज्य में दलितों में एक राजनीतिक उबाल ला देगी। पर ऐसा हुआ नहीं, यहां तक कि कोई बड़ा प्रदर्शन तक नहीं हुआ।

दलितों पर अत्याचार के कारण उनका दिल पिघलता तो कई मौके आए जब वह कुछ कर सकती थीं, पर उन्होंने कभी पीड़ितों के इलाकों या घरों तक का दौरा नहीं किया। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार दलितों पर अत्याचार के सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में ही होते हैं। उत्तर प्रदेश में वर्ष 2001 से 2006 तक के शासन काल की बात करें तो दलितों पर किए गए अत्याचार के कुल 34,622 मामले दर्ज किए गए थे। ये मामले मायावती के शासनकाल 2007 से 2012 के बीच बढ़कर 41,851 हो गए। वहीं अगर बात 2014 के आंकड़ों की करें तो देश भर में दलितों पर किए गए अत्याचार के कुल 47,064 मामले दर्ज किए गए जिनमें 8,075 मामले यानी करीब 12.75 फीसदी मामले सिर्फ उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए। वर्ष 2015 में भी अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्यों से अपराध के सबसे अधिक 8,358 मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए हैं। एनसीआरबी के मुताबिक, ये मामले 2014 के मुकाबले 3.50 प्रतिशत अधिक हैं। मायावती इन तमाम अत्याचारों को न सिर्फ चुपचाप देखती रहीं, बल्कि जब भी मुख्यमंत्री रहीं दलितों पर अत्याचार के मामले कम नहीं हुए। यहां तक कि एससीएसटी एक्ट में मायावती ने सबसे पहले ढील दी थी और हरिजन एक्ट में पकड़े जाने वालों की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी।

आंकड़ों पर नजर डालें तो 2007 से अब तक उत्तर भारत और हैदराबाद में आत्महत्या करने वाले 25 छात्रों में से 23 दलित थे। इनमें से दो एम्स में और 11 तो सिर्फ हैदराबाद शहर में थे। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में दलितों के खिलाफ सबसे ज्यादा आपराधिक मामले प्रकाश में आए हैं। दक्षिण भारत में अविभाजित आंध्र प्रदेश का नंबर पहले आता है। पर दलितों ने 2012 में मायावती को नकार दिया। 2014 में घास नहीं डाली और अब 2017 में उनकी झोली में कुछ सीटें डालकर दरवाजा बंद कर लिया। मायावती के लिए दलितों की ओर से इससे बड़ा सबक नहीं हो सकता, बशर्ते उन्हें समझ में भी आये। पश्चिमी यूपी में भीम आर्मी का तेजी से उभार भी इस बात का प्रतीक है कि दलित सशक्त व जमीनी नेतृत्व चाहते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि दलित समुदाय का मायावती से मोहभंग हो रहा है। मोहभंग हो भी क्यों न? हाल के दिनों में बीएसपी ने दलितों के लिए आगे बढ़ कर कौन सी लड़ाई लड़ी है भला? यूपी की सत्ता से बेदखल होने और लोकसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद यूपी समेत देशभर में दलित हत्या, अत्याचार, भेदभाव आदि के सैंकड़ों मामले प्रकाश में आये। कभी मायावती या उनकी पार्टी नेताओं को विरोध, नाराजगी जताते या आंदोलन करते देखा हो तो बताइए। प्रेस कांफ्रेंस बुला कर लिखा हुआ भाषण पढ़ देना और संसद में जारी शोर के बीच में एक और बयान जोड़ देने से दलितों का आखिर कितना हित होने वाला है। 

काश बहनजी आपने उस दिन इस्तीफा दिया होता जिस दिन हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में पीएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला ने खुदकुशी की थी। गुजरात में गाय का चमड़ा उतारने पर दलितों की बर्बर पिटाई हुई थी। फरीदाबाद का सुनपेड़ कांड जिसमें फरीदाबाद में घर में सोते हुए एक दलित परिवार पर पेट्रोल छिड़ककर उन्हें आग के हवाले कर दिया था। राजस्थान के बीकानेर के जैन आर्दश कन्या शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान नोखा में दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल का शव टंकी में मिला था। उस दिन भी आपके आंसू नहीं निकले होंगे। देशभर में घटी ऐसी तमाम घटनाओं पर 'दलित की बेटी' न कभी मुखर हुई और न ही उनके मन में आया कि वो इस्तीफा देकर सड़क पर आकर 'अपने लोगों' के लिये संघर्ष किया जाए। आप ठहरीं नेता। समय और अवसर के हिसाब से फैसले लेती हैं। यह समय आपको माकूल लगा। यूपी की सत्ता पाने का सपना पूरा नहीं हुआ। अगली बार राज्यसभा की देहरी देख पाना आसान नहीं है। बीजेपी आपके वोट बैंक में ठीक−ठाक सेंधमारी कर चुकी है। भीम आर्मी जैसे संगठन सिर नहीं उठा रहे बल्कि वो बड़ी जमीन तैयार कर चुके हैं। 

मायावती भले ही कांग्रेस और भाजपा के दलित प्रेम को नाटक बताती रहें, दरअसल दलित भी आपका 'दौलत वाला चेहरा' पहचान चुके हैं। ऐसे में इस छवि से मायावती निकल पाएंगी और 60 वर्ष की मायावती नौजवान मायावती के रूप में फिर से फील्ड में लौट पाएंगी, यह मुश्किल ज्यादा लगता है।

- आशीष वशिष्ठ

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