अखिलेश छाया में कमजोर होता मुलायम सिंह यादव का समाजवाद

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अजय कुमार । Jan 15 2019 11:35AM

समाजवादी पार्टी में भी विरोध से स्वर फूटने लगे हैं। समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन की घोषणा के दो दिन बाद ही समाजवादी पार्टी ने विधायक ने गठबंधन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

उत्तर प्रदेश में मुलायम का समाजवाद हासिये पर जाता दिख रहा है। बसपा से गठबंधन के बाद समाजवादी पार्टी में विरोध के स्वर फूटने लगे हैं। समाजवादी पार्टी के ही विघायक द्वारा कहा जा रहा है कि जब तक अखिलेश बसपा सुप्रीमों के समाने दंडवत करते रहेंगे तभी तक यह गठबंधन चलेगा। यहां बीजेपी नेता और सीएम योगी के बयान को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। योगी का हकीकत बयां करता यह बयान कि सपा−बसपा गठबंधन नहीं होता तो लोकसभा चुनाव में सपा के वजूद पर बन आती, कई संकेत देता है। योगी यहीं नहीं रूके उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि मायावती ने तो उन पर जरूरत से ज्यादा कृपा कीं वह (अखिलेश) तो दस सीटों का आँफर भी नाक रगड़कर मान लेते। 

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खैर, सच्चाई यही है कि जब से मुलायम को समाजवादी पार्टी से दूर किया गया है, तब से अखिलेश लगातार कमजोर होते जा रहे हैं। मुलायम समाजवादी पार्टी में वटवृक्ष की तरह से थे। 2012 में उन्हीं के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने मायावती सरकार को सत्ता से बेदखल किया था। तब स्वयं सीएम बनने की बजाया मुलायम ने पुत्र अखिलेश को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था। इससे अब पार्टी से बाहर करा रास्ता देख चुके शिवपाल यादव भाई मुलायम से नाराज भी हो गये थे। इसका कारण भी था। शिवपाल ने भले ही मुलायम सिंह की छत्रछाया में सियासत की दुनिया में नई ऊंचाइयां हासिल की थीं, किन्तु पार्टी मे किए गये उनके योगदान को भी कभी कोई अनदेखा नहीं कर पाया था। अखिलेश को सीएम बनाए जाने के समय भी शिवपाल खून का घूंट पीकर रह गये थे, लेकिन भाई मुलायम से चोट खाए शिवपाल ने भतीजे अखिलेश कैबिनेट के अधीन भी काम करने से गुरेज नहीं किया। समाजवादी पार्टी में 2014 के लोकसभा चुनाव तक सब कुछ ठीकठाक चलता रहा, लेकिन विरोधी जरूर अखिलेश पर हॉफ सीएम होने का तंज कसते रहते थे। तब मुलायम, शिवपाल यादव और आजम खान को सुपर सीएम की संज्ञा मिली हुई थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में टिकट बंटवारें में भी अखिलेश की कोई खास नहीं चली।

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अधिकांश सीटों पर टिकट वितरण में मुलायम और शिवपाल की ही चली। मगर जब समाजवादी को हार का सामना करना पड़ा और सत्ता में रहते हुए भी अखिलेश की समाजवादी पार्टी मात्र 05 सीटों पर सिमट कर रह गई, तो सारा ठीकरा उनके सिर फोड़ दिया गया। इसके बाद तो अखिलेश ने अपने तेवर ही बदल लिए और पिता मुलायम और चचा शिवपाल के एहसान को उन्होंने भूलने में कोई देरी नहीं की। अखिलेश ने बाप−चचा की सियासी जड़ों में मट्ठा डालने का भी काम किया। 2017 आते−आते मुलायम को एक तरह से जबरन रिटायर्ड कर दिया गया। उनकी जगह अखिलेश स्वयं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष बन गये। वह अब स्वयं सभी फैसले लेने लगे थे, शिवपाल भी पार्टी से बाहर हो गये, लेकिन तब तक यूपी में मोदी युग की शुरूआत हो चुकी थी, जिससे बड़े−बड़े नेताओं की नींद उड़ गई थी। अखिलेश के ऊपर भी ऐसा मोदी फोबिया चढ़ा की उन्हें 2017 में सत्ता खोने का डर सताने लगा। इसी वजह से जो मुलायम ताउम्र कांग्रेस से लड़ते रहे, उन्हीं के साथ अखिलेश ने गलबहियां करके 2017 का विधान सभा चुनाव लड़ लिया। जबकि नेताजी मुलायम सिंह यादव अंदरखाने से इसका विरोध करते रहे। नतीजा किसी से छिपा नहीं रहा। 2012 में 229 सीटों वाली समाजवादी पार्टी 2017 में 47 सीटों पर सिमट पर वहीं राष्ट्रीय पार्टी कहलाने वाली कांगे्रस 07 सीटों पर और बहुजन समाज पार्टी 19 पर सिमट गई। अखिलेश की कमजोर पकड़ के चलते समाजवादी पार्टी के वोट बैंक पर भाजपा ने सेंधमारी कर ली। 2017 में विधान सभा चुनाव की हार से हड़बड़ाए अखिलेश का यह हाल हो गया कि बसपा सुप्रीमों मायावती में उन्हें जीत का चेहरा नजर आने लगा। माया के सहारे लोकसभा उप−चुनाव में तीन सीटों पर मिली जीत ने अखिलेश को माया के सामने घुटने के बल कर दिया। माया के संकेतों को समझते हुए उन्होंने कांग्रेस से भी दूरी बना ली। माया की जिदद और अखिलेश के लचर रवैये के चलते ही यूपी में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन नहीं बन पाया। निराश कांग्रेस ने अब यूपी की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का मन बना लिया है। इससे बसपा−सपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं, लेकिन अखिलेश को मायावती के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं पड़ रहा है।  

समाजवादी पार्टी में भी विरोध से स्वर फूटने लगे हैं। समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन की घोषणा के दो दिन बाद ही समाजवादी पार्टी ने विधायक ने गठबंधन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। सुहागनगरी फीरोजाबाद के सिरसागंज से विधायक हरिओम यादव ने कहा कि यह गठबंधन लंबा नहीं चलेगा। मुलायम सिंह यादव के समधी हरिओम यादव से साफ कहा कि गठबंधन तभी तक चलेगा जब तक हमारी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव बसपा अध्यक्ष मायावती के सामने घुटने टेकते रहेंगे।

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बेहद आक्रामक छवि के विधायक हरिओम यादव का कहना था कि मायावती के बारे में सभी को पता है, वह अपने सामने किसी की भी नहीं सुनती हैं। यह गठबंधन तभी तक चल सकता है, जब तक हमारे अध्यक्ष अखिलेश यादव जी हर बात पर बहनजी की हां में हां मिलाते रहेंगे, और घुटने टेकते रहेंगे। इतना ही नहीं विधायक हरिओम यादव ने कहा कि फिरोजाबाद लोकसभा सीट से शिवपाल सिंह यादव चुनाव लड़ेंगे। यदि नहीं लड़ते हैं तो जनता जो फैसला करेगी वहीं हम करेंगे। हरिओम यादव का बयान आने के बाद माना जाने लगा है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच हुए गठबंधन के बाद अब सपा में ही बगावत शुरू हो गई है। सीटों और टिकट बंटवारे के समय यह बगावत चरम पर पहुंच सकती है।

पार्टी के फिरोजाबाद के सिरसागंज से विधायक हरिओम यादव ने समाजवादी पार्टी के खिलाफ शिकोहाबाद में 22 जनवरी को पोल खोलो सम्मेलन बुलाया गया है। इसमें लोगों को बताया जाएगा कि पांच साल में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ क्या−क्या किया गया। विधायक हरिओम यादव ने कहा कि नेताजी (मुलायम सिंह यादव) जैसे विशाल हृदय वाले व्यक्ति के साथ जब अखिलेश का 'गठबंधन' नहीं चला तो इनके साथ कैसे चलेगा। उन्होंने पार्टी के मुख्य महासचिव प्रोफेसर रामगोपाल यादव और सांसद अक्षय यादव पर भाजपा से मिले होने का आरोप लगाया। यहां पर काफी समय से रामगोपाल यादव की खिलाफत कर रहे हरिओम यादव ने कहा कि रामगोपाल यादव भाजपा से मिले हैं।

उधर, समाजवादी पार्टी के कुछ पुराने नेताओं को राम गोपाल यादव का वह बयान भी हजम नहीं हो रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि शिवपाल यादव ने अखिलेश के खिलाफ बोलना बंद नहीं किया तो समाजवादी पार्टी के लोग उनकी पिटाई कर देंगे। पुराने समाजवादियों का कहना है कि भले ही शिवपाल ने समाजवादी पार्टी छोड़ दी है, लेकिन उनके मुलायम, रामगोपाल और अखिलेश से पारिवारिक रिश्ते तो हैं ही। ऐसे में शिवपाल के बारे में किसी भी सपा नेता को बहुत सोच−समझ कर बयान देना चाहिए। कुल मिलाकर सियासी गलियारों में अखिलेश की लोकप्रियता और समाजवादी पार्टी के वोट बैंक का ग्राफ तेजी से गिर रहा है। समय रहते अखिलेश नहीं चेते तो समाजवादी पार्टी इतिहास भी बन सकती है।

- अजय कुमार

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