बिहार में सुशासन बाबू की प्रतिष्ठा दाँव पर, विपक्ष बिखरा जरूर है मगर कमजोर नहीं

Nitish Kumar
ललित गर्ग । Oct 6 2020 3:01PM

चुनावों पर कोरोना महामारी की स्थितियों का भी प्रभाव देखने को मिले तो कोई बड़ी बात नहीं है। ‘सुशासन बाबू’ के रूप में बनी नीतीश बाबू की छवि में पिछले पांच सालों में भारी गिरावट हुई है और राज्य में प्रशासनिक अक्षमता चर्चा में रही हैं।

बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियां एवं सरगर्मियां चरम पर हैं, वहां चुनावी चौसर अब लगभग बिछ चुकी है। कुल मिलाकर इस बार मुकाबला जेडीयू-बीजेपी बनाम आरजेडी-कांग्रेस-कम्युनिस्ट का बनता दिख रहा है। एनडीए में दरार पड़ चुकी है और लोजपा ने स्वतंत्र चुनाव लड़ने का फैसला किया है। यह चुनाव अनेक दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है। इन चुनावों की खास बात यह भी है कि विपक्ष तो हमेशा की तरह सरकार की गड़बड़ियों और नाकामियों को मुद्दा बना रहा है, पर सत्तापक्ष नई पिच की तलाश में है। एक और खास बात यह है कि इस बार दोनों ही चुनावी खेमों में छोटे दलों को तवज्जो न देने का रुझान दिखाई दे रहा है। विपक्षी गठबंधन की बात करें तो इसमें शामिल आरएलएसपी जैसे दल मुख्यमंत्री प्रत्याशी का सवाल उठाते हुए काफी पहले से यह कहने लगे थे कि नीतीश कुमार के सामने आरजेडी के युवा नेता तेजस्वी यादव फिट नहीं बैठते। मगर आरजेडी ने इस सवाल पर ध्यान देना तो दूर, गठबंधन सहयोगियों के साथ बैठना एवं रायशुमारी करना भी जरूरी नहीं समझा। सिर्फ अपनी तरफ से यह स्पष्ट कर दिया कि मुख्यमंत्री का चेहरा गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी तय करेगी।

इसे भी पढ़ें: भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की टीम की पहली परीक्षा हैं बिहार विधानसभा चुनाव

इसी तरह सत्तारुढ़ एनडीए में लोक जनशक्ति पार्टी नेता चिराग पासवान लगातार बिहार सरकार और नीतीश कुमार पर हमले कर रहे हैं, लेकिन एनडीए नेतृत्व उनके बयानों को नजरअंदाज करती जा रही है। माना जा रहा है कि लोजपा की कोशिश तालमेल में ज्यादा सीटें पाने की है, लेकिन जेडीयू और बीजेपी का तर्क है कि ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने से ज्यादा सीटें नहीं आ जातीं। पिछले विधानसभा चुनाव में 42 सीटों पर लड़कर भी एलजेपी महज दो सीटें जीत पाई थी। इन्हीं उपेक्षापूर्ण स्थितियों के बीच चिराग ने मनचाही सीटें न मिलने से नाराज होकर स्वतंत्र चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। लोजपा भाजपा के साथ कुछ सीटों पर भले ही फ्रेंडली फाइट करे, लेकिन वह उन सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार जरूर उतारेंगी, जहां जदयू के प्रत्याशी होंगे। एनडीए में पड़ी इस दरार का चुनाव परिणामों पर व्यापक न सही, पर कुछ असर जरूर पड़ेगा। यह चुनाव जहां भाजपा के लिये प्रतिष्ठा का सवाल है, वही विपक्षी दलों के लिये स्वयं को साबित करने का एक अवसर है। कुल मिलाकर यह चुनाव काफी दिलचस्प होने जा रहे हैं।

  

विपक्षी गठबन्धन का नेतृत्व लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव करेंगे, तेजस्वी वर्तमान विधानसभा में विपक्ष के नेता भी हैं और पूर्व में उपमुख्यमन्त्री भी रहे हैं। राज्य में कुछ माह को छोड़कर पिछले 15 साल से नीतीश बाबू के नेतृत्व में ही सत्तारुढ़ गठबन्धन सरकार चला रहा है। इन चुनावों में बिहार के मतदाता यदि उन्हें ही सत्ता सौंपते हैं तो यह आश्चर्यमिश्रित सफलता के साथ उनके कुशल शासन की जीत मानी जाएगी। नीतीश बाबू आम तौर पर अपनी सरकार के कामकाज को ही मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ते रहे हैं, पर इस बार लालू शासन यानी बिहार के कथित जंगल राज को मुद्दा बनाने में कई अड़चनें हैं। स्वाभाविक रूप से एनडीए को बिहार में किसी तगड़े भावनात्मक एवं प्रभावी मुद्दे की जरूरत है। यह इसलिये भी जरूरी हो गया है कि उनके क्षेत्रीय सहयोगी दल लोजपा ने जिस तरह अकेले ही चुनावों में उतरने का फैसला किया है उससे नीतीश बाबू की मुश्किलें थोड़ी बढ़ी हैं। वैसे राज्य में अब इस पार्टी की शक्ति इसके संस्थापक रामविलास पासवान के राजनीति में ज्यादा सक्रिय न होने की वजह से नाम मात्र की ही आंकी जा रही है, चिराग का राजनीतिक भविष्य दांव पर लगा है।

इसे भी पढ़ें: जदयू ने साधा चिराग पर निशाना, कहा- वंशवाद की राजनीति में लोग बिना बहुत योगदान किए बड़ी महत्वाकांक्षाएं रखते हैं

नीतीश बाबू का कद एवं वर्चस्व इस बार गिरा है क्योंकि सत्तारुढ़ गठबन्धन में जद (यू) व भाजपा को बराबर-बराबर सीटें मिली हैं। इस प्रकार नीतीश बाबू ने राज्य का क्षेत्रीय दल होने के नाते बड़े भाई होने का रुतबा खो दिया है। इसकी वजह उनके शासन के खिलाफ सत्ता विरोधी भावनाएं प्रबल होना माना जा रहा है और भाजपा यह चुनाव प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की छवि को आगे रख कर लड़ना चाहती है। भाजपा के पास हिंदुत्व के रूप में ऐसा एक रेडीमेड मुद्दा हमेशा उपलब्ध रहता है लेकिन बिहार में उसका हिंदुत्व कार्ड अब तक एक बार भी बाकी राज्यों जितना नहीं चल पाया है। राष्ट्रवाद जरूर चलता है, जैसा पिछले आम चुनाव के दौरान बिहार के वोटरों पर पुलवामा कांड के असर से जगजाहिर है, पर हिंदुत्व नहीं चलता। राष्ट्रीय मुद्दों के नाम पर स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा के कारण भाजपा देश में विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारी नुकसान झेल चुकी है। इस बार भी यही गलती दोहरायी जाती है तो भाजपा को नुकसान होगा। बहरहाल, अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत को सत्ता पक्ष की ओर से जबर्दस्त भावनात्मक रंग दिया जा रहा है और विपक्ष इसे मौन समर्थन देने के सिवा कुछ कर नहीं पा रहा। इस क्रम में पहली बार एक हिंदीभाषी राज्य में क्षेत्रीय अस्मिता बड़ा चुनावी मुद्दा बनकर उभरी है, हालांकि यह किस हद तक वोटों में बदलती है, यह भविष्य के गर्भ में है।

चुनावों पर कोरोना महामारी की स्थितियों का भी प्रभाव देखने को मिले तो कोई बड़ी बात नहीं है। ‘सुशासन बाबू’ के रूप में बनी नीतीश बाबू की छवि में पिछले पांच सालों में भारी गिरावट हुई है और राज्य में प्रशासनिक अक्षमता चर्चा में रही हैं। इनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कोरोना से उपजे लॉकडाउन काल के दौरान बिहार के प्रवासी मजदूरों की राष्ट्रीय स्तर पर दयनीय हालत प्रमुख है। इस समस्या के चलते बिहार की राजनीति से इस बार जातिगत समीकरणों का बन्धन टूटने का अन्देशा पैदा हो रहा है। इसके साथ ही विपक्षी महागठबन्धन ने इस बार कम्युनिस्ट पार्टियों को अपने साथ लेकर यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि जातिगत ध्रुवीकरण को सम्पन्न और विपन्न की धारों में बांटा जाये। भले ही वामपंथी दलों को 29 सीटें ही दी गई हैं। जबकि आजादी के बाद 1962 तक बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी ही प्रमुख विपक्षी दल हुआ करती थी। भारतीय जनसंघ का प्रादुर्भाव इस राज्य में 1967 से ही होना शुरू हुआ, परन्तु वर्तमान में राजनीतिक समीकरण बदलने का श्रेय कोरोना और लॉकडाउन को जरूर दिया जा सकता है जिसकी वजह से बिहार में अमीर-गरीब के बीच दूरी और बढ़ गई। बिहार के मतदाताओं की रूचि एवं रूझान जमीनी मुद्दों में अधिक है, उसको सर्वाधिक समझदार मतदाता भी माना जाता है, अब उसे ठगना या गुमराह करना आसान नहीं है। अतः इन चुनावों में कृषि क्षेत्र के लिए बनाये गये नये कानून भी प्रमुख मुद्दा रह सकते हैं और हार-जीत को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। राजनीतिक नजरिये से ये चुनाव देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाले भी माने जाएंगे क्योंकि बिहार को उत्तर भारत की राजनीति की प्रयोगशाला भी कहा जाता है। जाहिर है इसका प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़े बिना नहीं रहेगा।

इसे भी पढ़ें: PM मोदी के नेतृत्व में काम करेंगे लोजपा विधायक, नीतीश कुमार के पक्ष में नहीं करें मतदान: चिराग पासवान

भाजपा के लिये यह चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिये भी है कि उसे पिछले विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में बार-बार हार को देखना पड़ा है। समूचे देश पर भगवा शासन अब सिमटता जा रहा है। गुजरात में पार्टी बड़ी मुश्किल से जीती। कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी होकर भी तुरंत सरकार नहीं बना सकी। पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और झारखंड में पार्टी को हार मिली। हरियाणा में वह अकेले सरकार नहीं बना पाई और महाराष्ट्र में जीतकर भी सत्ता गंवा दी। दिल्ली में भी उसका जादू नहीं चला। इतने खराब नजीजों से विपक्ष का मनोबल बढ़ा। राष्ट्रीय स्तर पर इसका संदेश यह गया है कि मिली-जुली ताकत और सधी रणनीति से बीजेपी को चित किया जा सकता है। मतलब यह कि जनता अब आंख मूंदकर बीजेपी के हर मुद्दे को समर्थन नहीं दे रही। ऐसी स्थितियों में बिहार के चुनाव भाजपा के लिये एक बड़ी चुनौती है।

बिहार चुनाव में जीत किसी भी गठबंधन की हो, लेकिन जनता की तकलीफों के समाधान की नयी दिशाओं को उद्घाटित करते हुए विकास सभी स्तरों पर मार्गदर्शक बने, मापदण्ड बने, यही सशक्त लोकतंत्र की प्राथमिक अपेक्षा है। हर पार्टी को अपनी कार्यशैली से देश के सम्मान और निजता के बीच समन्वय स्थापित करने की प्रभावी कोशिश करनी होगी, ताकि देश अपनी अस्मिता के साथ जीवन्त हो सके और बिहार को सुशासन मिल सके।

-ललित गर्ग

(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़