बसपा के एकला चलो के नारे से उत्तर प्रदेश में उभर रही है त्रिकोणीय मुकाबले की तस्वीर
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 भी कांग्रेस और बसपा के लिए मुश्किलों भरा रहा। उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बनाने वाली बसपा केवल 12.88 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई। पार्टी को केवल एक सीट पर जीत मिली। विधानसभा में विलुप्त होने से तो पार्टी बच गई, लेकिन आधार वोट खो दिया।
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश की सियासत अंगड़ाई लेने लगी है। भारतीय जनता पार्टी हो या फिर समाजवादी पार्टी अथवा बसपा-कांग्रेस सब रणनीति बनाने में लगे हैं, लेकिन एक बात साफ हो गई है कि 2024 के आम चुनाव के लिए बसपा ने एकला चलो का ऐलान करके यह तय कर दिया है कि यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर चुनाव त्रिकोणीय तो होगा ही, इसके अलावा कांग्रेस के वर्चस्व वाली कुछ सीटों जैसे रायबरेली, अमेठी में मुकाबला चौतरफा भी हो सकता है। बसपा ने एकला चलो का फैसला तब लिया है जबकि 2014 के चुनाव में बसपा का वोट बैंक सिकुड़ा और पार्टी राज्य की सत्ता वर्ष 2012 में गंवाने के बाद लोकसभा से साफ हो गई। मायावती ने इस चुनाव में पूरा जोर लगाया। लेकिन, भाजपा के ब्रांड मोदी के आगे न मायावती टिकीं और न ही सत्ताधारी समाजवादी पार्टी कुछ कर पाई थी। इस चुनाव में भाजपा गठबंधन यानी एनडीए ने 73 सीटों पर जीत दर्ज की। 5 सीटें सपा और 2 सीटें बसपा के पाले में गई। पार्टी को चुनाव में 19.60 फीसदी वोट ही मिले। 22 से 25 फीसदी वोट बैंक की राजनीति करने वाली मायावती का आधार वोट खिसका। इसके बाद से बसपा संभल नहीं पाई है।
इस दौरान स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं ने भाजपा का दामन थामा तो ओबीसी वोट बैंक मजबूती के साथ भाजपा से जुड़ गया। भाजपा में गए तो दलित और अति पिछड़े वर्ग के वोटरों को एक नया ठिकाना दिखा। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में इसका असर दिखा। बसपा को 22.24 फीसदी वोट तो मिले, लेकिन पार्टी सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद एक बार फिर 26 साल बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के समय सपा और बसपा का गठबंधन हुआ। यूपी की राजनीति में कल्याण सिंह और राम मंदिर मुद्दे की हवा निकालने वाली मुलायम सिंह यादव और कांशीराम की जोड़ी की दोनों पार्टियां एकजुट हुईं। 2019 के चुनाव में इसका असर दिखा। 2014 के लोकसभा चुनाव में 71 सीट जीतने वाली भाजपा 62 सीटों पर आई। एनडीए ने कुल 64 सीटें जीतीं। यानी, 5 साल में 9 सीटों का नुकसान। फायदे में मायावती की बसपा रही। पार्टी ने सपा से गठबंधन का फायदा उठाते हुए 10 सीटों पर जीत दर्ज की। वहीं, सपा 5 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई। कांग्रेस घटकर एक सीट पर पहुंच गई। वर्ष 2019 के चुनाव में बसपा का वोट शेयर सपा से गठबंधन के बाद भी 19.3 फीसदी रहा। सपा 18 फीसदी वोट शेयर के साथ तीसरे स्थान पर रही। कांग्रेस 6.31 फीसदी वोट शेयर ही हासिल कर पाई। भाजपा ने 49.6 फीसदी वोट शेयर के साथ प्रदेश की राजनीति पर अपना दबदबा दिखाया।
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इसके बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 भी कांग्रेस और बसपा के लिए मुश्किलों भरा रहा। उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बनाने वाली बसपा केवल 12.88 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई। पार्टी को केवल एक सीट पर जीत मिली। विधानसभा में विलुप्त होने से तो पार्टी बच गई, लेकिन आधार वोट ही खो दिया। भाजपा ने एक बार फिर सभी दलों को पछाड़ा। पार्टी ने 41.76 फीसदी वोट शेयर हासिल किया। वहीं, सपा 32.02 फीसदी वोट शेयर के साथ दूसरे स्थान पर रही। वहीं, कांग्रेस 2.4 फीसदी वोट शेयर हासिल कर पाई। कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में 2 सीटों पर जीत मिली।
बहरहाल, लगातार हार के बाद भी बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती के हौसले कम नहीं पड़े हैं। वह एक बार फिर पूरे जोश से लोकसभा चुनाव 2024 में उतरने की तैयारी करती दिख रही हैं। इसके लिए मायावती लगातार जिला स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर रही हैं। एक बार फिर दलित, ओबीसी और मुस्लिम समीकरण को साधने की कोशिश है। बसपा का मास्टरप्लान रेडी है। मुस्लिम वोटरों पर अपनी पकड़ बनाने के लिए मायावती ने इमरान मसूद जैसे पश्चिमी यूपी के कद्दावर नेताओं को पार्टी से जोड़कर अपनी रणनीति साफ कर दी है। गुड्डू जमाली जैसे नेता तो बसपा के पास हैं ही वहीं इमरान मसूद के बाद पश्चिमी यूपी के बड़े मुस्लिम नेता शफीक उर रहमान वर्क की भी बसपा से नजदीकी दिख रही है। मुसलमान सपा के कोर वोटबैंक माने जाते हैं। पर, बसपा और भाजपा इस वोट बैंक में सेंधमारी की लगातार कोशिश कर रही हैं। बसपा दो कदम आगे चल रही है।
इस बीच सपा सांसद डॉ. बर्क ने एक बयान में बसपा सुप्रीमो मायावती को मुसलमानों का हितैषी करार देकर हलचल मचा दी है। बर्क के बयान के बाद लोगों की नजर उनके अगले कदम पर है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर डॉ. बर्क हाथी पर सवार होते हैं तो यह मायावती के लिए बढ़त वाली बात होगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा को एक और बड़ा मुस्लिम चेहरा मिल जाएगा। बसपा मुसलमानों को साध कर जितनी मजबूत होगी, सपा को उतना ही नुकसान उठाना पड़ सकता है। हालांकि, मायावती को इसके बाद भी एक ऐसे साथी की जरूरत है, जो वोट बैंक को उनकी तरफ ट्रांसफर कराए। यह साथी ब्राह्मण भी हो सकते हैं क्योंकि योगी सरकार में ब्राह्मणों को लगता है उनके साथ इंसाफ नहीं होता है। कांग्रेस यूपी में ब्राह्मण, ओबीसी और मुस्लिम वोट बैंक पर अपनी पकड़ रखती थी। इनके सहारे सत्ता की सीढ़ी चढ़ने की कोशिश करती थी। मायावती ने बहुजन वोट बैंक पर फोकस किया है। ऐसे में वह कांग्रेस के सहारे सवर्ण वोट बैंक को साधने की कोशिश कर सकती है। इन वोटों को गठबंधन के सहारे एक-दूसरे को ट्रांसफर कराने का प्रयास होगा।
खैर, बात समाजवादी पार्टी की की जाए तो अभी तो उत्तर प्रदेश में विपक्ष की राजनीति का चेहरा समाजवादी पार्टी ही बनी हुई है, उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव में समाजवादी पार्टी अपना वर्चस्व बना पाती है तो निश्चित तौर पर सपा इसे अगले लोकसभा चुनाव के मैदान में आजमा सकती है। वहीं बसपा दलित मुसलमान वोटों के सहारे अपने पक्ष में बाजी करने की कोशिश करेगी। भाजपा को सबसे अधिक भरोसा अपने हिंदू वोटरों पर है परंतु व अन्य वोटरों को भी नाराज नहीं करना चाहती है।
-अजय कुमार
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