अदालत अयोध्या का हल निकाले, उससे पहले ही समाधान के प्रयास तेज

the effort to resolve Ayodhya Ram Mandir issue is going on
अजय कुमार । Nov 22 2017 11:09AM

देश की सर्वोच्च अदालत दिसंबर के पहले हफ्ते से अयोध्या विवाद की नियमित सुनवाई करने जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अबकी बार कोई ने कोई फैसला अवश्य आ जायेगा, जो भी फैसला आयेगा, संभवतः वह अंतिम होगा।

देश की सर्वोच्च अदालत दिसंबर के पहले हफ्ते से अयोध्या विवाद की नियमित सुनवाई करने जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अबकी बार कोई ने कोई फैसला अवश्य आ जायेगा, जो भी फैसला आयेगा, संभवतः वह अंतिम होगा और उसे दोनों पक्षों को मान्य होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक ही सूरत में बदला जा सकता है, जब लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार ठीक वैसे ही इस फैसले में कोई बदलाव न कर दे, जैसे राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में शाहबानो केस में आस्था के नाम पर हुआ था। पूरे मामले पर थोड़ी रोशनी डालना जरूरी है। मामला वर्ष 1978 का था। मध्य प्रदेश के जिला इंदौर निवासी शाहबानो को उसके पति मोहम्मद खान ने तलाक दे दिया था। पांच बच्चों की मां 62 वर्षीय शाहबानो ने गुजारा भत्ता पाने के लिए कानून की शरण ली। करीब सात वर्ष बाद तमाम अदालतों से होता हुआ यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम अदालत ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय दिया, जो हर किसी चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो, लागू होता है।

सुन्नी वक्फ बोर्ड का हक नहींः रिजवी

उत्तर प्रदेश शिया बोर्ड सेंट्रल बोर्ड के अध्यक्ष सैयद वसीम रिजवी ने अयोध्या स्थित बाबरी मजिस्द पर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के मलिकाना हक को अवैध करार दिया है। उनका कहना था कि मस्जिद के निर्माण के समय से ही इसके मुलवल्ली शिया मुसलमान रहे हैं। सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने 1994 में एक अवैध अधिसूचना के जरिए इस मस्जिद को सुन्नी मस्जिद घोषित करा दिया था। शिया बोर्ड का दावा है कि एक अन्य मामले में उस अधिसूचना को फैजाबाद के सिविल कोर्ट के अलावा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक ने अवैध घोषित किया है। लिहाजा बाबरी मस्जिद पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है। रिजवी का कहना था कि हाईकोर्ट ने गुलाम बनाम राज्य सरकार से संबंधित एक मुकदमे में सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा 26 फरवरी 1994 को जारी की गई उस अधिसूचना को संदिग्ध मानते हुए खारिज कर दिया था।

कोर्ट ने शाहबानो के हक में फैसला देते हुए उसके पति मोहम्मद खान को गुजारा भत्ता देने का आदेश सुनाया। यह एक एतिहासिक फैसला था। तमाम मुस्लिम बुद्धिजीवी इसका समर्थन भी कर रहे थे, लेकिन इस फैसले का ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पुरजोर विरोध करते हुए इसे शरीयत में दखलंदाजी करार दे दिया। पर्सनल लॉ बोर्ड के विरोध के चलते शाहबानो के कानूनी तलाक भत्ते पर देशभर में राजनीतिक बवाल मच गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलवाने का दबाव बढ़ता जा रहा था। वोट बैंक की सियासत के चलते राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए एक साल के भीतर मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम, (1986) पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। राजीव गांधी ने ऐसा मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर किया था, जिसके चलते सरकार के शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया और शाहबानो जिसके भत्ते की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने भी मंजूरी दे दी थी, उसे अपने गुजारे के लिए कुछ नहीं मिल सका। वह न्याय के दरवाजे से जीत कर भी लोकतंत्र की चौखट पर हार गई।

खैर, तब निजाम दूसरा था और इस समय दूसरा है। अगर ऐसा न होता तो हाल ही में तीन तलाक को लेकर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी बदलवाने में कठमुल्ला कामयाब हो जाते, जिसकी कोशिश तो हुई थी, लेकिन कुछ मुस्लिम महिलाओं की जागरूकता और काफी हद तक मोदी सरकार के इकबाल के कारण ऐसा हो नहीं सका।

मुद्दे पर आया जाये। अयोध्या विवाद भी कुछ−कुछ शाहबानो केस जैसा ही है। तब शरीयत का हवाला देकर कठमुल्लाओं ने हो हल्ला मचाया था तो आज आस्था को लेकर जंग छिड़ी हुई है। बस फर्क इतना है कि शाहबानो केस में सिर्फ एक कौम प्रभावित हो रही थी, मगर अयोध्या विवाद में हिन्दू−मुस्लिम दोनों ही पक्षकार हैं और कोई भी झुकने को तैयार नहीं लगता है। इससे इतर अयोध्या विवाद सियासतदारों को भी खूब रास आता है, इसलिये भी अयोध्या विवाद सुलझने की बजाय बिगड़ता ज्यादा जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो यह विवाद कब का हल हो गया होता क्योंकि मुसलमान भी जानते हैं कि बाबर और भगवान राम में कोई तुलना नहीं हो सकती है। इस्लाम इस बात की कभी इजाजत नहीं देता है कि जिस जमीन को लेकर विवाद हो, इंसानियत खतरे में पड़ जाये, उस पर मस्जिद बनाकर अल्लाह को याद किया जाये, परंतु ऐसी बातों से धर्म के ठेकेदारों और सियासत की रोटिंया सेंकने वालों का क्या लेना-देना है।

फिर भी सुलह की कोशिशें कभी थमी नहीं, तो इसे पॉजिटिव वे में लेना चाहिए। आज की तारीख में जो काम धर्म गुरु श्री श्री रविशंकर या फिर उत्तर प्रदेश शिया सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष कर रहे हैं, बीते कई दशकों नहीं पांच सौ सालों में यही काम अन्य कई हस्तियां भी कर चुकी हैं। विवादित स्थल पर कब्जे को लेकर 1857 की क्रांति के दो साल बाद ही 1859 में विवाद हुआ था। इस पर ब्रिटिश प्रशासन ने भूमि की बाड़बंदी करते हुए दो अलग−अलग हिस्से कर दिए थे। एक हिस्से पर हिंदू पूजा कर सकते थे, जबकि दूसरा मुस्लिमों की इबादत के लिए छोड़ गया। लेकिन, यह व्यवस्था ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सकी और 1885 में महंत रघुबर दास ने राम चबूतरे पर छत डालने की मंजूरी के लिए याचिका दाखिल कर दी।

क्या कहना है अयोध्या विवाद के पक्षकारों का?

हिन्दू पक्षकार

मुस्लिम पक्षकार

निर्मोही अखाड़ा के महंत नरेंद्र दास का कहना है कि शिया बोर्ड इस मामले में राजनीति कर रहा है। अयोध्या में सिर्फ राम मंदिर बनना चाहिए, बाकी हमें कुछ नहीं कहना। निर्मोही अखाड़ा के ही महंत दिनेंद्र दास का कहना था कि शिया बोर्ड अभी तक सरयू के उस पार मस्जिद बनाने की बात कर रहा था, अब लखनऊ में मस्जिद बनाने की बात कहने लगा है। महंत धर्मदास ने कहा कि अयोध्या में सिर्फ राम मंदिर बने। मुस्लिम पक्ष मस्जिद कहीं भी बनाए, हमें इससे क्या लेना−देना है। विश्व हिन्दू परिषद के प्रंतीय मीडिया प्रभारी शरद शर्मा कहते हैं कि रिजवी की भावना स्वागत योग्य है। मुस्लिमों को अयोध्या से अपना दावा छोड़ देना चाहिए। राम मंदिर तो अयोध्या में हैं ही इसे सिर्फ भव्य रूप देना बाकी है।

बाबरी मस्जिद के मुद्दई मरहूम हाशिम अंसारी की विरासत संभाल रहे उनके पुत्र इकबाल अंसारी ने कहा, शिया बोर्ड को हस्तक्षेप का हक नहीं हैं वे फोकस में बने रहने के लिए सब कर रहे हैं। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने कहा कि शिया बोर्ड तो इस मामले में कोई पक्षकार ही नहीं। उनके बयान का कोई वजन नहीं। रिजवी सीबीआई जांच से बचने के लिए यह बयानबाजी कर रहे हैं। फिर भी अगर कोई पक्षकार मसौदा दे तो उसे संज्ञान में लिया जा सकता है। शिया वक्फ बोर्ड इस मामले में कहीं भी पक्षकार न था और न है। सुप्रीम कोर्ट में वही लोग पक्षकार हैं जिनको हाईकोर्ट ने अपने फैसले में हक दिया है। शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के प्रस्ताव से सुन्नी उलमा भी कतई सहमत नहीं नजर आ रहा है। उसका कहना है कि यह फैसला शिया बोर्ड का फैसला हो सकता है, मुसलमानों का नहीं। मुसलमानों के लिये सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही इस मामले का अखिरी हल है। शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना यासूब अब्बास का इस संबंध में कहना था कि ऑल इंडिया शिया बोर्ड का फैसला वही है जो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का है। कोर्ट का फैसला सर्वोपरि है लेकिन, अगर आपसी सुलह से कोई फॉर्मूला तैयार कर समझौते की कोशिश होती है तो उस पर विचार हो सकता है। मौलाना अली हुसैन रिजवी कुम्मी, संस्थापक शिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड को भी लगता है कि अयोध्या में विवादित भूमि पर मंदिर बने या मस्जिद यह अब न्यायालय तय करेगा।

पहली कोशिश के करीब 130 साल बाद 1990 में तत्कलीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने एक बार फिर मसले को हल करने की कोशिश की। चंद्रशेखर ने विश्व हिंदू परिषद के लोगों से इस मसले के समाधान के लिए बातचीत की कोशिश शुरू की, लेकिन बात नहीं बन सकी। जून, 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यालय में अयोध्या सेल का गठन किया था। लेकिन, यह पहल अपनी घोषणा से आगे नहीं बढ़ सकी। 26 जुलाई 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की बेंच ने फैसले को सुरक्षित रखते हुए सभी पक्षों को सौहार्द्रपूर्ण ढंग से मामले को सुलझाने का समय दिया था, लेकिन किसी ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। 24 फरवरी 2015 को बाबरी मस्जिद के सबसे बुजुर्ग पक्षकार हाशिम अंसारी ने अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास से सुलह के लिये मुलाकात की थी। इस बातचीत में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सुलह प्रस्ताव पेश करने की बात हुई थी, लेकिन इस बार भी मसला वार्ता से आगे नहीं बढ़ सका। 10 अप्रैल 2015 को अयोध्या में हिंदू पक्ष की ओर से हिंदू महासभा के स्वामी चक्रपाणि और मुस्लिम पक्षकार हाशिम अंसारी की मुलाकात हुई। लेकिन, पहली मुलाकात में ही प्रयास विफल साबित हुए।

इसी वर्ष 21 मार्च, 2017 को इस मामले पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने दोनों पक्षों को मामले के शांतिपूर्ण सुलह की सलाह दी थी। बेंच ने कहा था, 'यह धर्म और संवेदना का मसला है। ये ऐसे मसले हैं, जिन पर सभी पक्ष साथ में बैठकर बातचीत कर सकते हैं और किसी समाधान तक पहुंच सकते हैं।' लेकिन यह कोशिश भी परवान नहीं चढ़ सकी। दरअसल, इस दौरान एक तरफ तमाम लोग सुप्रीम कोर्ट की इच्छा के अनुरूप कोर्ट से बाहर सुलह की कोशिश कर रहे थे तो दूसरी तरफ मामले को उलझाने वाले भी कम नहीं थे। आज भी उत्तर सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा विवाद सुलझाने में ज्यादा रूचि नहीं ले रहा है। सब के सब 'अपनी ढपली, अपना राग' छेड़े हुए हैं। आरोप−प्रत्यारोप का भी दौर चल रहा है। अब तो प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को भी लगने लगा है कि सुलह का समय निकल चुका है, जो करेगी अदालत ही करेगी। योगी की बात में भी दम है, लेकिन अगर कोर्ट से बाहर सुलह का कोई रास्ता बन जाता है तो सबसे अच्छी बात यही होती कि न तो किसी की जीत होती, न ही किसी को हार का सामना करना पड़ता। असल में, कभी भी अयोध्या विवाद को सुलझाते की कोशिश पाक−साफ मन से नहीं की गई। अयोध्या की आड़ में धर्म और सियासत दोनों की ही रोटियां सेंकी गईं। यह कुछ लोगों के लिये सत्ता हासिल करने का माध्यम बन गया तो कई के लिये पैसा बटोरने के लिये अयोध्या विवाद सुनहरा मौका रहा।

बहरहाल, शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने तो 05 दिसंबर को सुनवाई शुरू होने से पूर्व ही अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए 5 सूत्री मसौदा भी तैयार कर लिया है। मसौदे में अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण और लखनऊ में मुस्लिमों के लिए मस्जिद−ए अमन' बनाने का प्रस्ताव दिया गया है। शिया बोर्ड ने 18 नवंबर को यह मसौदा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल करते हुए अयोध्या के विवादित भूखंड से अपना अधिकार वापस लेने का ऐलान किया है। शिया बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी ने अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि की मौजूदगी में मीडिया से कहा कि अयोध्या मंदिरों का शहर है। यहां मस्जिद बनाने का मतलब नहीं है। बोर्ड के प्रस्ताव के अनुसार शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड विवादित भूखंड से अपना अधिकार छोड़ेगा। विवादित स्थल पर राम मंदिर बनेगा। यूपी सरकार लखनऊ के हुसैनाबाद में घंटाघर में सामने खाली पड़ी नजूल की जमीन में से एक एकड़ मस्जिद बनाने के लिए बोर्ड को दे। सरकार के जमीन देने पर बोर्ड मस्जिद के लिए कमेटी बनाएगा। बोर्ड ही धन की व्यवस्था करेगा। मस्जिद का नाम मस्जिद−ए−अमन' होगा, किसी मुगल बादशाह या मीर बाकी के नाम पर नहीं।

- अजय कुमार

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