यूपी में दागी, बागी और दल बदलू करेंगे हार जीत का फैसला

भ्रष्टाचारियों से लेकर बाहुबलियों तक को टिकट दिये गये हैं। इस होड़ में कोई दल पीछे नहीं है। चुनाव में खड़े आधे से अधिक उम्मीदवार अपराधी हैं जिनके खिलाफ रंगदारी, हत्या, गुंडागर्दी आदि के मुकदमे चल रहे हैं।

उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव इस बार कई दृष्टियों से अनूठे हैं। इस चुनाव में हार जीत का फैसला दागी, बागी, दल बदलू और दिग्गज नेताओं के रिश्तेदार करेंगे। यूपी चुनाव में मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन, भाजपा और बसपा में है। 50 से अधिक सीटों पर राष्ट्रीय लोक दल मुकाबले को चतुष्कोणीय बना रही है। मुख्य राजनीतिक दलों ने चुनाव जीतने के लिए साम, दाम, दंड और भेद का रास्ता अख्तियार किया है। दागी, बागी और दल बदलुओं का सभी दलों में भारी बोलबाला है। ये लोग बाहुबली और धनबली हैं जिसके कारण यूपी की राजनीति पर उनका जबरदस्त कब्जा है। जातीय राजनीति के कारण ये नेता अपना विशेष स्थान बनाये हुए हैं। भाजपा ने स्वामी प्रसाद मौर्य, रीता बहुगुणा और रालोद विधायक दल के नेता को अपनी पार्टी में शामिल कर इसकी शुरुआत की।

बसपा ने मुख्तार अंसारी और अम्बिका चौधरी को अपनी पार्टी में लेने में विलम्ब नहीं किया। यही हालात कमोवेश समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की है। दल बदल का यह सिलसिला अभी रुका नहीं है। चुनाव में अपनी इसी विशेष योग्यता के बूते इन बागी और दागी नेताओं ने अपनी मन पसंद पार्टियों के टिकट हथियाने में सफलता हासिल करली है। अब यह चुनाव विशुद्ध रूप से दागी, बागी, दल बदलू नेताओं के बीच ही हो रहा है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों ने जैसे इनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। रही सही कसर दिग्गज नेताओं के रिश्तेदारों ने अपने अपने दलों से टिकट प्राप्त कर पूरी कर दी है। राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह, केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह, सपा नेता आजम खान, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, चौधरी अजीत सिंह, मुख्तार अंसारी के रिश्तेदारों ने जम कर फसल काटी है। धनबल, जातिबल और बाहुबल का नंगा नाच यूपी के चुनाव में देखने को मिल रहा है। सियासी दलों में हायतौबा मची है। सच ये है कि दागियों से सबका दामन दागदार है। भ्रष्टाचारियों से लेकर बाहुबलियों तक को टिकट देने की होड़ लगी है। इस होड़ में कोई दल पीछे नहीं है। चुनाव में खड़े आधे से अधिक उम्मीदवार अपराधी हैं जिनके खिलाफ रंगदारी, हत्या, गुंडागर्दी आदि के मुकदमे चल रहे हैं।

देश में दागी और बागी की राजनीति ज्यादा पुरानी नहीं है। धनबल और भुजबल का भारत की राजनीति में सदा ही प्रभाव और दखल देखा गया है विशेषकर दक्षिण में धनबल और हिंदी भाषी उत्तर के राज्यों में भुजबल को नकारा नहीं जा सकता। तीसरा दखल जातिबल का भी देखा गया है जिसके बूते अनेक राजनेता आज सर्वमान्य हो गए हैं। जो काम पैसों से नहीं होता है उसके लिए बाहुबल के इस्तेमाल की परंपरा चुनावी राजनीति में पुरानी है। दक्षिण भारत के राज्यों में जहां चुनावों में धनबल का इस्तेमाल सर्वमान्य है वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अपेक्षाकृत पैसे बांटे जाने के मामले कम नजर आते हैं। राजनीतिक पार्टियां इसके बदले बाहुबली प्रत्याशी या बाहुबली कार्यकर्ता से काम निकालती हैं। एक जमाने में सत्ता पाने के लिए नेता जन सरोकार में अपनी भागीदारी को मेरिट मानते थे मगर आज धनबल, बाहुबल और जातिबल के आधार पर लोग सियासत के शीर्ष पर चढ़ने लगे हैं। केवल लोकसभा, विधान सभा ही नहीं बल्कि ग्राम पंचायत से लेकर महानगरों के स्थानीय निकायों के चुनावों में भी यथासम्भव बाहुबल, धनबल, जातिबल, खापबल, आरक्षण बल, सम्प्रदाय बल, अनीति और असत्याचरण का बोलबाला आम बात हो गई है। डरा−धमका कर वोटरों से अपने पक्ष में वोट डलवाना इन इलाकों के लिए आम बात रही है इसलिए राजनीतिक शुचिता के दावों के बावजूद पार्टियां बड़ी संख्या में बाहुबली उम्मीदवारों को टिकट भी देती रही हैं। 

पिछले सत्तर सालों में जिस तरह हमारी राजनीति का अपराधीकरण हुआ है और जिस तरह देश में आपराधिक तत्वों की ताकत बढ़ी है, वह जनतंत्र में हमारी आस्था को कमजोर बनाने वाली बात है। राजनीतिक दलों द्वारा अपराधियों को शह देना, जनता द्वारा वोट देकर उन्हें स्वीकृति और सम्मान देना और फिर कानूनी प्रक्रिया की कछुआ चाल, यह सब मिलकर हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और जनतंत्र के प्रति हमारी निष्ठा, दोनों को सवालों के घेरे में खड़ा कर देते हैं।

सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव−प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति के शुद्धीकरण का नारा लगाया था। भाजपा एक अर्से से दूसरों से अलग राजनीतिक पार्टी होने का दावा करती रही है। फिर भाजपा के इतने मंत्री आरोपी क्यों? राजनीति का शुद्धीकरण होता क्यों नहीं दिखाई दे रहा? मोदीजी ने चुनाव−प्रचार के दौरान कहा था कि सरकार बनने के बाद सांसदों के खिलाफ लंबित मामलों की जांच की जायेगी, न्यायालय से कहा जायेगा कि सांसदों के खिलाफ चल रहे मामलों को एक साल में ही निपटाया जाये। प्रधानमंत्री ने ऐसे मामलों को निपटाने के लिए त्वरित अदालतों के गठन की बात भी कही थी। क्या यह सब चुनावी जुमलेबाजी थी?

चुनाव आते हैं तो राजनीति और अपराध जगत का संबंध भी सुर्खियों में आ जाता है। अपराधियों को नेताओं का समर्थन हो या नेताओं की अपराधियों को कानून के शिकंजे से बचाने की कोशिश, आखिर दलों पर अपराधियों का ये कैसा असर है। भारतीय लोकतंत्र में अपराधी इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि कोई भी राजनीतिक दल उन्हें नजरअंदाज नहीं कर पा रहा। पार्टियाँ उन्हें नहीं चुनतीं बल्कि वे चुनते हैं कि उन्हें किस पार्टी से लड़ना है। उनके इसी बल को देखकर उन्हें बाहुबली का नाम मिला है। कभी राजनीति के धुरंधर अपराधियों का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते थे अब दूसरे को लाभ पहुँचाने के बदले उन्होंने खुद ही कमान संभाल ली है।

पंद्रहवीं लोकसभा में कुल 162 सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे दर्ज थे, सोलहवीं लोकसभा में यह संख्या बढ़ी ही है। आखिर क्यों सरकार इस दिशा में कुछ कर नहीं रही? और विपक्ष भी क्यों चुप है इस मामले में? क्या इसलिए कि सबके दामन पर दाग है? क्या इसलिए कि बाहुबल, धनबल की राजनीति सबको रास आती है? ईमानदार राजनीति का तकाजा है कि राजनीति को आपराधिक तत्वों से मुक्त कराने की प्रक्रिया तत्काल शुरू हो। न्याय−व्यवस्था में बदलाव लाकर राजनीति के अपराधियों के मामले निश्चित समय−सीमा में निपटाये जाएं और यह समय−सीमा एक वर्ष से अधिक न हो। प्रधानमंत्री जी, आपने वादा किया था ऐसा करेंगे− 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो अब कमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।'

- बाल मुकुन्द ओझा

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