BJP को शहरों में चुनाव जिताते रहे मतदाता गांवों की वोटर लिस्ट में जुड़वा रहे अपना नाम, Yogi की टेंशन बढ़ी

हम आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश में SIR के पहले चरण के अंत तक जो तस्वीर उभर रही है, वह चौंकाने वाली है। राज्य भर में लगभग 17.7 प्रतिशत SIR और गणना प्रपत्र जमा नहीं हुए हैं, जिनकी संख्या करीब 2.45 करोड़ आंकी जा रही है।
उत्तर प्रदेश में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision– SIR) ने जिस राजनीतिक बहस को जन्म दिया है, वह महज़ तकनीकी प्रक्रिया तक सीमित नहीं है। यह बहस अब शहरी और ग्रामीण रिश्तों, पलायन की हकीकत, पहचान के संकट और सत्ता संतुलन तक जा पहुँची है। एक ओर चुनाव आयोग मतदाता सूचियों को शुद्ध और अपडेट करने की कवायद में जुटा है, तो दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के लिए यह प्रक्रिया उसकी परंपरागत शहरी ताकत के कमजोर होने की चेतावनी बनकर उभरी है।
हम आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश में SIR के पहले चरण के अंत तक जो तस्वीर उभर रही है, वह चौंकाने वाली है। राज्य भर में लगभग 17.7 प्रतिशत SIR और गणना प्रपत्र जमा नहीं हुए हैं, जिनकी संख्या करीब 2.45 करोड़ आंकी जा रही है। यह राज्य के कुल मतदाताओं का लगभग 15–18 प्रतिशत है। खास बात यह है कि इन “गायब” मतदाताओं का बड़ा हिस्सा शहरी क्षेत्रों से जुड़ा माना जा रहा है। लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी, गाजियाबाद, नोएडा, आगरा, मेरठ, सहारनपुर और अयोध्या जैसे शहरों में मतदाता सूचियों में बड़ी संख्या में कटौती की आशंका ने भाजपा को बेचैन कर दिया है। आंकड़े बताते हैं कि लखनऊ में लगभग 2.2 लाख, प्रयागराज में 2.4 लाख, गाजियाबाद में 1.6 लाख, सहारनपुर में 1.4 लाख और अयोध्या में करीब 30 हजार से लेकर 4,100 तक मतदाताओं के नाम कट सकते हैं।
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समस्या की जड़ SIR का वह नियम है, जिसके तहत अब कोई भी मतदाता केवल एक स्थान पर ही पंजीकृत रह सकता है। दरअसल, वर्षों से शहरों में रह रहे लाखों लोग अब भी अपने पैतृक गांवों में वोटर बने हुए थे। जब सख्ती बढ़ी, तो उन्होंने शहर की बजाय गांव को प्राथमिकता दी। इसकी वजहें कई हैं। पैतृक ज़मीन और विरासत के दस्तावेज़, पंचायत चुनावों में प्रभाव, ग्रामीण कल्याण योजनाओं से जुड़ी पहचान और सबसे बढ़कर गांव से भावनात्मक रिश्ता।
भाजपा के लिए यह इसलिए भी चिंता का विषय है क्योंकि शहरी मतदाता लंबे समय से उसका मजबूत आधार रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 17 में से 12 शहरी सीटें जीती थीं और उससे पहले नगर निकाय चुनावों में सभी मेयर पदों पर कब्जा जमाया था। लेकिन उसी 2024 में प्रयागराज और अयोध्या जैसी सीटों का हाथ से निकल जाना पहले ही खतरे की घंटी बजा चुका था। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर उपमुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और संगठन महामंत्री तक मैदान में उतर आए हैं। विधायकों और सांसदों को शादियों तक में न जाने की सलाह दी गई थी, ताकि वे SIR पर निगरानी रख सकें। हालांकि चुनाव आयोग एसआईआर की अब समयसीमा बढ़ा चुका है।
देखा जाये तो यह पूरा घटनाक्रम केवल भाजपा की चुनावी रणनीति की समस्या नहीं है, बल्कि यह उत्तर प्रदेश की सामाजिक-राजनीतिक संरचना को भी दर्शाता है। पिछले दो दशकों में राज्य से बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। लोग रोज़गार के लिए शहर आए, लेकिन पहचान, अधिकार और भविष्य की सुरक्षा आज भी गांव से जुड़ी रही। SIR ने इसी दबी हुई सच्चाई को सतह पर ला दिया। भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसने शहरी भारत को विकास, इंफ्रास्ट्रक्चर और “न्यू इंडिया” के नैरेटिव से जोड़ा। लेकिन यह नैरेटिव उन लाखों लोगों की प्रशासनिक और भावनात्मक हकीकत से टकरा रहा है, जिनके लिए वोटर आईडी केवल मतदान का साधन नहीं, बल्कि जमीन, राशन, पेंशन और पहचान का प्रमाणपत्र है। जब गांव की वोटर लिस्ट से नाम कटने का मतलब पंचायत में आवाज़ खोना और पैतृक हक़ पर सवाल बन जाए, तो शहर की सुविधाएं भी कमज़ोर पड़ जाती हैं।
बहरहाल, राजनीतिक रूप से देखें तो यदि शहरी मतदाता बड़ी संख्या में शहरों की सूचियों से बाहर हो जाते हैं, तो भाजपा का गणित गड़बड़ा सकता है। शहरी क्षेत्रों में मतदान प्रतिशत पहले ही अपेक्षाकृत कम रहता है। अब यदि वोटर सूची ही सिकुड़ गई, तो विपक्ष के लिए नए अवसर खुलेंगे। खासकर 2027 के विधानसभा चुनावों में जहां हर सीट पर कुछ हज़ार वोटों का अंतर निर्णायक होता है। इसके सामाजिक निहितार्थ और भी गहरे हैं। यह स्थिति बताती है कि भारत का शहरीकरण अधूरा है, लोग शहरों में रहते हैं, लेकिन नागरिक अधिकारों और पहचान के स्तर पर पूरी तरह शहरी नहीं हो पाए हैं।
-नीरज कुमार दुबे
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