नैनो-कीटनाशक से मस्तिष्क ज्वर, डेंगू के मच्छरों पर नियंत्रण संभव

Nano pesticides can control mosquitoes of brain fever and dengue

नैनो तकनीक का उपयोग दुनिया भर में बढ़ रहा है और लगभग सभी क्षेत्रों में इसे आजमाया जा रहा है। भारतीय वैज्ञानिकों ने अब नीम यूरिया नैनो-इमलशन (एनयूएनई) नामक नैनो-कीटनाशक बनाया है, जो डेंगू और मस्तिष्क ज्वर फैलाने वाले मच्छरों से निजात दिला सकता है।

वास्को-द-गामा (गोवा), (इंडिया साइंस वायर): नैनो तकनीक का उपयोग दुनिया भर में बढ़ रहा है और लगभग सभी क्षेत्रों में इसे आजमाया जा रहा है। भारतीय वैज्ञानिकों ने अब नीम यूरिया नैनो-इमलशन (एनयूएनई) नामक नैनो-कीटनाशक बनाया है, जो डेंगू और मस्तिष्क ज्वर फैलाने वाले मच्छरों से निजात दिला सकता है। तमिलनाडु के वेल्लोर में स्थित वीआईटी विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा बनाया गया यह नया नैनो-कीटनाशक डेंगू और मस्तिष्क ज्वर (जापानी एन्सेफलाइटिस) फैलाने वाले मच्छरों क्रमशः एडीस एजिप्टी और क्यूलेक्स ट्रायटेनियरहिंचस की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। 

वैज्ञानिकों ने नीम के तेल, ट्वीन-20 नामक इमल्शीफायर और यूरिया के मिश्रण से माइक्रोफ्लुइडाइजेशन नैनो विधि से करीब 19.3 नैनो मीटर के औसत नैनो कणों वाला नीम यूरिया इमलशन तैयार किया है।

एक नैनो का मतलब एक मीटर का अरबवां भाग होता है। नैनो तकनीक में नैनो स्तर पर पदार्थ के अति सूक्ष्म कणों का उपयोग किया जाता है, जिससे उसकी गुणवत्ता बढ़ जाती है। नीम एक प्राकृतिक कीटनाशक है, जिसका कारण उसमें पाया जाने वाला एजाडिरेक्टिन पदार्थ है। एनयूएनई कीटनाशक में नैनो स्तर पर एजाडिरेक्टिन अत्यधिक प्रभावी हो जाता है और ज्यादा समय तक स्थायी बना रहता है।

वैज्ञानिकों ने मदुरै स्थित आईसीएमआर के चिकित्सा कीट विज्ञान अनुसंधान केंद्र से लिए गए एडीस एजिप्टी और क्यूलेक्स मच्छरों के लगभग 50 ताजा अण्डों और 25 लार्वाओं पर एनयूएनई की दो मि.ग्रा. प्रति लीटर से लेकर 200 मि.ग्रा. प्रति लीटर की विभिन्न सांद्रता के प्रभाव का ऊतकीय तथा जैव-रासायनिक अध्ययन किया है। 

एनयूएनई नैनो-कीटनाशक में मच्छरों के अण्डों और लार्वाओं की वृद्धि रोकने की अद्भुत क्षमता पाई गई है। अध्ययन में एनयूएनई का घातक प्रभाव इन मच्छरों के लार्वओं की आंतों में स्पष्ट रूप से देखने को मिला है और यह अण्डनाशी और लार्वानाशी पाया गया है।

सामान्य संश्लेषी कीटनाशकों का प्रभाव सतही स्तर तक ही पड़ता है। लेकिन नैनो प्रवृत्ति होने के कारण एनयूएनई का प्रभाव मच्छरों की कोशिकाओं से लेकर एन्जाइम स्तर तक पड़ता है। यह मच्छरों के लार्वा की कोशिकाओं में मिलने वाले प्रोटीन, लिपिड, कार्बोहाइड्रेट और एन्जाइमों की मात्रा को कम कर देता है, जिससे मच्छरों के प्रजनन के साथ-साथ लार्वा से मच्छर बनने और उनके उड़ने जैसे गुणों में कमी आती है। इससे नैनो-कीटनाशक की मच्छरों के प्रति प्रभावी विषाक्तता का पता चलता है, जो उनकी बढ़ती आबादी में रोक लगाने के लिए कारगर साबित हो सकती है।

वैज्ञानिकों ने यह भी परीक्षण किया है कि इस नैनो-कीटनाशक की विषाक्तता का प्रभाव पर्यावरण में पादप और अन्य सूक्ष्म जीवों पर किस हद तक पड़ता है। मस्तिष्क ज्वर फैलाने वाले क्यूलेक्स मच्छर चावल के खेतों में पनपते हैं। इसलिए एनयूएनई की पादप-विषाक्तता का अध्ययन करने के लिए धान के पौधों और उसकी जड़ों में मिलने वाले एंटरोबैक्टर लुडविगी नामक लाभकारी बैक्टीरिया पर इसका परीक्षण किया गया है। वैज्ञानिकों ने पाया कि मच्छरों के नियंत्रण के लिए उपयोग होने वाली एनयूएनई की सांद्रता का बीजों के अंकुरण से फसल पकने तक की पौधे की किसी भी अवस्था में तथा बैक्टीरिया की कोशिकाओं पर कोई विषाक्त प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके अलावा धान में पाए जाने वाले जैव-रासायनिक तत्वों जैसे प्रोटीन के मेलोनडाइएल्डिहाइड की मात्रा और लिपिड परऑक्सीडेशन सक्रियता पर भी नैनो-कीटनाशक की विषाक्तता न के बराबर पाई गई है।

पिछले कुछ वर्षों में फसलों में लगने वाले कीड़ों से बचाव के लिए व्यावसायिक रूप से उपलब्ध सिंथेटिक कीटनाशकों के व्यापक उपयोग ने मिट्टी की उर्वरा क्षमता और जैव विविधता को बहुत कम कर दिया है। ऐसे में एनयूएनई नैनो-कीटनाशक एक अत्याधुनिक प्रभावी विकल्प बन सकता है, जिससे मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में भी मदद मिल सकती है। इसमें उपयोग किए गए नीम के कारण यह नैनो-कीटनाशक पर्यावरण के अनुकूल है। यूरिया के माध्यम से पौधों में नाइट्रोजन पूर्ति के लिए यह अच्छा नैनो-फर्टीलाइजर भी साबित हो सकता है। 

शोधकर्ताओं की टीम में प्रभाकर मिश्रा, मेरिलिन केज़िया सेमुएल, रुचिश्या रेड्डी, बृजकिशोर त्यागी, अमिताभ मुखर्जी और नटराजन चंद्रशेखरन शामिल थे। उनका यह शोध हाल ही में स्प्रिंजर के एन्वायरन्मेंटल साइंस ऐंड पाल्युशन रिसर्च जर्नल में प्रकाशित हुआ है। 

(इंडिया साइंस वायर)

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