Dubai का 'बैटल ऑफ द सेक्सेस': खेल की गरिमा पर सवाल, तमाशा ज़्यादा, खेल कम

दुबई में सबालेंका और किर्गियोस के बीच 'बैटल ऑफ द सेक्सेस' मैच खेल से ज़्यादा व्यावसायिक तमाशा बनकर रह गया, जहाँ खेल भावना और समानता के मुद्दे पर सवाल उठे। इस प्रदर्शनकारी मुकाबले में मनोरंजन पर ज़ोर रहा, लेकिन महिला टेनिस की बढ़ती लोकप्रियता और ऐतिहासिक समानता के संघर्ष के सामने इसकी प्रासंगिकता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हुआ।
दुबई के कोका-कोला एरीना में रविवार को जो मुकाबला हुआ, वह खेल से ज़्यादा एक तमाशा बनकर रह गया। टेनिस की वर्ल्ड नंबर-1 खिलाड़ी आर्यना सबालेंका और ऑस्ट्रेलिया के निक किर्गियोस के बीच खेला गया यह तथाकथित ‘बैटल ऑफ द सेक्सेस’ मुकाबला, देखने में भले ही बड़ा आयोजन लगा हो, लेकिन खेल भावना के लिहाज़ से कई सवाल छोड़ गया है।
बता दें कि सबालेंका मंच पर किसी रॉक शो की तरह चमकदार जैकेट पहनकर ‘रॉकी’ थीम म्यूज़िक के साथ उतरीं, जबकि किर्गियोस हमेशा की तरह बेपरवाह अंदाज़ में कोर्ट पर पहुंचे। करीब 17 हजार दर्शकों से भरे स्टेडियम में मुकाबला खेला गया, जहां फुटबॉल दिग्गज रोनाल्डो और काका जैसी हस्तियां भी मौजूद थीं। लेकिन एक घंटे के भीतर ही मुकाबला 6-3, 6-3 से खत्म हो गया और इसे रोमांचक खेल कहना मुश्किल रहा।
गौरतलब है कि इस मैच को “समानता” का रूप देने के लिए कोर्ट का आकार बदला गया था ताकि सबालेंका को थोड़ी राहत मिल सके, और किर्गियोस को दूसरी सर्विस की इजाजत भी नहीं थी। इसके बावजूद मुकाबला कहीं से भी बराबरी का नहीं लगा। सबालेंका जहां कभी-कभी नाचती और हल्के अंदाज़ में खेलती दिखीं, वहीं किर्गियोस भी गंभीरता से खेलने के मूड में नहीं नजर आए।
मौजूद जानकारी के अनुसार, यह आयोजन पूरी तरह मनोरंजन और व्यवसायिक उद्देश्य से किया गया था, जिसे दोनों खिलाड़ियों की एजेंसी ने मिलकर आयोजित किया। सवाल यह उठता है कि जब महिला टेनिस आज दुनिया का सबसे लोकप्रिय और व्यावसायिक रूप से मजबूत महिला खेल बन चुका है, तब इस तरह के मुकाबलों की जरूरत आखिर क्यों पड़ती है।
यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि 1973 में बिली जीन किंग ने बॉबी रिग्स को हराकर न सिर्फ एक मैच जीता था, बल्कि महिलाओं की खेलों में बराबरी की सोच को नई दिशा दी थी। उस मुकाबले का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व था। वहीं, दुबई में खेला गया यह मैच न तो किसी सामाजिक बदलाव की बात करता दिखा और न ही खेल की गरिमा को आगे बढ़ाता नजर आया।
मैच के बाद सबालेंका की प्रतिक्रिया और उनके चेहरे पर झलकती असहजता इस बात का संकेत थी कि शायद यह प्रयोग अनावश्यक था। खासकर तब, जब महिला खिलाड़ियों को लेकर पहले से ही शारीरिक तुलना और पक्षपात की बहस चलती रही है।
अंततः यह मुकाबला मनोरंजन जरूर रहा, लेकिन खेल के स्तर, संदेश और उद्देश्य के लिहाज़ से कई सवाल छोड़ गया है, जिनका जवाब आने वाले समय में खेल जगत को देना होगा।
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