National Human Trafficking Awareness Day 2025: इंसानों की तस्करी की त्रासदी वाला समाज कब तक?

National Human Trafficking Awareness Day
Prabhasakshi
ललित गर्ग । Jan 11 2025 11:21AM

मानव तस्करी की बढ़ती शर्मनाक घटनाओं ने संवेदनहीन होते समाज की त्रासदी को उजागर किया है। इन घटनाओं को अभिभावकों एवं समाज की संवेदनहीनता और क्रूरता के रूप में देखा जा सकता है, वहीं आजादी के अमृत काल में भी मानव-तस्करी की घिनौनी मानसिकता के पांव पसारने की विकृति को सरकार की नाकामी माना सकता है।

राष्ट्रीय मानव तस्करी जागरूकता दिवस हर साल 11 जनवरी को मनाया जाता है। यह दिन मानव तस्करी और आधुनिक दासता के खिलाफ़ जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। यह दिवस एक ऐसे वैश्विक अपराध, त्रासदी एवं अभिशाप की ओर ध्यान आकर्षित करता है जो दुनियाभर में मानव जीवन, परिवारों और समुदायों को डरावनी, खौफनाक एवं त्रासद अंधेरी दुनिया में धकेलता है। मानव तस्करी लाखों लोगों की आज़ादी और सम्मान को छीनता है, समाज को अनगिनत नुकसान पहुँचाता है, कानून और सुशासन को कमज़ोर करता है और अपराध को बढ़ावा देता है। मानव तस्करी में बल, धोखाधड़ी या जबरदस्ती के इस्तेमाल के ज़रिए शोषण एवं उत्पीड़न शामिल है। मानव तस्करी कई रूपों में हो सकती है जिसमें यौन तस्करी, बाल यौन तस्करी, जबरन मज़दूरी, ऋण बंधन, जबरन बाल मज़दूरी, घरेलू दासता और बाल सैनिकों की अवैध भर्ती और उपयोग शामिल है। यह पुरुषों, महिलाओं, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और बच्चों को सीमाओं के पार और देश के अंदर दोनों जगह प्रभावित करता है। मानव तस्करी के खिलाफ़ कानून और नीतियां बनाने के लिए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रयास किए जाने अपेक्षित है।

वैश्विक स्तर पर, मानव तस्करी के शिकार पाँच व्यक्तियों में से एक बच्चा हैं हालांकि अफ्रीका और ग्रेटर मेकांग जैसे गरीब क्षेत्रों और उप-क्षेत्रों में, तस्करी के शिकार लोगों में से अधिकांश बच्चे ही हैं। इस बीच, दुनिया भर में मानव तस्करी के शिकार लोगों में से दो तिहाई महिलाएँ हैं। मानव तस्करी एक वैश्विक समस्या है और दुनिया के सबसे शर्मनाक अपराधों में से एक है, जो दुनिया भर में लाखों लोगों के जीवन  के लिये अभिशाप है और सरकारों पर एक बदनुमा दाग एवं कलंक है। मानव तस्कर दुनिया के सभी कोनों से महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को धोखा देते हैं और उन्हें हर दिन शोषणकारी अंधेरी परिस्थितियों एवं दुनिया में धकेलते हैं। जबकि मानव तस्करी का सबसे वीभत्स रूप यौन शोषण है, हज़ारों पीड़ितों को जबरन श्रम, घरेलू दासता, बाल मजदूरी एवं भीख मांगने के लिये मजबूर किया जाता है और ऐसे पीड़ितों के अंगों को निकालने के उद्देश्य से भी तस्करी की जाती है। अंतरराष्ट्रीय एनजीओ शोध के अनुसार, पापुआ न्यू गिनी के लगभग 30 प्रतिशत यौन तस्करी के शिकार 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे हैं, जिनमें से कुछ की उम्र 10 वर्ष से भी कम है। कथित तौर पर कतिपय परिवार या जनजाति के सदस्य यौन तस्करी या जबरन मजदूरी करवाते हैं। कुछ माता-पिता बच्चों को सड़क पर भीख मांगने या सामान बेचने के लिए मजबूर करते हैं, और कुछ अपनी बेटियों को कर्ज चुकाने, समुदायों के बीच विवादों को सुलझाने या अपने परिवारों का समर्थन करने के लिए विवाह या बाल यौन तस्करी के लिए बेच देते हैं या मजबूर करते हैं।

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दुनियाभर में हर साल करीब 6 लाख से 8 लाख लोगों की तस्करी होती है। दुनियाभर में पाए गए सभी मानव तस्करी के पीड़ितों में से 51 प्रतिशत वयस्क महिलाओं की संख्या है। भारत में वर्ष 2019 में, सरकार ने 5145 मानव तस्करी के पीड़ितों और 2505 मानव तस्करी के संभावित पीड़ितों की पहचान किए जाने की जानकारी दी, जोकि वर्ष 2018 में पहचान किए गए 3946 मानव तस्करी पीड़ितों और 1625 मानव तस्करी के संभावित पीड़ितों की तुलना में वृद्धि थी। इसके आगे भी मानव तस्करी की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। भारत में वर्ष 2010 में राष्ट्रपति की घोषणा के अनुसार, प्रत्येक जनवरी को राष्ट्रीय गुलामी और मानव तस्करी रोकथाम माह के रूप में नामित किया गया है। मानव तस्करी की बढ़ती शर्मनाक घटनाओं ने संवेदनहीन होते समाज की त्रासदी को उजागर किया है। इन घटनाओं को अभिभावकों एवं समाज की संवेदनहीनता और क्रूरता के रूप में देखा जा सकता है, वहीं आजादी के अमृत काल में भी मानव-तस्करी की घिनौनी मानसिकता के पांव पसारने की विकृति को सरकार की नाकामी माना सकता है। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के प्रति घटने वाली ऐसी संवेदनहीनता की घटनाओं पर रोक लगाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

इस देश में मानव तस्करी के जघन्य अपराध के रूप में बच्चों के साथ जो हो रहा है उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी। उन्हें खरीदने-बेचने और उनसे भीख मंगवाने का धंधा, उनके शरीर को अपंग बनाने का काम, खतरनाक आतिशबाजी निर्माण में बच्चों का उपयोग, उनके साथ अमानवीय व्यवहार, तंत्र-मंत्र के चक्कर में बलि चढ़ते मासूम बच्चे और उनका यौन शोषण। देश के भविष्य के साथ यह सब हो रहा है। लेकिन जब सरकार को ही किसी वर्ग की फिक्र नहीं तो इन मासूमों की पीड़ा को कौन सुनेगा? इस बदहाली में जीने वाले बच्चों की संख्या जहां देश में लाखों में है, वहीं जन्मते ही बच्चों को बेच देने की घटनाएं भी रह-रह कर नये बन रहे समाज पर कालिख पौतते हुए अनेक सवाल खड़े करती है। लाखों बच्चे कुपोषण का शिकार मिलेंगे, लाखों बेघर, दर-दर की ठोकर खाते हुए आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर, निरक्षर और शोषित। बच्चों को बेच देने एवं तस्करी की घटनाएं कई बार ऐसी परतों में गुंथी होती हैं जिनमें समाज, परंपरागत धारणाएं, गरीबी और विवशता से लेकर आपराधिक संजाल तक के अलग-अलग पहलू शामिल होते हैं। 

समाज में आज भी लड़के एवं लड़की को लेकर संकीर्ण एवं अमानवीय सोच व्याप्त है, झारखण्ड में एक दंपति को पहले से तीन बेटियां थी। सामाजिक स्तर पर मौजूद रूढ़ियों से संचालित धारणा के मुताबिक उस दंपति को एक बेटे की जरूरत थी। यानी तीन बेटियां उसकी नजर में महत्वहीन थी कि उससे बेटे की भरपाई हो सके। इसलिए उसने ऐसी सौदेबाजी कराने वाले मानव तस्कारों एवं दलालों के जरिए किसी अन्य महिला से उसका नवजात बेटा खरीद लिया। यानी मन में बेटा नहीं होने के अभाव से उपजे हीनताबोध और कुंठा की भरपाई के लिए कोई व्यक्ति पैसे के दम पर गलत रास्ता अपनाने से भी नहीं हिचकता। इसके अलावा, मानव तस्करी करने वाले गिरोह दूरदराज के इलाकों में और खासतौर पर गरीबी की पीड़ा झेल रहे लोगों के बीच अपने दलालों के जरिए बालक एवं बालिका खरीदने के अपराध में लगे रहते हैं। झारखण्ड, ओड़ीसा, बिहार जैसे राज्यों के गरीब इलाकों में ऐसे तमाम लोग होते हैं, जिन्हें महज जिंदा रहने के लिए तमाम जद्दोजहाद से गुजरना पड़ता है। विश्व की बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनते भारत की सतह पर दिखने वाली अर्थव्यवस्था की चमक की मामूली रोशनी भी उन तक आखिर क्यों नहीं पहुंच पाती है?

मानव तस्करी की बढ़ती घटनाओं में बच्चों एवं बालिकाओं को बेचे और खरीदे जाने में जितने लोग, जिस तरह शामिल होते थे, वह नये बनते भारत के भाल पर एक बदनुमा दाग है। निश्चित रूप से इस मामले में मां की ममता एवं करूणा कठघरे में होती है, मगर कई बार अपने ही बच्चे के बदले पैसा लेने की नौबत आने में हालात भी जिम्मेदार होते हैं। वरना अपने बच्चे का सौदा करना किसी मां के लिए इतना आसान नहीं होता है। झारखण्ड और ओड़ीसा सहित देश के अनेक हिस्सों के गरीब इलाकों से अक्सर ऐसी खबरें आती रहती हैं, जिनमें कुछ हजार रुपए के लिए ही बच्चे को मानव तस्करों के हवाले कर दिया जाता है। सवाल है कि बच्चे को बेचने के पीछे क्या कारण होते हैं, उनके खरीददार कौन होते हैं और ऐसी सौदेबाजी को आमतौर पर एक संगठित गतिविधि के रूप में अंजाम देने में क्यों सफलता मिल जाती है। क्यों कानून का डर ऐसे मानव तस्कारों एवं अपराधियों को नहीं होता? क्यों सरकारी एजेंसियों की सख्ती भी काम नहीं आ रही है और लगातार ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यहां प्रश्न कार्रवाई का नहीं है, प्रश्न है कि ऐसी विकृत सोच एवं अपराध क्यों पनप रहे हैं?

राष्ट्रीय मानव तस्करी जागरूकता दिवस मनाते हुए हमें इस गुलामी एवं अभिशाप से मुक्ति में लगे संगठनों को आर्थिक मदद करनी चाहिए। हमें इस गुलामी को खत्म करने के लिए स्वयं आगे आना चाहिए। आज, मानव तस्करी के बारे में बहुत सारी भ्रांतियाँ हैं, इसलिए खुद को शिक्षित करें और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करें। सरकारों को भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह ईमानदारी से करना चाहिए। प्रेषकः

- ललित गर्ग

लेखक, पत्रकार, स्तंभकार

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