सार्वभौमिक बाल दिवसः बचपन की उपेक्षा आखिर कब तक?

Universal Childrens Day
ललित गर्ग । Nov 20 2020 12:25PM

सरकारों को कानूनों और नीतियों को बदलने और बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए व्यापक प्रयत्नों की अपेक्षा है। बच्चों को जीवित रहने और विकसित करने के लिए आवश्यक पोषण भी जरूरी है। साथ ही, बच्चों को हिंसा और शोषण से बचाना आवश्यक है।

संपूर्ण विश्व में ‘सार्वभौमिक बाल दिवस’ 20 नवंबर, को मनाया जाता है। इस दिवस की स्थापना वर्ष 1954 में हुई थी। इस दिवस को “अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार दिवस” भी कहा जाता है। बच्चों के अधिकारों के प्रति जागरूकता, अंतर्राष्ट्रीय बाल संवेदना तथा बच्चों के कल्याण, शिक्षा एवं सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए यह दिवस मनाया जाता है। बच्चों का मौलिक अधिकार उन्हें प्रदान करना इस दिवस का प्रमुख उद्देश्य है। इसमें शिक्षा, सुरक्षा, चिकित्सा मुख्य रूप से हैं। विश्वस्तर पर बालकों के उन्नत जीवन के ऐसे आयोजनों के बावजूद आज भी बचपन उपेक्षित, प्रताड़ित एवं नारकीय बना हुआ है, आज बच्चों की इन बदहाल स्थिति की जो प्रमुख वजहें देखने में आ रही है वे हैं-सरकारी योजनाओं का कागज तक ही सीमित रहना, बुद्धिजीवी वर्ग व जनप्रतिनिधियों की उदासीनता, माता-पिता की आर्थिक विवशताएं, समाज का संवेदनहीन होना एवं गरीबी, शिक्षा व जागरुकता का अभाव है।

सार्वभौमिक बाल दिवस पर बच्चों के अधिकार, कल्याण, सम्पूर्ण सुधार, देखभाल और शिक्षा के बारे में लोगों को जागरूक किया जाता है। दुनिया में सभी जगहों पर बच्चों को देश के भविष्य की तरह देखते थे। लेकिन उनका यह बचपन रूपी भविष्य आज अभाव एवं उपेक्षा, नशे एवं अपराध की दुनिया में धंसता चला जा रहा है। बचपन इतना डरावना एवं भयावह हो जायेगा, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आखिर क्या कारण है कि बचपन बदहाल होता जा रहा है? बचपन इतना उपेक्षित क्यों हो रहा है? बचपन के प्रति न केवल अभिभावक, बल्कि समाज और सरकार इतनी बेपरवाह कैसे हो गयी है? यह प्रश्न सार्वभौमिक बाल दिवस मनाते हुए हमें झकझोर रहे हैं।

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सरकारों को कानूनों और नीतियों को बदलने और बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए व्यापक प्रयत्नों की अपेक्षा है। बच्चों को जीवित रहने और विकसित करने के लिए आवश्यक पोषण भी जरूरी है। साथ ही, बच्चों को हिंसा और शोषण से बचाना आवश्यक है। इसने बच्चों को अपनी आवाजें सुनने और अपने समाजों में भाग लेने में सक्षम बनाया जाना आदि जरूरतों को देखते हुए इस दिवस की प्रासंगिकता है। जब हम किसी गली, चैराहे, बाजार, सड़क और हाईवे से गुजरते हैं और किसी दुकान, कारखाने, रेस्टोरेंट या ढाबे पर 4-5 से लेकर 12-14 साल के बच्चे को टायर में हवा भरते, पंक्चर लगाते, चिमनी में मुंह से या नली में हवा फूंकते, जूठे बर्तन साफ करते या खाना परोसते देखते हैं और हम निष्ठुर बन रहते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों व गरीबी के मार से बेहाल होकर इस नारकीय कार्य करने को विवश है। कूड़ों के ढेर से शीशी, लोहा, प्लास्टिक, कागज आदि इकट्ठा करके कबाड़ की दुकानों पर बेचते हैं। इससे प्राप्त पैसों से वह अपने व परिवार का जीविकोपार्जन करते हैं। लेकिन सार्वभौमिक बाल दिवस जैसे आयोजनों के बावजूद कब तक हम बचपन को इस तरह बदहाल, प्रताड़ित एवं उपेक्षा का शिकार होने देंगे। 

आज का बालक ही कल के समाज का सृजनहार बनेगा। लेकिन कमजोर नींवों पर हम कैसे एक सशक्त राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं? हमारे देश में भी कैसा विरोधाभास है कि हमारा समाज, सरकार और राजनीतिज्ञ बच्चों को देश का भविष्य मानते नहीं थकते लेकिन क्या इस उम्र के लगभग 25 से 30 करोड़ बच्चों से बाल मजदूरी के जरिए उनका बचपन और उनसे पढने का अधिकार छीनने का यह सुनियोजित षड्यंत्र नहीं लगता? यह कैसी विडम्बना है कि जब इस उम्र के बच्चों को स्कूल में होना चाहिए, खानदानी व्यवसाय के नाम पर एक पूरी पीढ़ी को शिक्षा, खेलकूद और सामान्य बाल सुलभ व्यवहार से वंचित किया जा रहा है और हम अपनी पीठ थपथपाए जा रहे हैं। बच्चों को बचपन से ही आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर हकीकत में हम उन्हें पैसा कमाकर लाने की मशीन बनाकर अंधकार में धकेल रहे हैं।

पारिवारिक काम एवं आर्थिक बदहाली के नाम पर अब बचपन की जरूरतों को दरकिनार कर खुलेआम बच्चों से काम कराया जा सकता है, नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने इन स्थितियों पर कड़ा विरोध व्यक्त किया है। कुछ बच्चें अपनी मजबूरी से काम करते हैं तो कुछ बच्चों से जबरन काम कराया जाता है। यदि गौर करें तो हम पाएंगे कि किसी भी माता-पिता का सपना अपने बच्चों से काम कराना नहीं होता। हालात और परिस्थितियां उन्हें अपने बच्चों से काम कराने को मजबूर कर देती हैं। पर क्या इसी आधार पर उनसे उनका बचपन छीनना और पढने-लिखने की उम्र को काम की भट्टी में झोंक देना उचित है? ऐसे बच्चे अपनी उम्र और समझ से कहीं अधिक जोखिम भरे काम करने लगते हैं। वहीं कुछ बच्चे ऐसी जगह काम करते हैं जो उनके लिए असुरक्षित और खतरनाक होती है जैसे कि माचिस और पटाखे की फैक्टरियां जहां इन बच्चों से जबरन काम कराया जाता है। इतना ही नहीं, लगभग 1.2 लाख बच्चों की तस्करी कर उन्हें काम करने के लिए दूसरे शहरों में भेजा जाता है। इतना ही नहीं, हम अपने स्वार्थ एवं आर्थिक प्रलोभन में इन बच्चों से या तो भीख मंगवाते हैं या वेश्यावृत्ति में लगा देते हैं। 

देश में सबसे ज्यादा खराब स्थिति है बंधुआ मजदूरों की जो आज भी परिवार की समस्याओं की भेंट चढ़ रहे हैं। चंद रुपयों की उधारी और जीवनभर की गुलामी बच्चों के नसीब में आ जाती है। महज लिंग भेद के कारण कम पढ़े-लिखे और यहां तक कि शहरों में भी लड़कियों से कम उम्र में ही काम कराना शुरू कर दिया जाता है या घरों में काम करने वाली महिलाएं अपनी बेटियों को अपनी मदद के लिए साथ ले जाना शुरू कर देती हैं।  कम उम्र में काम करने वाले बच्चे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक रूप से कमजोर होते हैं। साथ ही उनकी सेहत पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। इतना ही नहीं, कभी-कभी उनका शारीरिक विकास समय से पहले होने लगता है जिससे उन्हें कई बीमारियों का सामना करना पड़ता है। इन बच्चों को न पारिवारिक सुरक्षा दी जाती है और न ही सामाजिक सुरक्षा। बाल मजदूरी से बच्चों का भविष्य अंधकार में जाता ही है, देश भी इससे अछूता नहीं रहता क्योंकि जो बच्चे काम करते हैं वे पढ़ाई-लिखाई से कोसों दूर हो जाते हैं और जब ये बच्चे शिक्षा ही नहीं लेंगे तो देश की बागडोर क्या खाक संभालेंगे? इस तरह एक स्वस्थ बाल मस्तिष्क विकृति की अंधेरी और संकरी गली में पहुँच जाता है और अपराधी की श्रेणी में उसकी गिनती शुरू हो जाती हैं। वर्तमान संदर्भ में आधुनिक पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन शैली पर यह एक ऐसी टिप्पणी है जिसमें बचपन की उपेक्षा को एक अभिशाप के रूप में चित्रित किया गया है। सच्चाई यह है कि देश में बाल अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बच्चे अपराधी न बने इसके लिए आवश्यक है कि अभिभावकों और बच्चों के बीच बर्फ-सी जमी संवादहीनता एवं संवेदनशीलता को फिर से पिघलाया जाये। फिर से उनके बीच स्नेह, आत्मीयता और विश्वास का भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाए। श्रेष्ठ संस्कार बच्चों के व्यक्तित्व को नई पहचान देने में सक्षम होते हैं। अतः शिक्षा पद्धति भी ऐसी ही होनी चाहिए। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के समुचित विकास के लिये योजनाएं बनानी चाहिए। ताकि इस बिगड़ते बचपन और भटकते राष्ट्र के नव पीढ़ी के कर्णधारों का भाग्य और भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। ऐसा करके ही हम सार्वभौम बाल दिवस को मनाने की सार्थकता हासिल कर सकेंगे। 

- ललित गर्ग

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