रणकपुर के जैन मंदिरों की शिल्पकला और भव्यता प्रभावित करती है

Jain temples of Ranakpur reflects the indian sculpture

मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने न केवल मन्दिर निर्माण के लिए भूमि उपलब्ध कराई वरन् वहां एक नगर भी बसाया और इसी परिक्षेत्र में सूर्य मन्दिर का निर्माण भी कराया। मन्दिर का निर्माण करीब 50 वर्ष तक चला।

रणकपुर के जैन मन्दिर को धर्म और आस्था के साथ शिल्प का चमत्कार कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। रणकपुर के मन्दिर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य उदयपुर से 96 किमी. दूरी पर पत्थरों के अनगढ़ सौन्दर्य और प्रकृति की भव्य हरीतिमा के बीच भारतीय शिल्प का अनूठा उदाहरण हैं। अपनी अद्भुत वास्तुकला और जैन संस्कृति के आध्यात्मिक वैभव के साथ मुखर हैं। ये मन्दिर निकटतम रेलवे स्टेशन फालना से 33 किमी. दूर राजस्थान के पाली जिले में स्थित हैं।

प्राचीन जैन ग्रंथों में ''नलिनी गुल्म'' नामक देवविमान का उल्लेख मिलता है। रणकपुर के निकटवर्ती नान्दिया ग्राम के जैन श्रावक धरणशाह पोरवाल ने इस विमान की संरचना को स्वप्न में देखा था। उसने प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को समर्पित ''नलिनी गुल्म विमान'' के सदृश्य एक भव्य मन्दिर निर्माण का संकल्प लिया। संवत् 1446 में उस समय के प्रसिद्ध शिल्पकार देपा के निर्देशन में मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ कराया गया। मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने न केवल मन्दिर निर्माण के लिए भूमि उपलब्ध कराई वरन् वहां एक नगर भी बसाया और इसी परिक्षेत्र में सूर्य मन्दिर का निर्माण भी कराया। मन्दिर का निर्माण करीब 50 वर्ष तक चला। इस मन्दिर के निर्माण पर करीब 99 लाख रूपये व्यय किये गये। मन्दिर में चार कलात्मक प्रवेश द्वार हैं।

संगमरमर से बने इस खूबसूरत मन्दिर में 29 विशाल कमरे हैं, जहां 1444 स्तंभ लगे हैं। प्रत्येक स्तंभ पर शिल्प कला का नया रूप है। हर स्तंभ अपने आप में शिल्प का नया आयाम है। किसी भी कोण से खड़े हों, भगवान के दर्शन में कोई स्तंभ बाधक नहीं बनता। अनेक गुम्बज और छतें हैं। प्रत्येक छत पर एक कल्पवल्ली−कल्पतरू की कलात्मक लता बनी हुई है। मन्दिर का निर्माण सुस्पष्ट ज्यामितीय तरीके से किया गया है।

मूल गर्भगृह में भगवान आदिनाथ की चार भव्य प्रतिमाएं विराजमान हैं। यह प्रतिमाएं लगभग 72 इंच ऊंची हैं एवं चार अलग−अलग दिशाओं की ओर उन्मुख हैं। संभवतः इसी कारण से इस मन्दिर का उपनाम ''चतुर्मुख जिन प्रसाद' भी है। सामने दो विशाल घंटे हैं। यहीं सहस्त्रफणी नागराज के साथ भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। इसके अलावा मन्दिर में 76 छोटे गुम्बदनुमा पवित्र स्थल, चार बड़े प्रार्थना कक्ष तथा चार बड़े पूजन कक्ष हैं। मन्दिर के चारों ओर 80 छोटी एवं चार बड़ी देवकुलिकाएं शिखरबंद गुम्बदों में बनी हैं। प्रधान मन्दिर 220-220 फीट वर्गाकार है। मन्दिर परिसर का विस्तार 48400 वर्गफुट जमीन पर किया गया है। मन्दिर के निर्माण में सोनाणा, सेदाड़ी और मकराणा पत्थर का प्रयोग किया गया है।

मन्दिर के पास गलियारे में बने मंडपों में सभी 24 तीर्थंकरों की छवियां उकेरी गई हैं। मन्दिर की मुख्य देहरी में श्यामवर्ण की भगवान नेमीनाथ की भव्य मूर्ति लगी है। अन्य मूर्तियों में सहस्त्रकूट, भैरव, हरिहर, सहस्त्रफणा, धरणीशाह और देपाक की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। यहां पर 47 पंक्तियों का लेख चौमुखा मन्दिर के एक स्तम्भ में उत्कीर्ण है जो संवत् 1496 का है। इस लेख में संस्कृत तथा नागरी दोनों लिपियों का प्रयोग किया गया है। लेख में बापा से लेकर कुम्भा तक के बहुत से शासकों का वर्णन है। लेख में तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। फरग्युसन एवं कर्नल टॉड ने भी इसे भव्य प्रसादों में माना और इसकी शिल्पकला को अद्वितीय बताया। मन्दिर के बारे में मान्यता है कि यहां प्रवेश करने से मनुष्य जीवन की 84 योनियों से मुक्ति प्राप्त कर मोक्ष कर लेता है।

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

लेखक एवं पत्रकार

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